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मुसलमानों के अंधेरे

२४ मार्च २०१४

भारत की आधा से ज्यादा आबादी वंचित माहौल में रहती है. 66 साल की आजादी की अवधि हो गई लेकिन इन कौमों के अंधेरे नहीं मिटते. ऐसी ही एक कौम है मुसलमानों की, जिन पर आई एक ताजा रिपोर्ट चौंकाती है.

तस्वीर: Reuters

सच्चर कमेटी की मुस्लिमों के सामाजिक आर्थिक शैक्षणिक हालात पर ऐतिहासिक रिपोर्ट 2006 में आने के बाद केंद्र में अल्पसंख्यक मंत्रालय बना. प्रधानमंत्री के 15 सूत्री कार्यक्रम को दुरुस्त किया गया और मुस्लिमों के लिए कई क्षेत्रों में विकास कार्यक्रम शुरू किए गए.

मुस्लिमों की स्थिति में इन सात साल में आये बदलावों का पता लगाने के लिए अगस्त 2013 में जेएनयू के प्रोफेसर अमिताभ कुंडू की अगुवाई मे एक कमेटी बनाई गई. पिछले दिनों कमेटी ने अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को सौंप दी. इसमें पता चला कि मुसलमानों की तरक्की का ग्राफ तो कमोबेश जस का तस है. बेशक कुछ मोर्चों में राहत है लेकिन उन्हें उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता.

कुंडू कमेटी ने सुझाव दिया कि अत्यंत पिछड़ी मुसलमान जातियों (अजलाफ) को ओबीसी कोटे के दायरे में रखा जाए. इसी तरह मुस्लिम दलितों (अरजाल) को ओबीसी से एससी कोटे में डाला जाए. कुंडू कमेटी की एक बहुत महत्वपूर्ण सिफारिश है कि एससी एसटी एक्ट की तर्ज पर मुस्लिम विरोधी भेदभाव के खिलाफ कानून लाया जाए. प्रोफेसर कुंडू का कहना है, "कई नेता गोल टोपी पहनकर मुस्लिम बिरादरी की भलाई के पैरोकार बन जाते हैं", लेकिन भेदभाव कायम है.

तस्वीर: DW/S.Waheed

कहने को ये अंतरिम रिपोर्ट है और अंतिम रिपोर्ट जून तक आएगी लेकिन इसमें उठाए सवालों का जवाब केंद्र और राज्य सरकारों, नीति निर्माण एजेंसियों और अफसरशाहों को देना पड़ेगा. विभाग और मंत्रालय इन सात सालों में क्या कर पाए. जब ये विभाग नहीं थे तो बिरादरी के कल्याण के काम क्या ठप पड़े थे. वक्फ बोर्ड जैसी संस्थाएं कहां हैं और क्या कर रही हैं. मुस्लिमों के सामाजिक शैक्षिक संगठन अगर खुद को बहुत सक्रिय और जागरूक बताते हैं, तो आंकड़ो में वो रिफ्लेक्ट क्यों नहीं होता. क्यों अभी भी शिक्षा मे मुस्लिम बच्चों का आंकड़ा शोचनीय है.

18 फीसदी से ज्यादा शहरी मुस्लिम शिक्षित युवा बेरोजगार हैं. अन्य ओबीसी के मुकाबले मुस्लिम ओबीसी मे 50 फीसदी गरीबी है. उच्च शिक्षा में तीन फीसदी मुसलमान युवा ही आते हैं. 2011-12 के नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक देश में 13.8 फीसदी आबादी मुस्लिम है. 2009-10 के मुकाबले एक फीसदी की बढ़ोतरी है लेकिन सामाजिक आर्थिक शैक्षणिक हालात का ग्राफ कमजोर ही है.

इस भीषण भेदभाव की एक वजह उस सामाजिक दूरी में निहित है, जो इधर सांप्रदायिकता से निकली है. हिंदू कट्टरपंथ का उभार हुआ है. 'वे और हम' की ये भावना एक समाज को बांटती है. आतंकवाद के मामले हों या मुठभेड़ों के या दंगों के, इधर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और तीखा किया गया है. चुनाव के मौके पर तो इसका एक भयानक और कुत्सित चेहरा साफ दिख जाता है.

फिर मुस्लिम बिरादरी के अपने अंतर्विरोध भी देखिए. पसमंदा यानि पिछड़े दलित मुसलमानों की स्थिति बदतर है ऐसे में सवाल यही उठता है कि जो भी उच्च वर्ग का मुसलमान तबका है, उसने अपनी पिछड़ी कौमों को अंधेरे से निकालने में मदद क्यों नहीं की. वे नेता, राजनीतिज्ञ और धार्मिक संगठनों के बड़े लीडर आखिर किस सामाजिक लड़ाई में भागीदारी कर रहे हैं जो पसमंदा तबकों को उनके हालात से निकलने में मददगार नहीं बन पाते.

तस्वीर: UNI

मुसलमानों की 36 पिछड़ी जातियां हैं और एक पूरे देश के भूभाग में वोट बैंक के रूप में इनका इस्तेमाल सालों से किया जाता है लेकिन ये बहुत अजीबोगरीब बात है कि उनके विकास और कल्याण की योजनाएं, कार्यक्रम और नीतियां आखिर असरदार क्यों नहीं हो पा रही हैं. वे कब अपना असर दिखाएंगीं. माइनॉरिटी कमीशन बेशक बना है लेकिन इसके सदस्य अल्पसंख्यकों, खास कर मुस्लिम समुदाय के प्रति एक उदासीन रवैया ही रखते हैं. बिरादरी में पिछड़ापन और नाइंसाफी गिराने वाली ताकतों के खिलाफ वे कम ही बोलते देखे गए हैं.

सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के जिम्मेदार कठमुल्ले भी हैं, जो बच्चों और महिलाओं के प्रति एक दुराग्रह और कट्टरता का रवैया रखते हैं. वे इसलिए सामाजिक तरक्की को नापसंद करते हैं क्योंकि इससे लोगों में जागरूकता आती है और वे धर्म और अल्लाह के नाम पर बरगलाए नहीं जा सकते.

इस मामले में चाहे मुसलमान हों या हिंदू, आम लोगों का दर्द एक ही है. धर्म, अंधविश्वास और कुरीतियों की बेड़ियों से हिंदुस्तानी समाज जकड़ा हुआ है. जितनी ज्यादा आधुनिकता आई है उतना ही ये जकड़नें बढ़ती जाती हैं. इसी से समझा जा सकता है कि खुद को आधुनिक कहने वाले तबके धीरे धीरे कैसे अपने लोगों की निरीहताओं और मुसीबतों से पीछा छुड़ाते हुए नई चमक में दाखिल होते जाते हैं. इन्हें कभी वोट, तो कभी फर्ज और कभी धर्म के नाम पर स्वार्थ, लालच और हिंसा की भेंट चढ़ा दिया जाता है.

वे आम लोग क्या चाहते होंगे, क्या रहता होगा उनके मन में. शायद यही जो हिन्दी के वरिष्ठ कवि असद जैदी की एक कविता में हैः

जीवित रहे मेरी रजाई जिसने मुझे पाला है

जीवित रहे सुबह जो मेरी खुशी है

और रहें फिर संसार में वे जिन्हें रहना है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

संपादनः अनवर जे अशरफ

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