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मीडिया और सरकार आमने-सामने क्यों हो जाते हैं?

समीरात्मज मिश्र
९ अक्टूबर २०२०

निष्पक्ष पत्रकारिता के साथ सरकार से अच्छे रिश्ते भी बने रहें, यह एक असंभव सी स्थिति है. पत्रकारिता सरकार के कार्यों के प्रचार-प्रसार के लिए नहीं बल्कि उनकी कमजोरियों को ढ़ूंढ़ने और उन्हें उजागर करने के लिए होती है.

Indien: Chandrayaan-2
तस्वीर: picture-alliance/I. Aditya

मुंबई पुलिस ने एक दिन पहले टीआरपी के नाम पर चल रहे कथित फर्जीवाड़े का पर्दाफाश किया तो कुछ टीवी चैनल इस कदर महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस पर आक्रामक हो गए, मानो यह पर्दाफाश उन्हीं के लिए किया गया हो. हालांकि पुलिस ने रिपब्लिक टीवी चैनल को सीधे तौर पर कठघरे में खड़ा किया लेकिन अन्य चैनलों को भी इस गोरखधंधे में शामिल बताया और दो चैनलों के मालिकों समेत चार लोगों को गिरफ्तार भी किया है.

रिपब्लिक टीवी चैनल ने सीधे तौर पर महाराष्ट्र सरकार और मुंबई पुलिस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, तो दूसरी ओर मुंबई पुलिस भी चैनल पर कार्रवाई करने के रास्ते तलाश रही है. इससे पहले, चैनल के मुख्य संपादक को एक अन्य मामले में हिरासत में भी लिया जा चुका है.

निष्पक्ष पत्रकारिता के साथ सरकार से अच्छे रिश्ते भी बने रहें, यह एक असंभव सी स्थिति है. क्योंकि पत्रकारिता सरकार के कार्यों के प्रचार-प्रसार के लिए नहीं बल्कि सरकारी क्रियाकलापों में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और कमजोरियों को ढ़ूंढ़ने और उन्हें उजागर करने के लिए होती है. इस दौरान सरकार के साथ रिश्ते भी खट्टे-मीठे होते रहते हैं. लेकिन रिश्तों में खटास इस कदर हो जाएगी कि कोई मीडिया हाउस सरकार को विरोधी ही नहीं, बल्कि दुश्मन जैसा समझने लगेगा और सरकार उस मीडिया हाउस के साथ एक अपराधी या आपराधिक गैंग की तरह निपटाने की कोशिश करेगी, इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

सरकार बनाम मीडिया हाउस

पुलिस और मीडिया की झड़पें भी खूब हो रही हैं. तस्वीर: AFP/I. Mukherjee

मुंबई में वरिष्ठ पत्रकार कमल मिश्र कहते हैं, "ये मीडिया हाउस वर्सेज सरकार का मामला नहीं है. मीडिया हाउस यदि अपने कर्तव्यों से हट जाएगा, उसे जो करना है, उसे करने की बजाय किसी राजनीतिक दल के लिए काम करेगा, जन सरोकारों से उसका कोई सरोकार नहीं रहेगा तो उसे मीडिया हाउस कहा ही क्यों जाए. इन चैनलों की रिपोर्ट्स देखिए, इनके कार्यक्रम देखिए, उन्हें आप पत्रकारिता कहेंगे? मुंबई पुलिस कमिश्नर ने यूं ही प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की है. पुलिस के पास काफी साक्ष्य हैं और मामले में पर्याप्त सच्चाई भी दिख रही है.”

दरअसल, केंद्र में शासन करने वाली सरकारें अकसर अपने विरोधियों को कथित तौर पर सबक सिखाने के लिए कुछ जांच एजेंसियों और अन्य मशीनरी का सहारा लेती रही हैं. इस जद में कई बार सीधे तौर पर या फिर परोक्ष तौर पर मीडिया हाउस भी आए हैं. लेकिन अब राज्य सरकारें भी उसी ढर्रे पर चलने लगी हैं और मीडिया हाउस के खिलाफ सीधा मोर्चा खोलने से भी पीछे नहीं हट रही हैं.

हालांकि स्थानीय स्तर पर पत्रकारों को धमकाने, उनके खिलाफ एफआईआर करने, गिरफ्तार करने या फिर पक्ष में खबर चलाने के लिए लालच देने जैसी घटनाएं बहुत आम हैं लेकिन सीधे तौर पर मीडिया हाउस के मालिकों और संपादकों के खिलाफ सरकारी कार्रवाई में इतनी तेजी पिछले कुछ समय से ही देखने में आ रही है.

सरकार से नहीं, विपक्ष से पूछे जाते हैं सवाल

यूपी के बलरामपुर में एक टीवी चैनल के लिए काम करने वाले एक पत्रकार कहते हैं, "स्थानीय स्तर पर पत्रकारों के लिए काम करना कितना मुश्किल है, इसे वो ही समझ सकते हैं. जन सरोकार की पत्रकारिता करिए तो कहीं छपेगी नहीं, कहीं दिखेगी नहीं. सरकारी अधिकारियों के कोपभाजन का शिकार बनिए वो अलग. हां, जो इस तरह की पत्रकारिता कर रहे हैं उनके खिलाफ दर्जनों मुकदमे हुए हैं, धमकियां भी मिलती हैं और कई लोगों की हत्याएं भी हो चुकी हैं.”

सरकार से सवाल पूछने वालों की ट्रोलिंग आम बात हो गई है. तस्वीर: Surinder Nagar

दरअसल, पिछले कुछ समय से सरकार और पत्रकारिता का रिश्ता कुछ यूं बदला है कि जो पत्रकार हर कदम पर सरकार की कमियां ढूंढ़ते हैं, वही पत्रकार अब सरकार की तारीफों के इतने पुल बांधने लगे हैं कि कई बार सरकारें भी उन्हें पचा नहीं पातीं. विशेषकर टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों के संदर्भ में यह बात कही जा सकती है. दिलचस्प बात यह है कि इन बहसों में सवाल सरकार से नहीं बल्कि विपक्ष से पूछे जाते हैं. यूपी में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी ने तो टीवी चैनलों के इसी रवैये के कारण पिछले साल महीनों टीवी चैनलों का बहिष्कार कर रखा था और अपने प्रवक्ताओं को चैनलों की बहस में भाग लेने से मना कर दिया था.

यही नहीं, जिन मीडिया हाउस में कथित तौर पर सरकार विरोधी खबरें प्रकाशित या प्रसारित होती हैं, उनके खिलाफ सरकार किसी भी कार्रवाई से हिचकती नहीं है. विज्ञापन रोक लेना तो बहुत मामूली बात है, पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करा दी जाती है और गिरफ्तार तक कर लिया जाता है.

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, "इसके लिए दोनों ही लोग दोषी हैं, मीडिया हाउस भी और सरकार भी. सरकार विरोधी खबरों का मकसद यह होता है कि सरकार की आंखें खुलें, उसे पता चले कि जमीनी स्तर पर क्या हो रहा है. लेकिन समस्या यह है कि सरकारें आजकल यह मानकर चल रही हैं कि वे जो कर रही हैं, ठीक कर रही हैं और जमीन पर भी सब अच्छा हो रहा है. दूसरी ओर, ज्यादातर मीडिया हाउस खुद ही सरकारी भोंपू बन गए हैं. ऐसे में जब कुछ लोग आलोचना करेंगे तो उन्हें बुरा लग जाता है.”

विनोद दुआ के खिलाफ भी दो एफआईआर दर्ज

एक निजी संस्था राइट्स एंड रिस्क्स ग्रुप की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 25 मार्च से 31 मई के बीच, मुख्यतया विभिन्न राज्य सरकारों और उनके समर्थकों द्वारा कम से कम 55 पत्रकारों को कोरोना वायरस महामारी पर सरकारी प्रयासों से जुड़े तथ्यों को उजागर करने के लिए निशाना बनाया गया. रिपोर्ट में ऐसी घटनाओं को सूचीबद्ध किया गया है जब पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया, उन पर हमले किए गए, उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई गई और उन्हें समन या कारण बताओ नोटिस भेजे गए. इसी दौरान वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ भी दो एफआईआर दर्ज कराई गई थीं.

वरिष्ठ टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई अपने एक इंटरव्यू में कहते हैं, "यदि पत्रकार अपना काम करें तो सब कुछ ठीक होगा. पत्रकार आजकल अपना काम करने के सिवा सब कुछ करते हैं. हम अगर अपना लेख लिखें, सही खबर दें, अपना कार्यक्रम करें, बिना ये सोचे हुए कि नेता हमारे बारे में क्या सोचते हैं तो नियंत्रण की ये कोशिशें अपने आप नाकाम हो जाएंगी.”

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