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मेघालय में महिला राज

८ मार्च २०१३

आम तौर पर दुनिया भर के समाज पितृसत्तात्मक और पुरुष प्रधान होते हैं. लेकिन ऐसी जगह भी है, जहां महिलाओं को काफी अधिकार हैं और इसके लिए ज्यादा इधर उधर देखने की भी जरूरत नहीं. यह जगह भारत में ही है.

तस्वीर: BRYAN PEARSON/AFP/Getty Images

पूर्वोत्तर भारत के गंवई इलाके के एक गांव में महिलाओं को सबसे ज्यादा इज्जत की नजर से देखा जाता है. करीब 10 लाख लोगों का वंश महिलाओं के आधार पर चलता है. जिस वक्त दुनिया अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रही है, इस इलाके के पुरुष इस कोशिश में लगे हैं कि सदियों पुरानी इस व्यवस्था को बदला जाए.

मेघालय की खासी जाति के समाज में महिलाएं ही केंद्र में होती हैं. पुरुष अधिकार कार्यकर्ता कीथ पारियात का कहना है, "आप किसी भी अस्पताल के जच्चा बच्चा केंद्र में जाकर देखें. अगर कोई लड़का पैदा होता है तो लोग थोड़े अफसोस के साथ कहते हैं कि चलो कोई बात नहीं, वह काम चला लेगा. लेकिन अगर बच्ची पैदा होती है, तो खुशी का ठिकाना नहीं रहता है."

पारियात सिंगखोंग रिम्पाई थिम्माई संगठन के कार्यकर्ता हैं, जो इस परंपरा के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. खासी जाति की परंपरा के मुताबिक परिवार की सबसे छोटी बेटी सभी संपत्ति की वारिस बनती है, पुरुषों को शादी के बाद अपनी पत्नियों के घरों में जाना पड़ता है और बच्चों को उनकी मांओं का उपनाम दिया जाता है.

बेटियां अहम

और तो और, अगर किसी परिवार में कोई बेटी नहीं है, तो उसे एक बच्ची को गोद लेना पड़ता है, ताकि वह वारिस बन सके. नियमों के मुताबिक उनकी संपत्ति बेटे को नहीं दी जा सकती है. यह परंपरा हजारों सालों से चली आ रही है लेकिन अब पारियात जैसे लोग इसे बदलना चाहते हैं. उनका कहना है, "अगर किसी पुरुष को अपनी सास के घर पर रहना पड़े, तो उसे चुप रहना पड़ता है. आप सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं. कोई भी आपकी आवाज सुनने को तैयार नहीं होता है, आपकी राय नहीं जानना चाहता है. किसी भी फैसले में आपका दखल नहीं होता है."

शिलांग के 60 साल के कारोबारी पारियात का मानना है कि खासी जाति के पुरुषों के लिए यह तरीका बिलकुल गलत है, "चूंकि मर्दों पर किसी तरह की जिम्मेदारी नहीं होती है, तो वे जीवन को आसानी से लेते हैं. इसकी वजह से वह ड्रग्स और शराब में फंस जाते हैं और उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है."

बेकार पुरुष

इसके अलावा खासी जाती की महिलाओं को इस बात का अधिकार है कि वे समुदाय से बाहर शादी कर सकती हैं. इससे समाज के पुरुष बहुत खुश नहीं हैं. पारियात की ही संस्था से जुड़े 41 साल के टीबोर लंगखोंगजी के मुताबिक, "खासी जाति के पुरुषों के पास सुरक्षा के नाम पर कुछ नहीं है. उनके पास जमीन नहीं है, वे परिवार का बिजनेस नहीं चला सकते और वे किसी काम के नहीं हैं."

पुरुषों ने इस समाज में अपने अधिकारों के लिए 1960 के आस पास जंग शुरू की. लेकिन उसी वक्त खासी जाति की महिलाओं ने एक विशाल सशस्त्र प्रदर्शन किया, जिसके बाद पुरुषों का विरोध ठंडा पड़ गया. पारियात की संस्था का गठन 1990 में हुआ, जिसमें खासी जाति की परंपरा को बदलने की बात है. भारतीय संविधान के अनुसार भारत की जनजातियां अपने पारंपरिक नियम खुद बना सकती हैं.

तस्वीर: FINDLAY KEMBER/AFP/Getty Images

इस इलाके में हमेशा जाति के नियम और भारतीय संविधान का टकराव होता है. जब लैंगिक मतभेद बहुत ज्यादा बढ़ता है, तो न्यायालय को दखल देना पड़ता है. हालांकि पहले सिर्फ महिला अधिकारों की ही बात होती थी, पुरुषों के अधिकार को लेकर कभी बात नहीं होती थी. शिलांग की महिलाएं इस बात को नकारती हैं कि उनके समाज में भेदभाव के साथ काम होता है.

अच्छे हालात

इस पूरे इलाके के समाज में महिलाओं की स्थिति अच्छी मानी जाती है लेकिन राजनीतिक स्तर पर उनकी भागीदारी अभी भी ज्यादा नहीं है. राज्य के 60 विधायकों में महिलाओं की संख्या सिर्फ चार है. शिलांग टाइम्स की संपादक पैट्रीशिया मुखिम का कहना है, "सबसे छोटी बेटी को संपत्ति का वारिस बनाने की वजह यह है कि मां बाप को लगता है कि वह मरते दम तक उनकी देख भाल कर सकती है. उन्हें लगता है कि वे अपनी बेटी पर आश्रित रह सकते हैं."

भारत में आम तौर पर महिलाओं पर एक बेटे को जन्म देने का दबाव रहता है, बेटी को नहीं. लेकिन मेघालय में स्त्री पुरुष औसत बेहतर है. यहां प्रति 1050 पुरुषों पर 1035 महिलाएं हैं, जबकि भारत में आम तौर पर 1050 पुरुषों पर सिर्फ 1000 महिलाएं ही हैं.

भारत में महिलाओं के साथ भेदभाव के मामले आम तौर पर बहुत ज्यादा देखे जाते हैं. छेड़खानी और बदसलूकी के मामले बहुत ज्यादा सामने आते हैं. पिछले साल दिल्ली में गैंग रेप की घटना पूरी दुनिया में सुर्खियों में रही.

शिलांग में एक प्राथमिक स्कूल में पढ़ा रही 25 साल की पेसुंद्रा रेसलिंखोए का मानना है कि दिल्ली की घटना के बाद मातृसत्तात्मक समाज की प्रांसगिकता बढ़ गई है, "मैं समझती हूं कि यह एक अच्छी परंपरा है. इसकी वजह से अधिकार महिलाओं के साथ रहता है और कई बुराइयां दूर रहती हैं."

हालांकि पारियात की संस्था इसके खिलाफ कानूनी कदम उठाने का नहीं सोच रही है. उनका मानना है कि अनौपचारिक तौर पर प्रचार करने से ही उनका काम बन जाएगा.

हालांकि खासी जाति को उनके विरोध से कोई परवाह नहीं. पत्रकार मुखिम का कहना है, "मेघालय में लोगों को पुराने रीति रिवाज पसंद हैं."

एजेए/एएम (एएफपी)

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