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मीडिया को आईना दिखाते दलित पत्रकार

२२ मई २०१२

भारत आठ प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है. परमाणु शक्ति पहले ही बन चुका है. 2020 तक दुनिया की पांचवीं सबसे बडी अर्थव्यवस्था बनने का सपना देख रहा है. लेकिन दलितों के प्रति भारतीय समाज का रवैया अभी भी नहीं बदला है.

तस्वीर: AP

यह कुछ सच्ची घटनाएं हैं, जो भारत में हुईं लेकिन भारतीय मीडिया की नजरों से दूर रहीं. वीडियो 1: सड़क पर चीख चिल्लाहट मची है. सड़क के बीचों बीच दो लाशें पड़ी हैं. उन्हें उठाकर एंबुलेंस पर लादा जा रहा है. तस्वीर बयां करती है कि गंदे, बदबूदार नाले में फंसने से उन दोनों की मौत हुई है. वो नाले की सफाई करने वाले जमादार लग रह हैं जो कि भारत में निचली जातियों से आते हैं.

इसी में अधेड़ उम्र का एक इंसान नाले की सफाई करने उतरा है. उसके हाथ में न तो दस्ताना है. और न ही सुरक्षा के दूसरे साजो सामान. कभी भी जहरीली गैस की वजह से उसकी मौत हो सकती है. ये बात वो भी जानता है लेकिन पेट की खातिर वह सब कर रहा है. वह भी दलित है.

वीडियो 2: कुछ महिलाएं सवर्णों के घर के सामने से गुजर रही हैं. वह नंगे पैर हैं. चप्पल उन्होंने पैर से उतारकर हाथों में थाम रखा है. ऐसा न करने पर ऊंची जाति के लोग तमाशा खड़ा कर देंगे. महिलाएं निचली जाति से हैं जो दलित कहे जाते हैं.

यह तो बस बानगी भर है. हिंदुस्तान में आए दिन दलितों के साथ छुआछूत और अन्याय की घटनाएं होती हैं लेकिन मुख्यधारा के मी़डिया में बहुत सतही ढंग से इसका जिक्र किया जाता है. यही वजह है कि दलित समुदाय के युवकों ने खुद हाथ में कैमरा थाम लिया है. और सच उजागर कर रहे हैं.

अमोल ललजारे इन्ही में से एक हैं. मुंबई की एक झोपड़पट्टी में 27 साल के अमोल मोबाइल जितने बड़े कैमरे के सहारे अपना काम चलाते हैं. वो 'वीडियो वालंटियर' नाम के एक मानवाधिकार और मीडिया संगठन के लिए काम करते हैं. एक स्टोरी के लिए अमोल को 1,500 रुपये मिलते हैं. अगर स्टोरी 'असर छोड़ने वाली' साबित हुई तो एक स्टोरी के लिए उन्हे 5,000 रुपये तक मिल सकते हैं. अमोल उन 60 लोगों में से एक हैं जो पूरे देश में छुआछूत, गरीबी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर काम कर रहे हैं. 'इंडिया अनहर्ड' न्यूज सर्विस नाम की संस्था इन वीडियो को सन 2010 से ही ऑन लाइन प्रकाशित कर रही है. इस संस्था की स्थापना अमेरिकी नागरिक जेसिका मेबरी ने की है.

मेबरी कहती हैं कि इस तरह की समस्याएं ग्रामीण भारत में आम हैं. झारखंड का उदाहरण देते हुए वह कहती हैं, "ये प्रतिनिधित्व का सवाल है. इस प्रक्रिया के जरिए वो लोग सामने आ रहे हैं जिनके बारे में बाहर के लोग नहीं जानते. जैसे, झारखंड को ही लीजीए. इस राज्य में ज्यादातर आदिवासी हैं. लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में एक भी आदिवासी पत्रकार नहीं है."

मराठी समाचार पत्र, दैनिक दिव्य मत के संपादक कुमार केतकर मानते हैं कि भारत में हाशिये पर पड़े समाज पर मीडिया कम ही ध्यान देता है. इसे ज्यादा सरोकार मध्यवर्ग से है क्योंकि विज्ञापन देने वाली कंपनी इसी वर्ग को ध्यान में रखकर विज्ञापन देती हैं. इसीलिए खबरें भी उसी तरह से जमा की जाती हैं.

हालांकि 'वीडियो वालंटियर' के लिए खुशी की बात है कि भारत के बड़े अंग्रेजी चैनल, सीएनएन-आईबीएन ने हर हफ्ते इनकी एक खबर दिखाने के लिए हां कर दी है. वीडियो वालंटियर की आमदनी का दो तिहाई पैसा सामाजिक संगठनों के दान से आता है. जबकि एक तिहाई कमाई वीडियो बेचने से हो जाती है.

सीएमएस के निर्देशक पीएन वासंती का कहना है कि मुख्यधारा का मीडिया मुख्यरूप से राजनीति, अपराध, खेल और मनोरंजन की खबरों से भरा रहता है. समाजिक मुद्दों पर ध्यान कम ही दिया जाता है. तभी तो संगठन की प्रमुख मेबरी इसे न्यूज मीडिया का विस्तार कहती हैं.

वीडी/ओएसजे (एएफपी)

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