वाराणसी में हर रोज जलती चिताएं वहां के पानी और हवा में जहर घोल रही हैं. लोग आंखों देखी पर यकीन करने के बजाय धार्मिक रीतियों का अनुसरण करने के लिए गंगा के पानी में राख मिला रहे हैं.
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लकड़ियों से भरे नाव लगातार वाराणसी के घाट पर पहुंचते रहते हैं. भारत की मोक्ष नगरी कहे जाने वाले बनारस में गंगा के घाट पर हर दिन कम से कम 200 लोगों का अंतिम संस्कार होता है. हर चिता में 200 से 400 किलो लकड़ी की जरूरत होती है. इसका मतलब है कि उत्तर भारत के इस सबसे पवित्र कहे जाने वाले शहर में हर दिन 80 टन लकड़ी केवल चिता में जल जाती है.
इतनी बड़ी मात्रा में जल रही लकड़ी को घटाने के साथ ही जल और वायु प्रदूषण को रोकने के लिए अधिकारियों ने गाय के गोबर से बने उपलों का विकल्प सुझाया है. हालांकि अब तक इसमें कोई खास सफलता नहीं मिली है. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के प्रदूषण विशेषज्ञ विवेक चट्टोपाध्याय का कहना है, "लोगों को लकड़ी जलने से होने वाले उत्सर्जन के बारे में संवेदनशील बनाना होगा. तभी इस समस्या से निबटा जा सकेगा."
कितने अलग-अलग तरीकों से होता है अंतिम संस्कार
अलग-अलग धर्मों में अंतिम संस्कार के तरीके भी अलग-अलग है. कहीं शवों को गुफा में रखा जाता है, कहीं जलाया जाता है और कहीं गिद्धों को खाने के लिए छोड़ दिया जाता है. यह काफी हद तक भौतिक स्थिति पर भी निर्भर करता है.
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दाह संस्कार
हिंदू और सिख धर्म में मृत शरीर को लकड़ी की शैय्या पर रखकर जलाने की परंपरा है. छोटे बच्चों को छोड़कर सभी का दाह-संस्कार किया जाता है. बौद्ध धर्म में जलाने और दफनाने दोनों की ही परंपरा है, जो स्थानीय रिवाज से की जाती है. लकड़ी की कमी के चलते अब विद्युत शवदाहगृहों की संख्या बढ़ रही है.
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जल में प्रवाहित करना
हिन्दुओं में जल दाग देने की प्रथा भी है जिसके चलते नदियों में कई बार शव बहते हुए देखे जा सकते हैं. कुछ लोग शव को एक बड़े से पत्थर से बांधकर फिर नाव में शव को रखकर तेज बहाव व गहरे जल में ले जाकर उसे डुबो देते हैं. कई लोग इस प्रथा को अजीबोगरीब बताकर इसका विरोध करते हैं.
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दफनाने की परंपरा
शवों को दफनाने की परंपरा सबसे ज्यादा प्रचलित है. वैदिक काल में हिंदू धर्म के संतों को समाधि दी जाती थी. यहूदियों में दफनाए जाने की परंपरा की शुरुआत हुई. ईसाई धर्म की शुरुआत में मृतकों को चर्च में दफनाया जाता था. बाद में कब्रिस्तान बने. कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट धर्माबलंबियों के अलग कब्रिस्तान हैं. शिया और सुन्नियों के अलग कब्रिस्तान होने के बावजूद उसमें भी कई विभाजन हैं.
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गिद्धों का भोजन
पारसियों में मृतकों को न तो दफनाया जाता है और न ही जलाया जाता है. वे शव को पहले से नियुक्त खुले स्थान पर रख आते थे और आशा करते थे कि उनके परिजन गिद्ध का भोजन बन जाएं. लेकिन आधुनिक युग में यह संभव नहीं और गिद्धों की संख्या भी तेजी से घट गई है. अब वे शव को उनके पहले से नियुक्त कब्रिस्तान में रख देते हैं, जहां पर सौर ऊर्जा की विशालकाय प्लेटें लगी हैं जिसके तेज से शव धीरे-धीरे जलकर भस्म हो जाता है.
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ममीकरण
मिस्र में गिजा के पिरामिडों में ममी बनाकर रखे गए शवों के कारण फराओ साम्राज्य को आज भी एक रहस्य माना जाता है. ये शव लगभग 3,500 साल पुराने हैं. ममी बनाने के पीछे यह धारणा थी कि अगर शवों पर मसाला लगाकर इन्हें ताबूत में बंद कर दफनाया जाए तो एक न एक दिन ये फिर जिंदा हो जाएंगे. ऐसा सिर्फ मिस्र में ही नहीं बल्कि मेक्सिको, श्रीलंका, चीन, तिब्बत और थाइलैंड में भी किया जाता रहा है.
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गुफा में रखना
इस्राएल और मेसोपोटेमिया (इराक) की सभ्यता में लोग अपने मृतकों को शहर के बाहर बनाई गई एक गुफा में रख छोड़ते थे जिसे बाहर से पत्थर से बंद कर दिया जाता था. ईसा को जब सूली पर से उतारा गया तो उन्हें मृत समझकर उनका शव गुफा में रख दिया गया था. प्रारंभिक यहूदियों और उस दौर के अन्य कबीलों में मृतकों को गुफा में रखे जाने का प्रचलन शुरू हुआ.
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सदियों से हिंदू वाराणसी में अंतिम संस्कार करते हैं ताकि मरने वाले को "मोक्ष" मिल सके. मोक्ष का मतलब है जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहर निकलना. सफेद कफन और फूलों की पखुड़ियों से ढके शव राख में बदल जाते हैं और इन्हें अस्थियों के साथ नदी में बहा दिया जाता है. घाटों पर श्मशान के व्यवस्थापक यानी डोम मरने वालों के परिजन को आग देते हैं जिससे चिता में आग जलाई जाती है. इन परंपराओं में मामूली सा परिवर्तन भी बवाल मचा देता है.
गंगा नदी को साफ रखने की योजना के तहत 1989 में विद्युत शवदाहगृह बनाए गए. यह कम प्रदूषण फैलाता है और इसमें खर्च भी कम होता है, लेकिन फिर भी इसे अपनाने वाले लोगों की भारी कमी है. वाराणसी के विद्युत शवदाह गृह में हर दिन महज पांच से सात शव जलाए जाते हैं. वाराणसी के म्युनिसिपल कमिश्नर नितिन बंसल का कहना है, "वाराणसी एक पवित्र नगरी है, लोग यहां धार्मिक रीतियों से जुड़े रहना चाहते हैं और विद्युत शवदाह जैसे तरीकों को नहीं अपनाना चाहते."