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मैर्केल की जीत बताने वाले सर्वे कितने भरोसे लायक?

जेफरसन चेस
१५ सितम्बर २०१७

डॉनल्ड ट्रंप के चुनाव और ब्रेक्जिट के मामले में ओपिनियन पोल की सर्वे गलत साबित हुई तो फिर जर्मन चुनाव में मैर्केल को आगे दिखा रहे सर्वे के नतीजों पर कितना भरोसा किया जा सकता है?

Deutschland | Angela Merkel
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Kappeler

जर्मन चुनाव के दो चेहरे हैं. ज्यादातर विश्लेषक मानते हैं कि शीर्ष पद का मुकाबला खत्म हो चुका है, कंजरवेटिव उम्मीदवार अंगेला मैर्केल अपने सोशल डेमोक्रैटिक प्रतिद्वंद्वी मार्टिन शुल्त्स से करीब 15 फीसदी आगे हैं, लेकिन चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों के सही होने पर संदेह के बादल भी कायम हैं. बहुत से विश्लेषकों के जेहन में अमेरिकी चुनाव और ब्रेक्जिट की यादें अभी ताजा हैं. जर्मनी में सर्वे करने वाले टेलिफोन पर इंटरव्यू से लेकर ऑनलाइन सर्वे तक का सहारा लेते हैं. इसके लिए इंफ्राटेस्ट डिमैप और फोर्सा नाम के संगठन हैं जिनके कर्मचारी लोगों को फोन कर आंकड़े जुटाते हैं. इन संगठनों के मीडिया संस्थानों से करार हैं और इन्हीं के दिये आंकड़ों का विश्लेषण मीडिया संस्थान भी करते हैं.

तस्वीर: Getty Images/M. Hitij

मध्य वामपंथी दल एसपीडी की उम्मीदें उन वोटरों पर टिकी हैं जिन्होंने अभी तक ये मन नहीं बनाया है कि उन्हें किसे वोट देना है. ऐसे लोगों की तादाद फिलहाल कुल वोटरों की करीब आधी है. हालांकि सर्वे करने वालों का कहना है कि ये उम्मीदें बेमानी हैं. इंफ्राटेस्ट डिमैप के प्रबंध निदेशक निको ए सीगेल ने डीडब्ल्यू से कहा, "यह मानव इतिहास का पहला चुनाव होगा जिसमें सारे अनिश्चित वोट एक ही पार्टी को चले जाएंगे. हमारे ताजा आंकड़े दिखा रहे हैं कि मैर्केल की सीडीयू-सीएसयू के सामने एसपीडी के लिए ज्यादा उम्मीदें नहीं हैं."

फोर्सा इस तरफ ध्यान दिला रही है कि मतदाता कंजरवेटिव पार्टी को लगातार ज्यादातर मुद्दों पर उनके प्रतिद्वंद्वियों से ज्यादा सक्षम मान रहे हैं. यहां तक कि ऑनलाइन सर्वे करने वाली कंपनी यूगोव का भी कहना है कि संकेत मैर्केल की जीत की ओर ज्यादा इशारा कर रहे हैं. यूगोव ने मैर्केल की क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक पार्टी और उसकी बवेरियाई सहयोगी पार्टी सीएसयू की एसपीडी की तुलना में बढ़त बाकियों से थोड़ी कम दिखाई थी. यूगोव में रिसर्च प्रमुख होल्गर गाइसलर ने कहा, "मुझे कोई संदेह नहीं है कि सीडीयू सीएसयू की बढ़त है. यह कई सारी संस्थाओं के सर्वे में आ रहा है जो अलग अलग काम करती हैं. हमें बेहद आश्चर्य होगा अगर शुल्त्स इस कमी को पूरा कर पायें."

तस्वीर: picture-alliance/AP/G. Breloer

संदेह के बादल

तो आखिर जर्मन लोग इन चुनावी सर्वेक्षणों को लेकर इतने भरोसेमंद क्यों हैं जबकि अमेरिका और ब्रिटेन में यह नाकाम हो चुका है. दरअसल शायद यह भरोसा उस चुनाव की प्रकृति पर है जिसके बारे में बात की जा रही है. सीगेल का कहना है कि थोड़ी समस्या तब होती है जब "चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के नतीजों" और "भविष्यवाणी" का फर्क लोगों को समझ में नहीं आता. ब्रेक्जिट के मामले में हां और ना बोलने वालों के बीच फर्क इतना कम था कि वो गलत होने के लिए जो मार्जिन रखी जाती है उसकी सीमा के भी अंदर था, इसका मतलब ये है कि सर्वे करने वालों के पास कोई उपाय नहीं था कि वो यह बता सकें कि कौन जीतेगा.

अमेरिकी चुनाव में सर्वे के नतीजे इस बारे में थे कि पॉपुलर वोट किसे ज्यादा मिलेगा और उनका अंदाजा ज्यादा गलत नहीं था क्योंकि पॉपुलर वोट तो हिलेरी क्लिंटन को ही ज्यादा मिले. हालांकि सर्वेक्षणों ने इलेक्टोरल कॉलेज के बारे में गलत तस्वीर पेश की और अमेरिका का राष्ट्रपति दरअसल इलेक्टोरल कॉलेज ही तय करता है.

फोर्सा के पॉलिटिकल ओपिनियन रिसर्च डायरेक्टर पीटर मातुशेक ने डीडब्ल्यू से कहा, "उन्हें कहना चाहिए था कि मुकाबला बेहद करीबी है. जर्मनी में हम यह कहने से नहीं हिचकिचाते कि सर्वे के आधार पर पार्लियामेंट में सीटों का बंटवारा इस तरह का दिखेगा. अमेरिका में सर्वे गलत नहीं थे लेकिन वो इलेक्टोरल डेलिगेट्स में कैसे बदले जायेंगे यह गलत हो गया." यह एक अहम बात है. राजनीतिक सर्वे हारने या जीतने वाले के बारे में सही सही तभी बता पायेंगे अगर वो सही प्रक्रिया बता सकें जिसके तहत नेताओं का चुनाव होना है और साथ ही देश की राजनीतिक जमीन कैसी है. अब इससे एक और सवाल पैदा होता है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Kappeler

एएफडी कितनी ताकतवर

इस बारे में काफी अटकलें लग रही हैं कि क्या सर्वेक्षण के नतीजे धुर दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर डॉयचलैंड के समर्थन को कम कर के दिखा रहे हैं. फिलहाल इस पार्टी को 11 फीसदी वोट मिलने की बात कही जा रही है. चुनावी सर्वे पिछले साल एएफडी को क्षेत्रीय चुनावों में मिली सफलता को भांपने में भी नाकाम रहे थे. कई जगहों पर तो पार्टी को 20 फीसदी से ज्यादा वोट भी मिलें हालांकि इस साल के चुनाव में उसके बारे में दिखाई तस्वीर सच के ज्यादा करीब थी. सीगेल ने कहा, "हमारा अनुमान है कि एएफडी के बारे में हमारे ताजा आंकड़े सही हैं. हमारे अंतिम चुनावी सर्वे और एएफडी के चुनावी नतीजों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है." उधर गाइसलर का कहना है, "ऑनलाइन सर्वे में इस तरह की समस्या नहीं होती क्योंकि चरम स्थिति के बारे में बहुत कम बात होती है." यूगोव ने भी एएफडी के लिए 11 फीसदी सर्वे की बात कही है.

मातुशेक इन बातों से सहमत हैं लेकिन इसके साथ ही वो यह भी कहते हैं कि एएफडी में कुछ "अनिश्चित करने की क्षमता" है. ऐसा इसलिए है क्योंकि पार्टी में अस्थिरता, मीडिया का ध्यान खींचने की प्रवृत्ति ज्यादा है और इसका ज्यादा पुराना इतिहास भी नहीं है. यह पार्टी 2013 में ही बनी.

गाइसलर इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि जर्मनी में राजनीतिक दलों के लिए स्पष्ट बहुमत हासिल करना दुर्लभ रहता है और ऐसे में उन्हें गठबंधन की सरकार बनानी होती है. छह पार्टियों वाली राजनीतिक जमीन कम पार्टियों वाली राजनीतिक जमीन की तुलना में ज्यादा जटिल है, छोटी पार्टियों को बड़ी पार्टियों के फिसलने का फायदा मिल सकता है.

छोटी पार्टियों को फायदा

24 सितंबर के चुनाव में सात पार्टियां संसद में सीटों के लिए आपस में लड़ रही हैं और बहुमत हासिल करने वाला गठबंधन अपना चांसलर भी बनवा सकेगा. फिलहाल जर्मनी में सीडीयू-सीएसयू और एसपीडी का गठबंधन है और अगर इतिहास में मिले संकेतों की ओर देखा जाय तो गठबंधन को झटका लग सकता है. सीगेल का कहना है कि छोटी पार्टियों के लिए ऐसे में फायदा होगा और गाइसलर को लगता है कि पिछले कुछ चुनावों में ऐसी स्थिति बनती रही है. गाइसलर कहते हैं, "मैं अंदाजा लगा सकता हूं कि सीडीयू सीएसयू और एसपीडी चुनाव के पहले महत्वपूर्ण समर्थन खो सकती हैं. चुनाव का रुख छोटी पार्टियों की तरफ जाता दिख रहा है और यह केवल हमारे सर्वेक्षणों में ही नहीं है."

इस वक्त सभी पार्टियों के लिए खासतौर से बड़ी पार्टियों की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वो अपने सामान्य वोटरों को कैसे ज्यादा से ज्यादा संगठित कर पाते हैं. हालांकि पार्टियों का कौन सा गुट संसद में बहुमत हासिल कर पायेगा उसकी भविष्यवाणी करना इससे और मुश्किल हो जाता है. 

जर्मनी में करीब एक तिहाई लोग ऐसे हैं जो डाक के जरिये अपना वोट डालेंगे और ये आमतौर पर अपनी पार्टी के प्रति वफादार रहते हैं. हालांकि सारे लोग मैर्केल को आखिरकार विजेता मान रहे हैं और इससे चुनाव थोड़ा उबाऊ भी हो गये हैं लेकिन यह रहस्य बना हुआ है कि कौन सा गठबंधन सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़ा जुटा पाएगा.

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