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मौत की सजा नहीं, प्रक्रिया सवालों के घेरे में

निर्मल यादव२९ जुलाई २०१५

दुनिया भर में सजा ए मौत को खत्‍म करने की बहस निर्णायक मोड़ पर है लेकिन भारत में यह बहस नए मुकाम पर आकर अटक गई है. मेमन मामले ने कानून की परिभाषा और प्रक्रिया को स्पष्ट करने की जरूरत सामने ला दी है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/R. Gupta

दुनिया भर में सजा ए मौत को खत्‍म करने की बहस निर्णायक मोड़ पर है लेकिन भारत में यह बहस नए मुकाम पर आकर अटक गई है. मेमन मामले ने कानून की परिभाषा और प्रक्रिया को स्पष्ट करने की जरूरत सामने ला दी है.

मुंबई आतंकी हमले के दोषी याकूब मेमन को मौत की सजा देने के नाम पर छिड़ी बहस अदालत की दहलीज पर कानूनी प्रक्रिया के पेंच में फंसती दिख रही है. दरअसल भारत में दंड प्रक्रिया संहिता की पेंचीदगियों का फायदा उठाकर मेमन की सजा को टालने की कोशिश के चलते मृत्‍युदंड को खत्‍म करने की बहस मकसद से भटकने लगी है. मुंबई ब्‍लास्‍ट में 253 लोगों की मौत के लिए कसूरवार मेमन की सजा ए मौत पर सुप्रीम कोर्ट ने 21 जुलाई को ही पुनरीक्षण याचिका का निपटारा करते हुए मोहर लगा दी थी. इसके बाद मेमन के वकील उपचारात्‍मक याचिका के माध्‍यम से एक बार फिर अदालत की शरण में गए. जस्टिस कुरियन जोसेफ और जस्टिस एआर दवे ने मेमन की सजा पर रोक लगाने वाली अर्जी पर आमराय न बन पाने के कारण गेंद अब मुख्‍य न्‍यायाधीश जस्टिस एचएल दत्‍तू के पाले में डाल दी है.

असहमति की वजह

जस्टिस जोसेफ ने याकूब की सजा पर रोक लगाने संबंधी पुनरीक्षण याचिका की सुनवाई में प्रक्रियागत नियमों का पालन नहीं किए जाने का हवाला दिया है. उनका कहना है कि याचिका पर जल्‍दबाजी में फैसला किया गया है. ऐसे में पुनरीक्षण याचिका और क्‍यूरेटिव याचिका के निपटारे की प्रक्रिया के पालन के लिए मुख्‍य न्‍यायाधीश द्वारा दिशानिर्देश जारी किए जाने की जरूरत है. जबकि जस्टिस दवे ने इससे अलग राय प्रकट करते हुए मेमन की सजा पर तत्‍काल अमल करने की बात कही है.

बेशक इस मामले में व्‍यक्ति और मुद्दा दोनों ही बेहद संवेदनशील है. एक तरफ जस्टिस जोसेफ ने स्‍पष्‍ट तौर पर कहा है कि कानून वस्‍तुपरक है, व्‍यक्तिपरक नहीं. मृत्‍युदंड के मामले में भी संविधान की आत्‍मा माने गए अनुच्‍छेद 21 में प्रदत्‍त जीवन के अधिकार के संरक्षण का विषय निहित है. इस बाबत दंड प्रक्रिया संहिता भी सजा ए मौत को टालने के लिए क्रूरता के लिहाज से वाद विशेष के गंभीरतम होने के मानकों की पूर्ति की दरकार करती है. कानून की इस संवेदना को बचाने के लिए मुद्दई की पहचान महत्‍वहीन हो जाती है. वहीं दूसरी ओर जस्टिस दवे और अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने मेमन और मुंबई ब्‍लास्‍ट को ही ''रेयरेस्‍ट'' बताते हुए फांसी को ही एकमात्र विकल्‍प माना है.

कानून की स्‍पष्‍टता

निसंदेह इस बार मृत्‍युदंड की विषयवस्‍तु अगर मेमन नहीं होता तो यह बहस प्रक्रिया की गुत्‍थी में न उलझती. लेकिन दो दशक से आतंक के साए में जी रही मुंबई और देश भर लिए यह मामला कानून के तराजू पर भावनात्‍मकता के बोझ तले दब गया है. अगर बात सिर्फ मानवाधिकार के चश्‍मे से मृत्‍युदंड को देखने की है तब फिर मेमन के बजाय कानून के मूल मकसद को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. मेमन के मामले में कानूनी प्रक्रियाएं एक बार दिखाती हैं कि वह साफ नहीं है और अपने उतार चढ़ाव के कारण सबके लिए यातना समान है.

मामला कोई भी हो, सुप्रीम कोर्ट का फैसला कानून की नजीर होता है. ऐसे में मेमन को फांसी मिले या उम्रकैद, उसकी नजीर का फायदा या नुकसान भविष्‍य में न सिर्फ दूसरे अपराधी उठाएंगे बल्कि सजा के बजाय सुधार के कानूनी मकसद की मुहिम भी इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगी. लिहाजा कानून की प्रक्रिया हो या परिभाषा, हर पहलू को स्‍पष्‍ट करना अब समय की मांग है. सुप्रीम कोर्ट के सामने कानूनी प्रक्रिया को आसान बनाने के अलावा भारत को उन देशों की कतार में लाने की चुनौती है जो मृत्युदंड को खत्म कर चुके हैं.

ब्लॉग: निर्मल यादव

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