मेरा पहला कार्निवाल
८ फ़रवरी २०१३![Members of a dance group take part in the "Karneval der Kulturen" (carnival of cultures) street parade through Berlin's Kreuzberg district on May 27, 2012. The annual festival is organized to celebrate the German capital's ethnic and cultural diversity. AFP PHOTO / JOHANNES EISELE (Photo credit should read JOHANNES EISELE/AFP/GettyImages)](https://static.dw.com/image/16250070_800.webp)
जर्मनी में इस समय कार्निवाल मनाया जा रहा है मुझे बताया गया कि इसमें तीन दिन सबसे ज्यादा खास होते हैं- गुरुवार, सोमवार और फिर बुधवार. वैसे तो विदेश में भारत जैसी होली के हुड़दंग और दिवाली की चमक दमक की मैने कल्पनी भी नहीं की थी. जर्मनी के कार्निवाल की पहली झलक ने मेरी धारणा बदल दी. जर्मनी में कार्निवाल ने दिया मुझे अनूठा अनुभव
होली की याद
बॉन में लगभग 27 साल से रह रही कंचना को तो यह होली की याद दिलाता है. कंचना जर्मनी में संयुक्त राष्ट्र के लिए काम करने वाले एक जर्मन एनजीओ के लिए काम करती हैं. उन्होंने बताया कि 1986 में जब वह पहली बार जर्मनी आई थीं तो वह कार्निवाल का समय था. बॉन में रहने वाली कंचना ने बताया कि गुरुवार को शहर की महिलाएं टाउनहॉल जाती हैं जिसे यहां राटहाउस कहते हैं. वहां वे मेयर की टाई काट कर मुख्य अधिकार खुद अपने हाथों में होने का अनूठा प्रदर्शन करती हैं. बाजे गाजे और शराब के साथ जश्न आगे बढ़ता है. कंचना ने कहा, "यह मुझे काफी हद तक वैसा ही लगता है जैसे भारत में महिलाएं होली में मर्दों को जोर जबर्दस्ती से रंग कर अपने आप में अधिकार जताती हैं." कंचना ने बताया कि वह कार्निवाल में अक्सर गुजराती घाघरा पहन कर शामिल होती है. यह पोशाक यहां लोगों को अलग थलग भी दिखती है और कंचना को पसंद भी है. कंचना के पति जर्मन हैं और उनके कई जर्मन मित्र भी हैं. मेरे यह पूछने पर कि अब आगे आने वाले दिनों में कार्निवाल में वह क्या करने वाली हैं, उन्होंने बताया कि वे लोग रविवार शाम से एक जर्मन मित्र के घर इकट्ठा हो जाएंगे औऱ फिर खाने पीने और ढेर सारे हल्ले गुल्ले के साथ जश्न मनाएंगे. वैसे तो कोलोन को कार्निवाल का गढ़ माना जाता है लेकिन बॉन और कोलोन के बीच कोई खास फासला नहीं तो धूम धाम यहां भी बराबर ही होती है.
भारत के महाराजा के जलवे
दिल्ली के राकेश से मेरी एक मित्र के साथ मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि वह सिर्फ 5 महीने से ही जर्मनी में हैं और कोलोन में रह रहे हैं. राकेश एक जर्मन कम्पनी में बतौर कंटेंट एडिटर काम करते हैं. उनके लिए भी यह कार्निवाल का पहला मौका है. राकेश ने बताया कि जब वह कोलोन की सड़कों पर भारतीय महाराजा की पोशाक में उतरे तो लोगों ने बड़ी हैरानी से आकर उनकी पोशाक के बारे में पूछा और तारीफ भी की. सिर पर शाही शेरवानी, नारंगी चुनरी, हाथों में तलवार और चेहरे पर महाराजाओ वाला तेवर पहन कर उन्हें किसी राजा से कम नहीं महसूस हो रहा था. राकेश ने बताया कि जब रैली में लोग रंग बिरंगे अवतार में निकलते हैं तो सब एक बराबर होते हैं न कोई ऊंचा न नीचा, न देसी न विदेशी. काम से छुट्टी की एक अलग ही भावना होती है जिसमें सिर्फ जश्न का माहौल होता है. राकेश ने कहा कि अभी तो जश्न हफ्ता भर चलेगा लेकिन वह इसके फिर लौटने का भी इंतजार करेंगे.
हर दिन का महत्व
मेरे जर्मन साथियों ने मुझे बताया कि गुरुवार 'महिलाओं का दिन' कहलाता है जब वे टाउनहाल में जाकर मेयर की टाई काटती हैं. यह दिन 1824 की याद दिलाता है जब मछुआरिनों ने जर्मनी में बगावत का बिगुल बजाया था. सोमवार रोजनमोनटाग के नाम से मशहूर है. इस दिन सड़क पर लम्बा जुलूस निकलता है. बुधवार जश्न का आखरी दिन होता है.
कंचना कहती हैं कि कार्निवाल के साथ ही लोग ठंड को अलविदा कहने की तैयारी शुरू कर देते हैं. इसके बाद कैथोलिक ईसाइयों के लिए 40 दिन व्रत रखने का समय आता है जिसमें वे शराब को हाथ भी नहीं लगाते. उससे पहले इतना खाना पीना और नाचना गाना भी जरूरी है. माना जाता है कि इस कार्निवाल के पीछे एक बड़ी वजह अवसाद को दूर भगाने और लोगों में जिंदादिली से जीने की चाह पैदा करना भी है. मैं भी कार्निवाल के फिर लौटने का इंतजार करूंगी.
रिपोर्ट: समरा फातिमा
संपादनः आभा मोंढे