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मौत के भरोसे चलती जिंदगी

१५ सितम्बर २०१२

रवि ने घर से भाग कर जब मुंबई की ट्रेन पकड़ी थी, तो वह कोई सात साल का रहा होगा. 25 साल बीत चुके हैं. वह मुंबई तो पहुंच चुका है लेकिन ट्रेन ने पीछा नहीं छोड़ा है. जीवन की पटरी रेल की पटरियों से जुड़ सी गई है.

तस्वीर: dapd

काम थोड़ा अटपटा है. पटरियों पर रोजाना दम तोड़ने वाले लोगों की लाशें उठानी होती हैं लेकिन यह काम पैसे देता है और जीवन चलाने के लिए पैसे बहुत जरूरी हैं. रवि को पैसों की दरकार है. साल भर में 6000 से 8000 लोग मुंबई की पटरियों पर दम तोड़ते हैं. इनमें खुदकुशी करने वालों के अलावा वे लोग भी हैं, जो मेट्रो में लटक कर यात्रा करना शान समझते हैं और इसी दौरान किसी पोल से टकरा कर पटरियों का निवाला बन जाते हैं.

रवि का कहना है कि कई बार तो लाशें ऐसी बुरी हालत में होती हैं कि होशो हवास में उन्हें उठाया ही नहीं जा सकता, "हम इन लाशों को उठाने से पहले कपड़ा सूंघ लेते हैं." साफ सफाई करने वाले तरल पदार्थ से भीगा कपड़ा सूंघने के बाद लाश की बदबू थोड़ी कम हो जाती है. मुंबई सेंट्रल स्टेशन के पास एक खाली ट्रेन के डिब्बे में बैठे रवि बताते हैं कि हर रोज उन्हें तीन छोटी बोतल खरीदनी पड़ती है, जिसके द्रव से भीगा कपड़ा सूंघ कर वह लाश उठाते हैं. एक बोतल की कीमत 15 रुपये हैं.

तस्वीर: dapd

दोगुने पैसे

रवि से जिस वक्त बात चल रही थी, प्लेटफॉर्म के पास से उस जैसे दूसरे लोग भी गुजर रहे थे. वे आम तौर पर सामान उठाने या कोई दूसरा गैरसरकारी काम करते हैं. लेकिन जैसे ही पटरी पर किसी मौत या किसी के घायल होने की सूचना मिलती है, उन्हें अलर्ट कर दिया जाता है. इस काम के लिए उन्हें दोगुना पैसा मिलता है.

वे बताते हैं कि किस तरह उन्हें घायल व्यक्ति को दुर्घटना की जगह से स्ट्रेचर की मदद से अस्पताल तक ले जाना पड़ता है और कई बार तो उनकी मौत हो जाने के बाद उन्हें मुर्दाघर भी पहुंचाना पड़ता है. रवि कहते हैं, "पहले तो मैं बहुत डरता था. लेकिन अब आदत हो गई है." इस काम के लिए उन्हें 100 से 150 रुपये मिल जाते हैं.

भारत में रेलवे चिल्ड्रेन नाम की धर्मार्थ संस्था की प्रमुख रह चुकीं मृणालिनी राव का कहना है कि भारत के अलग अलग हिस्सों में इसी तरह की व्यवस्था है.

मौत की पटरी

फरवरी में जारी एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार हर साल लगभग 15,000 लोग भारतीय रेल की पटरियों पर दम तोड़ देते हैं. भारतीय रेल में सुरक्षा को लेकर बहुत सारी खामियां हैं और यहां तक कि कई जगहों पर रेलवे फाटक भी नहीं हैं.

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से 6000 लोगों की मौत मुंबई के लोकल रेल में होती है. इस साल के अब तक के आंकड़ों के मुताबिक 2310 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं. राव का कहना है कि इसके बाद लाशों को उठाने के लिए लोगों की जरूरत होती है, अधिकारी उन लोगों के प्रति आंखें मूंदे रहते हैं, जो ऐसा करते हैं और उन्हें रेलवे परिसर में चुपचाप पड़ा रहने देते हैं.

तस्वीर: dapd

मदद वाले कुली

सेंट्रल रेलवे के मुख्य प्रवक्ता वीए मालेगांवकर का कहना है कि रेलवे पुलिस की मदद के लिए उनके पास बिना प्रशिक्षण वाले कुली हैं, जो स्ट्रेचर के काम में पुलिस की मदद करते हैं. उनका कहना है, "इन लोगों का काम हादसे के शिकार लोगों को उठा कर स्ट्रेचर से एंबुलेंस तक पहुंचाने का होता है." उनका कहना है कि इस बात की संभावना बहुत कम होती है कि वे अपने दम पर शिकार लोगों को लेकर अस्पताल तक जाएं.

मालेगांवकर का कहना है कि इस काम और प्लेटफॉर्म पर रहने में कोई संबंध नहीं है, "अगर पूरे भारत की बात की जाए, तो यह देखा जाता है कि रेलवे प्लेटफॉर्म बहुत सुरक्षित जगह होती है. लेकिन मैं नहीं चाहूंगा कि कोई भी इस जगह को अपना स्थायी ठिकाना बना ले."

मुंबई का ग्लैमर और बॉलीवुड की चमक दूर दराज से लोगों को अपनी ओर खींचती है लेकिन सच्चाई इस चमक दमक से दूर होती है. रवि भी इसी चमक से खिंचा आया लेकिन उसे शुरू में जूठे पत्तलों पर पलना पड़ा. बाद में पुलिस ने पकड़ कर उसे बाल गृह में डाल दिया. साल भर बाद गांव से जब बड़ा भाई आया, तो उसने रवि को वहां से बाहर निकाला. फिर दोनों भाई शहर के अलग अलग हिस्सों में किसी तरह रहने लगे.

पटरी ही जीवन

लेकिन रवि का मन कहीं और नहीं लगा. वह पटरियों पर लौट आए. उनका कहना है, "मेरी आदत और मेरे दोस्तों की वजह से मैं वापस आ गया." अभी भी हर साल हजारों बच्चे मुंबई पहुंचते हैं. इनके सही आंकड़े बताना तो मुश्किल है लेकिन राव का कहना है कि हर दिन 10 से 20 बच्चे मायानगरी पहुंचते हैं. इनमें बहुत बड़ी संख्या में बच्चियां भी होती हैं. उन्हें देह व्यापार करने वाले देखते ही हड़प लेते हैं और इस वजह से पटरियों के आस पास सिर्फ लड़के दिखते हैं.

राव का मानना है कि ऐसे बच्चों को जल्दी ही मदद की जरूरत होती है. उनका कहना है कि अगर वे रवि की उम्र तक पहुंच गए, तो हो सकता है कि नशे की लत लग जाए और तब तक इतनी देर हो चुकी हो कि उन्हें सुधारना दूभर हो जाए. राव का कहना है, "बच्चों के भविष्य के बारे में सोचना कोई रॉकेट साइंस थोड़े ही है. वे तो सिर्फ प्यार और सहानुभूति चाहते हैं." उनका कहना है कि 18 साल से अधिक और 20 के आस पास की उम्र वाले बच्चों का जीवन सबसे मुश्किल पड़ाव पर होता है.

रिपोर्टः रैचेल ओब्रायन (एएफपी)/एजेए

संपादनः महेश झा

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