'मेरा पढ़ना परिवार का अपमान!'
१५ फ़रवरी २०१३शादी से इनकार करने पर नौ साल अपने ही घर में कैद. रोशनी नहीं, सूरज नहीं, लेकिन साथ शब्दों का. अपने छोटे भाई को कह कर गांव की छोटी सी लाइब्रेरी से जितनी हो सकती किताबें मंगवाती, पढ़ती. नानी ने दिया था नाम राजाती यानी राजकुमारी. लेकिन राजकुमारी को अपना महल बनाने में जिंदगी के कई साल चारदीवारी, पति की नाराजगी और सास के सवालों की वेदी में स्वाहा करने पड़े.
नौ साल की इस कैद का गुस्सा बहा कविताओं में. प्रखर, आक्रोश से भरी कविताएं. कम से कम माता पिता ने इस मामले में राजाती का पूरा साथ दिया और उसे घर में पढ़ने और लिखने से कभी नहीं रोका. "13साल की उम्र में मेरे घर के लोगों ने मेरी शादी तय कर दी. मैंने मना किया. लेकिन वह समझ नहीं पाए. दो साल मैंने और लड़ाई की. मां पिता के साथ रोज लड़ाई होती थी. फिर एक दिन मैंने हां कह दिया. चार गली दूर मेरा ससुराल था. वो लोग मेरे लिखने के और ज्यादा खिलाफ थे. मुझे कहा, "यह हमारे लिए अपमान की बात है. अपने घर में किया ठीक है. लेकिन यहां नहीं चलेगा."
पढ़ती क्यों है
सलमा बताती हैं, "पति को पसंद नहीं था कि मैं पढ़ूं लिखूं. मेरी किताबें ढूंढ कर फेंक देते. क्योंकि अच्छे घर की मुसलमान औरतें ऐसा नहीं करतीं. पति के सो जाने का इंतजार करती. ताकि कविताएं लिख सकूं. सिरहाने नोटबुक रखती ताकि नोट कर सकूं. सुबह वो नोटबुक गायब हो जाती. कैलेंडर के टुकड़ों पर लिखती, ड्रेसिंग टेबल में छिपा देती लेकिन कुछ समय बाद ये टुकड़े भी गायब हो जाते."
सलमा बताती हैं, "किसी को पता नहीं चले कि मैं लिखती हूं इसलिए पेन नेम ढूंढा. टॉयलेट में सेनिटरी नैपकिन वाली छोटी सी अलमारी में पेन छिपा कर रखा था. रात को टॉयलेट में खड़ी हो कर जितना लिख सकती, लिखती. साड़ियों के, कपड़ों के बीच इन कागजों को छिपा कर रखती. मां जब भी आतीं, कपड़े ले कर या धोने के लिए कपड़े लेकर जाती, तो मैं अपना लिखा सारा कुछ उनके साथ दे देती. फिर वही बाहर भेजतीं."
कई साल छिप कर लिखा. पहली किताब छपी तो शादी के बहाने मां के साथ चेन्नई गई. घर के लोगों को नहीं पता था कि सलमा नाम से कविताएं और उपन्यास लिखने वाली उनकी अपनी बहू है.
उम्मीद की किरण
भारत सरकार ने घोषणा की कि पंचायत चुनावों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिलेगा. बस क्या था... पति तो नेता थे ही गांव में..
बातचीत के दौरान कड़वी हंसी के साथ सलमा कहती हैं, "उन्हें एक कठपुतली चाहिए थी. सास ने काफी विरोध किया. घर की औरत का बाहर जाना नाक कटाने के बराबर है. उन्हें लगा था, ये जीत जाएगी फिर सारी ताकत मैं ले लूंगा. लेकिन मैंने ऐसा होने नहीं दिया. मै चुनाव लड़ी. मैं नहीं समझ पाती कि मुझसे यह सब करवाया तो मेरे लिखने का क्यों विरोध करते हैं. उन्हें जब जरूरत थी, उन्होंने मेरा इस्तेमाल किया. खुद का नाम बढ़ाने के लिए."
जीत के साथ नाम मिला. और लोगों को पता चला कि कविताएं लिखने वाली यही हैं. इंटरव्यू का अनुरोध किया गया. पहला इंटरव्यू छपा और उसके साथ फोटो भी. फिर गांव में कहर बरपा... औरत हो कर ये सब करती है. परिवार के लिए अपमानजनक.
सलमा बताती हैं, "चूंकि मैं चुनाव जीत चुकी थी इसलिए उन्होंने कहा कुछ नहीं, लेकिन झटका तो उन्हें लगा था. इसके बाद मैंने अपने पति को कुछ नहीं करने दिया. सारी मीटिंग, सम्मेलन मैं ही करती, फैसले भी. मेरे लेखन ने हालांकि मुझे मुख्य धारा का चुनाव नहीं जीतने दिया. लेकिन पार्टी ने मुझे समाज कल्याण विभाग का प्रमुख बना दिया." थोड़े हताश स्वर में सलमा कहती हैं कि सामान्य तौर पर राजनीतिक पार्टियों को कोई मतलब नहीं होता कि महिलाओं के साथ क्या हो रहा है, उनकी बेहतरी के लिए कोई काम हो रहा है या नहीं.
सलमा की शादी की फोटो पुरानी सिलवटों से भरी है. ऐसे ही सलमा की जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा है, जिसकी सिलवटें कभी न भरने वाली हो चुकी हैं. लेकिन हिम्मत और जिद है जो सलमा को लिखने को प्रेरित करती है. आज सलमा की कविता की किताबें और एक उपन्यास छप चुका है. उनका जर्मन सहित कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है. उनके जीवन पर डॉक्यूमेंट्री सलमा, पैनोरमा श्रेणी में बर्लिन फिल्म महोत्सव बर्लिनाले में दिखाई गई. हर शो फुल और फिल्म के बाद तालियों की गड़गड़ाहट.
धीमे, प्यार भरी आवाज में बात करने वाली सलमा बर्लिन आ कर बहुत खुश है. क्योंकि इसी बर्लिन के बारे में उन्होंने रूसी लेखकों की किताबों में पढ़ा था.
डॉयचे वेले हिन्दी से बातचीत के दौरान राजाती उर्फ सलमा अपनी एक छोटी कविता में कहती हैं,
"आज नहीं तो कल,
कल,
नहीं तो उसके अगले दिन,
हमारे लिए जिंदगी जरूर आएगी,
हमारे लिए जिंदगी जरूर आएगी."
रिपोर्टः आभा मोंढे, बर्लिन
संपादन: महेश झा