कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पहल पर हुई विराट रैली ने पीएम नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान पहली बार देशव्यापी विपक्षी एकता की संभावना का स्पष्ट संकेत दिया है.
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इस रैली में कांग्रेस समेत 22 राजनीतिक पार्टियों के 25 वरिष्ठ नेता शामिल थे लेकिन वामपंथी पार्टियों की इसमें शिरकत नहीं थी. यूं भी सीपीएम अभी तक अपनी राजनीतिक लाइन तय नहीं कर पाई है और अन्य वामपंथी पार्टियां भी अंधेरे में ही रास्ता टटोल रही हैं.
कांग्रेस, नेशनल कॉन्फ्रेंस, तेलुगु देशम पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी और डीएमके जैसी विभिन्न क्षेत्रों, जनाधारों और विचारधाराओं वाली इन सभी पार्टियों का एक साझा उद्देश्य आने वाले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को हराना है क्योंकि पिछले साढ़े चार सालों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की छत्रछाया में जिस तरह से संवैधानिक संस्थाओं की दुर्गति हुई है, देश में हर प्रकार की असहिष्णुता बढ़ी है, अर्थव्यवस्था तहस-नहस हुई है और रफाल लड़ाकू विमानों की खरीद में घोटाले के आरोप भी सामने आए हैं, उसके कारण सरकार की लोकप्रियता में काफी गिरावट आई है. यदि विपक्ष इसका चुनावी लाभ उठाना चाहता है तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है.
भारत की सबसे अमीर पार्टी
भारत की कौन सी पार्टी कितनी अमीर है
भारत की सात राष्ट्रीय पार्टियों को 2016-2017 में कुल 1,559 करोड़ रुपये की आमदनी हुई है. 1,034.27 करोड़ रुपये की आमदनी के साथ बीजेपी इनमें सबसे ऊपर है. जानते हैं कि इस बारे में एडीआर की रिपोर्ट और क्या कहती है.
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भारतीय जनता पार्टी
दिल्ली स्थित एक थिंकटैंक एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी को एक साल के भीतर एक हजार करोड़ रूपये से ज्यादा की आमदनी हुई जबकि इस दौरान उसका खर्च 710 करोड़ रुपये बताया गया है. 2015-16 और 2016-17 के बीच बीजेपी की आदमनी में 81.1 फीसदी का उछाल आया है.
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कांग्रेस
राजनीतिक प्रभाव के साथ साथ आमदनी के मामले भी कांग्रेस बीजेपी से बहुत पीछे है. पार्टी को 2016-17 में 225 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसने खर्च किए 321 करोड़ रुपये. यानी खर्चा आमदनी से 96 करोड़ रुपये ज्यादा. एक साल पहले के मुकाबले पार्टी की आमदनी 14 फीसदी घटी है.
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बहुजन समाज पार्टी
मायावती की बहुजन समाज पार्टी को एक साल के भीतर 173.58 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसका खर्चा 51.83 करोड़ रुपये हुआ. 2016-17 के दौरान बीएसपी की आमदनी में 173.58 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. पार्टी को हाल के सालों में काफी सियासी नुकसान उठाना पड़ा है, लेकिन उसकी आमदनी बढ़ रही है.
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नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी
शरद पवार की एनसीपी पार्टी की आमदनी 2016-17 के दौरान 88.63 प्रतिशत बढ़ी. पार्टी को 2015-16 में जहां 9.13 करोड़ की आमदनी हुई, वहीं 2016-17 में यह बढ़ कर 17.23 करोड़ हो गई. एनसीपी मुख्यतः महाराष्ट्र की पार्टी है, लेकिन कई अन्य राज्यों में मौजूदगी के साथ वह राष्ट्रीय पार्टी है.
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तृणमूल कांग्रेस
आंकड़े बताते हैं कि 2015-16 और 2016-17 के बीच ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की आमदनी में 81.52 प्रतिशत की गिरावट हुई है. पार्टी की आमदनी 6.39 करोड़ और खर्च 24.26 करोड़ रहा. राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा रखने वाली तृणमूल 2011 से पश्चिम बंगाल में सत्ता में है और लोकसभा में उसके 34 सदस्य हैं.
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सीपीएम
सीताराम युचुरी के नेतृत्व वाली सीपीएम की आमदनी में 2015-16 और 2016-17 के बीच 6.72 प्रतिशत की कमी आई. पार्टी को 2016-17 के दौरान 100 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसने 94 करोड़ रुपये खर्च किए. सीपीएम का राजनीतिक आधार हाल के सालों में काफी सिमटा है.
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सीपीआई
राष्ट्रीय पार्टियों में सबसे कम आमदनी सीपीआई की रही. पार्टी को 2016-17 में 2.079 करोड़ की आमदनी हुई जबकि उसका खर्च 1.4 करोड़ रुपये रहा. लोकसभा और राज्यसभा में पार्टी का एक एक सांसद है जबकि केरल में उसके 19 विधायक और पश्चिम बंगाल में एक विधायक है.
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समाजवादी पार्टी
2016-17 में 82.76 करोड़ की आमदनी के साथ अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी सबसे अमीर क्षेत्रीय पार्टी है. इस अवधि के दौरान पार्टी के खर्च की बात करें तो वह 147.1 करोड़ के आसपास बैठता है. यानी पार्टी ने अपनी आमदनी से ज्यादा खर्च किया है.
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तेलुगु देशम पार्टी
आंध्र प्रदेश की सत्ताधारी तेलुगुदेशम पार्टी को 2016-17 के दौरान 72.92 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि 24.34 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े. पार्टी की कमान चंद्रबाबू के हाथ में है जो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री भी हैं.
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एआईएडीएमके और डीएमके
तमिलनाडु में सत्ताधारी एआईएडीएमके को 2016-17 में 48.88 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसका खर्च 86.77 करोड़ रुपये रहा. वहीं एआईएडीएमके की प्रतिद्वंद्वी डीएमके ने 2016-17 के बीच सिर्फ 3.78 करोड़ रुपये की आमदनी दिखाई है जबकि खर्च 85.66 करोड़ रुपया बताया है.
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एआईएमआईएम
बचत के हिसाब से देखें तो असदउद्दीन औवेसी की पार्टी एआईएमआईएम सबसे आगे नजर आती है. पार्टी को 2016-17 में 7.42 करोड़ रुपये की आमदनी हुई जबकि उसके खर्च किए सिर्फ 50 लाख. यानी पार्टी ने 93 प्रतिशत आमदनी को हाथ ही नहीं लगाया. (स्रोत: एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म)
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इसके पहले कुछ समय तक एक फेडरल फ्रंट यानी संघीय मोर्चे की बात भी चली थी जिसे तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने प्रस्तावित किया था और ममता बैनर्जी उसके प्रति आकर्षित भी हुई थीं लेकिन उन्हें और अन्य पार्टियों के नेताओं को भी जल्दी ही समझ में आ गया कि भाजपा और कांग्रेस को एक ही तराजू में तोलना ठीक नहीं होगा और कोई तीसरा मोर्चा मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी को शिकस्त नहीं दे सकता. इसलिए विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना ही होगा. यही कारण है कि हमेशा कांग्रेस का विरोध करने वाले चंद्रबाबू नायडू भी रैली में मौजूद थे.
बीजेपी ने इसे "राजनीतिक अवसरवाद” कहा है लेकिन वह गठबंधन बनाने का अपना इतिहास भूल गई. उसने इन पार्टियों के आपसी अंतर्विरोधों और तनावों की ओर भी इशारा किया है जबकि रैली में शामिल पार्टियों और उनके नेताओं को भी इनका पूरा-पूरा अहसास है और वे इसके बावजूद एकजुट हुए हैं.
इस रैली में यह संकल्प भी लिया गया कि देश के अन्य भागों में भी इसी प्रकार की रैलियां की जाएंगी ताकि विपक्षी एकता न केवल मजबूत हो बल्कि देशवासियों को भी वह मजबूत होती हुई दिखे और उन्हें उसकी ताकत में यकीन हो जाए.
यह सही है कि विपक्षी एकता का निर्माण केवल सदिच्छा के आधार पर नहीं किया जा सकता. सभी नेताओं की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं. पार्टियों के जनाधार अलग-अलग हैं और चुनाव प्रचार के दौरान उनके बीच कैसा और कितना तालमेल हो पाएगा, उसी से पता चलेगा कि एकता कितनी कारगर होगी.
उधर सबसे अधिक 80 सीटों वाले उत्तर प्रदेश में अभी तक विपक्षी एकता अधूरी है क्योंकि वहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच चुनावी समझौता और सीटों का बँटवारा हो चुका है. कांग्रेस इस गठबंधन के बाहर है और अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल के साथ अभी बातचीत चल रही है लेकिन किसी नतीजे पर नहीं पहुंची है.
यह महागठबंधन किसी को भी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश करने से बच रहा है, लेकिन बीएसपी प्रमुख मायावती के सिपहसालार अभी से उनका नाम उछालने लगे हैं और यह कोई अच्छा संकेत नहीं है. सभी को पता है कि गठबंधन की अपनी समस्याएं होती हैं लेकिन ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब इन समस्याओं के साथ सफलतापूर्वक निबटा गया. स्वयं मोदी सरकार औपचारिक रूप से राष्ट्रीय जनतंत्रिक गठबंधन की सरकार है.
'मुसलमान सिर्फ डराए गए और इस्तेमाल किया गए'
बीजेपी को भी अपने सहयोगी दलों की ओर से लगातार परेशानी रही है. शिवसेना तो उस पर लगातार प्रहार करती ही रहती है, अब नीतीश कुमार के जनता दल (यू) ने असम में नागरिकता कानून को लेकर असहमति जता दी है. लोकसभा में उसके सदस्यों ने मतदान में भाग नहीं लिया और अब राज्यसभा में वे इसका विरोध करेंगे. इसलिए बीजेपी विपक्षी गठबंधन की इस मुद्दे पर कोई प्रभावी आलोचना नहीं कर पाएगी कि इसमें शामिल दलों के बीच अंतर्विरोध हैं.
कांग्रेस भी अब गठबंधन की राजनीति का अनुभव हासिल करती जा रही है और कर्नाटक में उसने कम विधायकों वाले एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाकर दिखा दिया है कि बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए वह कुर्बानी भी दे सकती है. उत्तर प्रदेश में भी एसपी और बीएसपी के साथ बातचीत फिर से शुरू हो सकती है क्योंकि अभी चुनाव होने में दो-तीन माह का समय है. जो भी हो, पहली बार मोदी सरकार को प्रभावी चुनावी चुनौती मिलती नजर आ रही है.
कितने राज्यों में है बीजेपी और एनडीए की सरकार
केंद्र में 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद देश में भारतीय जनता पार्टी का दायरा लगातार बढ़ा है. डालते हैं एक नजर अभी कहां कहां बीजेपी और उसके सहयोगी सत्ता में हैं.
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उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश में फरवरी-मार्च 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर ऐतिहासिक प्रदर्शन किया और 403 सदस्यों वाली विधानसभा में 325 सीटें जीतीं. इसके बाद फायरब्रांड हिंदू नेता योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री की गद्दी मिली.
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त्रिपुरा
2018 में त्रिपुरा में लेफ्ट का 25 साल पुराना किला ढहाते हुए बीजेपी गठबंधन को 43 सीटें मिली. वहीं कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कसिस्ट) ने 16 सीटें जीतीं. 20 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद मणिक सरकार की सत्ता से विदाई हुई और बिप्लव कुमार देब ने राज्य की कमान संभाली.
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मध्य प्रदेश
शिवराज सिंह चौहान को प्रशासन का लंबा अनुभव है. उन्हीं के हाथ में अभी मध्य प्रदेश की कमान है. इससे पहले वह 2005 से 2018 तक राज्य के मख्यमंत्री रहे. लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को हार का सामना करना पड़ा. कांग्रेस सत्ता में आई. लेकिन दो साल के भीतर राजनीतिक दावपेंचों के दम पर शिवराज सिंह चौहान ने सत्ता में वापसी की.
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उत्तराखंड
उत्तर प्रदेश के पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में भी बीजेपी का झंडा लहर रहा है. 2017 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने शानदार प्रदर्शन करते हुए राज्य की सत्ता में पांच साल बाद वापसी की. त्रिवेंद्र रावत को बतौर मुख्यमंत्री राज्य की कमान मिली. लेकिन आपसी खींचतान के बीच उन्हें 09 मार्च 2021 को इस्तीफा देना पड़ा.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/R. K. Singh
बिहार
बिहार में नीतीश कुमार एनडीए सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं. हालिया चुनाव में उन्होंने बीजेपी के साथ मिल कर चुनाव लड़ा. इससे पिछले चुनाव में वह आरजेडी के साथ थे. 2020 के चुनाव में आरजेडी 75 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी. लेकिन 74 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही बीजेपी ने नीतीश कुमार की जेडीयू के साथ मिलकर सरकार बनाई, जिसे 43 सीटें मिलीं.
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गोवा
गोवा में प्रमोद सावंत बीजेपी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं. उन्होंने मनोहर पर्रिकर (फोटो में) के निधन के बाद 2019 में यह पद संभाला. 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद पर्रिकर ने केंद्र में रक्षा मंत्री का पद छोड़ मुख्यमंत्री पद संभाला था.
पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर में 2017 में पहली बार बीजेपी की सरकार बनी है जिसका नेतृत्व पूर्व फुटबॉल खिलाड़ी एन बीरेन सिंह कर रहे हैं. वह राज्य के 12वें मुख्यमंत्री हैं. इस राज्य में भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सरकार नहीं बना पाई.
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हिमाचल प्रदेश
नवंबर 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज कर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में वापसी की. हालांकि पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी घोषित किए गए प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए. इसके बाद जयराम ठाकुर राज्य सरकार का नेतृत्व संभाला.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
कर्नाटक
2018 में हुए विधानसभा चुनावों में कर्नाटक में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी. 2018 में वो बहुमत साबित नहीं कर पाए. 2019 में कांग्रेस-जेडीएस के 15 विधायकों के इस्तीफे होने के कारण बीेजेपी बहुमत के आंकड़े तक पहुंच गई. येदियुरप्पा कर्नाटक के मुख्यमंत्री हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Kiran
हरियाणा
बीजेपी के मनोहर लाल खट्टर हरियाणा में मुख्यमंत्री हैं. उन्होंने 2014 के चुनावों में पार्टी को मिले स्पष्ट बहुमत के बाद सरकार बनाई थी. 2019 में बीजेपी को हरियाणा में बहुमत नहीं मिला लेकिन जेजेपी के साथ गठबंधन कर उन्होंने सरकार बनाई. संघ से जुड़े रहे खट्टर प्रधानमंत्री मोदी के करीबी समझे जाते हैं.
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गुजरात
गुजरात में 1998 से लगातार भारतीय जनता पार्टी की सरकार है. प्रधानमंत्री पद संभालने से पहले नरेंद्र मोदी 12 साल तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे. फिलहाल राज्य सरकार की कमान बीजेपी के विजय रुपाणी के हाथों में है.
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असम
असम में बीजेपी के सर्बानंद सोनोवाल मुख्यमंत्री हैं. 2016 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 86 सीटें जीतकर राज्य में एक दशक से चले आ रहे कांग्रेस के शासन का अंत किया. अब राज्य में फिर विधानसभा चुनाव की तैयारी हो रही है.
तस्वीर: Imago/Hindustan Times
अरुणाचल प्रदेश
अरुणाचल प्रदेश में पेमा खांडू मुख्यमंत्री हैं जो दिसंबर 2016 में भाजपा में शामिल हुए. सियासी उठापटक के बीच पहले पेमा खांडू कांग्रेस छोड़ पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल प्रदेश में शामिल हुए और फिर बीजेपी में चले गए.
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नागालैंड
नागालैंड में फरवरी 2018 में हुए विधानसभा चुनावों में एनडीए की कामयाबी के बाद नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के नेता नेफियू रियो ने मुख्यमंत्री पद संभाला. इससे पहले भी वह 2008 से 2014 तक और 2003 से 2008 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं.
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मेघालय
2018 में हुए राज्य विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद सरकार बनाने से चूक गई. एनपीपी नेता कॉनराड संगमा ने बीजेपी और अन्य दलों के साथ मिल कर सरकार का गठन किया. कॉनराड संगमा पूर्व लोकसभा अध्यक्ष पीए संगमा के बेटे हैं.
तस्वीर: IANS
सिक्किम
सिक्किम की विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी का एक भी विधायक नहीं है. लेकिन राज्य में सत्ताधारी सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा है. इस तरह सिक्किम भी उन राज्यों की सूची में आ जाता है जहां बीजेपी और उसके सहयोगियों की सरकारें हैं.
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मिजोरम
मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट की सरकार है. वहां जोरामथंगा मुख्यमंत्री हैं. बीजेपी की वहां एक सीट है लेकिन वो जोरामथंगा की सरकार का समर्थन करती है.
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2019 की टक्कर
इस तरह भारत के कुल 28 राज्यों में से 16 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी या उसके सहयोगियों की सरकारें हैं. हाल के सालों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्य उसके हाथ से फिसले हैं. फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के आगे कोई नहीं टिकता.