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समाज

मौलिक सुविधाओं को तरसते पुलिसवाले

प्रभाकर मणि तिवारी
२३ सितम्बर २०१९

भारत में आमतौर पर पुलिसवालों की छवि भ्रष्ट और अत्याचारी की ही है लेकिन यह बात कम लोग ही जानते हैं कि वर्दी की चमक-दमक और पुलिसवालों की इस क्रूर छवि के पीछे उनकी कई तकलीफें भी छिपी हैं.

Proteste Indien Sabarimala Tempel
तस्वीर: Reuters/Sivaram V

भारत में हाल में हुए एक सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि देश के ज्यादातर राज्यों में पुलिसकर्मी रोजाना 12 से 14 घंटे तक काम करने पर मजबूर हैं. इसके एवज में उनको न तो कोई मेहनताना मिलता है न ही कोई अतिरिक्त छुट्टी. ज्यादातर को साप्ताहिक अवकाश तक नहीं मिलता. पुलिस की नौकरी में आने वाली दिक्कतों की वजह से एक-तिहाई पुलिसवाले समान वेतन व सेवाशर्तों पर दूसरी नौकरियों में जाने के लिए तैयार हैं.

पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने बीते महीने पंजाब पुलिस के जवानों में तनाव का स्तर कम करने के लिए राज्य सरकार को उनकी सेवाशर्तों में सुधार के लिए एक उच्च-स्तरीय समिति के गठन का आदेश दिया है. लेकिन पुलिस सुधार के सिलसिले में पहले बने तमाम आयोगों की सिफारिशें और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश अब तक ठंडे बस्ते में हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, प्रति एक लाख आबादी पर न्यूनतम 222 पुलिसवाले होने चाहिए, लेकिन भारत में यह तादाद 192 है.

पुलिसवालों का दर्द

पश्चिम बंगाल ट्रैफिक पुलिस में बीते 22 वर्षों से नौकरी करने वाले रमेन कुमार प्रजापति इन शब्दों में अपनी तकलीफ का बयान करते हैं, "हमारी वर्दी से लोगों और पास-पड़ोस में रौब तो पड़ता ही है. यही वजह है कि लाखों लोग पुलिस में भर्ती के लिए जान लड़ा देते हैं. लेकिन हमारे साथ चिराग तले अंधेरा वाली कहावत चरितार्थ होती है. दूसरों को अपराधियों व अत्याचारियों से मुक्ति दिलाने वाले हम पुलिस वाले खुद भारी शोषण और काम के बोझ से दबे हैं.”

वह बताते हैं कि काम के बोझ की वजह से डायबिटीज से लेकर रक्ताप जैसी तमाम बीमारियां असमय ही घेर लेती हैं. साप्ताहिक अवकाश नहीं मिल पाने की वजह से पारिवारिक तनाव भी रहता है. हाल में आई सर्वेक्षण रिपोर्ट भी इसकी हकीकत की पुष्टि करती है. प्रगतिशील समझे जाने वाले बंगाल में भी आम पुलिस वाले को औसतन 13 घंटे की ड्यूटी करनी पड़ती है. तमाम बहस व विवाद के बावजूद पुलिस सुधारों को अब तक अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है.

रिपोर्ट

गैर-सरकारी संगठन कॉमन काज और सेंटर फार द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) की ओर से देश के 21 राज्यों में लगभग 12 हजार पुलिसवालों के बीच किए गए सर्वेक्षण के आधार पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में ज्यादातर पुलिस वाले काम के भारी बोझ से दबे हैं. ओडीशा में तो हालत सबसे खराब है. राज्य के पुलिसवाले औसतन 18 घंटे काम करते हैं और उनमें से 90 फीसदी को साप्ताहिक अवकाश तक नहीं मिलता.

इस मामले में पूर्वोत्तर राज्य नागालैंड अपवाद हैं जहां पुलिस वालों को आठ घंटे की ड्यूटी के बाद ही छुट्टी मिल जाती है. इसमें कहा गया है कि पुलिसवालों को अतिरिक्त ड्यूटी करने के एवज में न तो पैसे मिलते हैं और न ही छुट्टियां. बावजूद इसके सरकारी नौकरी के लालच में ग्रेजुएट से लेकर पीएचडी डिग्रीधारी उम्मीदवारों में भी पुलिस की नौकरी के प्रति भारी क्रेज है. इस मामले में कानूनी स्थिति एकदम भिन्न है. माडल पुलिस एक्ट, 2006 में कहा गया है कि राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सामान्य तौर पर पुलिस अधिकारियों की ड्यूटी का समय आठ घंटे से ज्यादा नहीं हो. अपवादजनक परिस्थितियों में यह 12 घंटे या उससे ज्यादा हो सकता है. लेकिन लगभग पूरे देश में औसतन 12 से 14 घंटे की ड्यूटी तो रूटीन बन गई है.

लेकिन आखिर पुलिसवालों की ड्यूटी का समय लंबा खिंचने की वजह क्या है? रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिस पर पहले ही काम का भारी बोझ है. ऊपर से कर्मचारियों की कमी ने इस समस्या को और जटिल बना दिया है. हर दूसरे पुलिसवाले को साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता. महाराष्ट्र ही अकेला ऐसा राज्य है जहां पुलिसकर्मियों को साप्ताहिक अवकाश मिल रहा है. ओडीशा और छत्तीसगढ़ के 90 फीसदी पुलिसवालों को एक दिन का भी साप्ताहिक अवकाश नहीं मिलता.

यह रिपोर्ट ऐसे समय पर आई है जब आंध्र प्रदेश सरकार ने कुछ महीने पहले राज्य के पुलिस वालों के लिए साप्ताहिक अवकाश अनिर्वाय कर दिया था. हाल में दिल्ली पुलिस ने आठ घंटे की शिफ्ट तय करने का प्रस्ताव दिया था. लेकिन कर्मचारियों की कमी का हवाला देते हुए इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया. सर्वेक्षण में शामिल एक चौथाई लोगों ने माना कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जवानों से अपना निजी काम भी कराते हैं. इससे दबाव और बढ़ता है. पुलिस के जवानों को सरकारी आवासन की सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं. महज 48 फीसदी को ही सरकारी आवास मिला है. सर्वेक्षण में पुलिस में काम करने वाले अल्पसंख्यकों के साथ बराबरी का व्यवहार नहीं होने की भी शिकायतें सामने आई हैं.

ठंडे बस्ते में पुलिस सुधार

दरअसल, देश में पुलिस अब तक वर्ष 1861 के औपनिवेशिक मानसिकता वाले पुलिस अधिनियम के तहत ही काम कर रही है. आजादी के बाद देश का अलग संविधान बनने के बावजूद किसी ने पुलिस अधिनियम में बदलाव की जरूरत नहीं समझी. वर्ष 1902-03 में ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय पुलिस आयोग ने इस दिशा में पहला प्रयास किया था. उसके बाद इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर छह और राज्य स्तर पर पांच आयोगों का गठन किया जा चुका है. लेकिन उन सबकी सिफारिशें फाइलों में धूल फांक रही हैं.

उत्तर प्रदेश व असम में पुलिस प्रमुख और सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के महानिदेशक रहे प्रकाश सिंह ने वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर अपील की थी कि तमाम राज्यों को राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने का निर्देश दिया जाए. इस याचिका पर एक दशक तक चली सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कई आयोगों की सिफारिशों का अध्ययन कर आखिर में 22 सितंबर, 2006 को पुलिस सुधारों पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में राज्यों के लिए छह और केंद्र के लिए एक दिशानिर्देश जारी किए थे.

विडंबना यह है कि किसी भी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तवज्जो नहीं दी. कुछ राज्यों ने बस खानापूर्ति के लिए कुछ दिशानिर्देशों को लागू जरूर किया लेकिन उन पर समुचित तरीके से अमल नहीं किया गया. अदालत के आदेश का पालन करने के लिए कई राज्य सरकारों ने वैकल्पिक रास्ता अपनाते हुए अपने-अपने पुलिस अधिनियम बना लिए.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि उसके निर्देश उसी समय तक लागू रहेंगे जब तक सरकारें अपना अलग कानून नहीं बना लेंती. सरकारों ने इसी प्रावधान का फायदा उठाया. इसी तरह सुरक्षा आयोग का गठन करते समय अदालती आदेश को ठेंगा दिखाते हुए राजनीतिक दलों ने अपने लोगों को इसका सदस्य बना दिया. तमाम राज्यों में पुलिस प्रमुख का चयन भी सत्तारुढ़ राजनीतिक पार्टी की मर्जी के आधार पर होता है. सोली सोराबजी समिति ने वर्ष 2006 में पुलिस अधिनियम का प्रारूप तैयार किया था. लेकिन केंद्र या राज्य सरकारों ने उस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया है.

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