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मीडिया को कायदे बताती अदालत

Priya Esselborn९ अगस्त २०१२

मीडिया का काम है जानकारी देना, लेकिन कई बार खबरें बच्चों के बारे में होती हैं जिनमें नाम और पहचान बता दी जाती है. बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को इससे खतरा हो सकता है. दिल्ली हाई कोर्ट ने इस सिलसिले में नए दिशानिर्देश दिए.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

यौन शोषण, हिंसा, ड्रग्स या किसी भी अपराध में अगर किसी बच्चे का नाम आए, तो मीडिया उसकी पहचान नहीं बता सकता. दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, "मीडिया को यह तय करना होगा कि बच्चे की पहचान किसी भी तरह सार्वजनिक न हो, इसमें निजी जानकारी देना, उसकी तस्वीर, स्कूल, मुहल्ला या परिवार पर जानकारी को भी बचाकर रखना होगा." हाई कोर्ट के निर्देश में कहा गया है कि बच्चों से संबंधित किसी भी खबर को बढ़ा चढ़ा कर पेश नहीं किया जा सकता है ताकि भविष्य में बच्चे को किसी भी तरह के सदमे से बचाया जा सके और समाज में लोग इसका फायदा न उठा सकें. उनकी तस्वीरें छापने, इंटरव्यू के लिए माता पिता से अनुमति लेनी होगी और अगर वह बोलना न चाहे, तो उसके फैसले का सम्मान करना होगा.

इस समिति में बाल न्याय बोर्ड जेजेबी, राष्ट्रीय बाल अधिकार सुरक्षा आयोग एनसीपीसीआर और भारतीय प्रेस परिषद के सदस्य मौजूद थे. हाई कोर्ट के जज एक पीआईएल की सुनवाई कर रहे थे. इस साल जनवरी में नई दिल्ली के ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में आई एक छोटी बच्ची को लेकर मीडिया रिपोर्टों को लेकर वकील ने शिकायत दर्ज की. इसमें कहा गया कि अखबारों और चैनलों ने बच्चे की सारी जानकारी सार्वजनिक कर दी, जो बाल न्याय कानून के खिलाफ है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

दिल्ली पुलिस की बच्चों और महिलाओं के खास यूनिट में काम कर रहीं ऋतु जैन कहती हैं कि बच्चों की जानकारी सार्वजनिक करने से बच्चे को केवल नुकसान होता है, "किसी भी बच्चे की पहचान मीडिया पर बताने से बच्चे का कोई फायदा नहीं हुआ. उसे किसी ने सहारा नहीं दिया. केवल अदालत ने या सीडब्ल्यूसी (चाइल्ड वेल्फेयर कमेटी) ने मदद की. बच्चा एक नाम बन कर रह गया." जैन का कहना है कि टीवी पर आने के बाद बच्चा बातचीत का मुद्दा बन जाता है. भविष्य में जहां भी यह बच्चा जाएगा, स्कूल में या समाज में कहीं भी, तो लोगों के दिमाग में कई सवाल खड़े होंगे, "जो भी हुआ, बच्चे को तो वैसे भी खुद इसका असर झेलना पड़ा है, तो बाकी समाज को उस पर ऐसी प्रतिक्रिया देना का मौका क्यों दिया जाए."

भारत का मीडिया तेजी से विकास कर रहा है और प्राइस वाटरहाउस कूपर्स के आंकड़ों के मुताबिक यह सालाना 11.4 प्रतिशत बढ़ रही है, इसकी वजह से हर साल लाखों नौकरियां पैदा हो रही हैं लेकिन खबरों की बारीकी को लेकर संवेदनशीलता नहीं बन पा रही है. हाई कोर्ट का निर्देश संकेत है कि भारत में मीडिया को और समझदार होने की जरूरत है. वरिष्ठ पत्रकार और समाचार चैनल आज तक के पूर्व प्रमुख कमर वहीद नकवी कहते हैं कि ज्यादातर मामलों में इस निर्देश का पालन होता रहा है, खासकर उन बच्चों के मामलों में जो किसी न किसी अपराध के शिकार हुए हों या जिनका इस अपराध से कोई लेना देना हो. इससे पहले के निर्देश में बच्चों के भविष्य को नजर में रखते हुए उनके बारे में जानकारी को सार्वजनिक नहीं किया जा रहा था.

तस्वीर: AP

जहां तक नए मामलों में बच्चों की तस्वीरों को सार्वजनिक करने की बात है, तो नकवी का मानना है कि मीडिया में इसकी जानकारी का अभाव है, "जब किसी मामले में बहुत लोग शामिल हो जाते हैं, मीडिया का जिस तरह से विस्तार हुआ है, उसमें जिन लोगों ने जहां जहां ट्रेनिंग ली, कोई जरूरी नहीं है कि उनकी पढ़ाई में इन सारी चीजों का ध्यान दिया गया हो." नकवी के मुताबिक भारत में ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे पक्का किया जाए कि जहां पत्रकारिता पढ़ाई जा रही है, वहां इस तरह की मौलिक बातों को भी सिखाया जाए.

दुनिया भर की मीडिया पर नजर रखने वाली संस्था रिपोटर्स विदाउट बॉर्डर्स का मानना है कि प्रेस की आजादी को लेकर भी भारत को बहुत सुधार की जरूरत है. इसके मुताबिक भारत का स्थान 131वां है, जबकि फिनलैंड पहले और अमेरिका 47वें नंबर पर है.

ऋतु जैन का भी मानना है कि मीडिया के पास सनसनी फैलाने के नाम पर कई खबरें हैं और जरूरी नहीं कि वह केवल बच्चों की खबरों को अपने प्रचार के लिए इस्तेमाल करे. उनके मुताबिक भारतीय मीडिया इस वक्त इतना जगरूक नहीं हो पाया है कि वह इस बारे में सही फैसले ले सके.

नकवी कहते हैं, जब तक पत्रकारों को इस बात का पता चलता है और जब तक वे संवेदनशील होते हैं, "तब तक गलती हो चुकी होती है और नुकसान हो चुका होता है. लेकिन नए निर्देश से कम से कम लोगों को सचेत किया सकेगा और भविष्य में ऐसे मामले कम होंगे."

रिपोर्टः मानसी गोपालकृष्णन

संपादनः अनवर जे अशरफ

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