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मौसम में जानलेवा बदलाव

२६ सितम्बर २०१२

धरती गर्म होने के कारण पर्यावरण में आए बदलाव दुनिया की आर्थिक उपज कम हो रही है. फिलहाल यह कमी 1.6 फीसदी की है लेकिन 2030 तक यह दुगुनी हो जाएगी. सिर्फ इतना ही नहीं 10 करोड़ लोग भी इसकी वजह से मौत के शिकार होंगे.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

दुनिया के 20 देशों ने मिल कर सामाजिक संस्था दारा से एक रिसर्च कराई जिसका नतीजा एक रिपोर्ट के रूप में सामने आया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से दुनिया का औसत तापमान तापमान बढ़ता जा रहा है. पृथ्वी पर इसका असर यह हो रहा है कि पहाड़ों की बर्फ पिघल रही है, मौसम अराजक हो रहा है, कहीं भयानक सूखे के रूप में तो कहीं बढ़ते सागर तल ने लोगों के जीवन और रोजगार पर बड़ा असर डाला है.

इस रिसर्च में मिले आंकड़ों से वैज्ञानिकों ने हिसाब लगा कर बताया है कि हर साल 50 लाख लोग वायु प्रदूषण, भूखमरी और बीमारियों से मर रहे हैं. इन सब मुसीबतों की जड़ में पर्यावरण में बदलाव और कार्बन उगलती अर्थव्यवस्थाएं हैं. इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि जिस तरह से जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल हो रहा है वह अगर इसी तरह जारी रहा तो 2030 तक हर साल मरने वालों की संख्या 60 लाख हो जाएगी.

तस्वीर: REUTERS

जान पर आफत

रिसर्च में 184 देशों में 2010 से 2030 तक इंसान और अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर का हिसाब लगाया गया है. इस रिसर्च के मुताबिक 90 फीसदी से ज्यादा मौतें विकासशील देशों में होगी. रिपोर्ट में कहा गया है, "पर्यावरण और कार्बन की मुसीबत दोनों मिल कर अब से अगले दशक के अंत तक 10 करोड़ लोगों की जान ले लेंगी."

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जलवायु बदलने के कारण दुनिया भर की जीडीपी में 1.6 फीसदी की कमी हुई है. हर साल के हिसाब से यह करीब 1.2 खरब डॉलर तक पहुंचती है. अगर धरती का तापमान बढ़ता रहा तो अर्थव्यवस्था को हो रहा यह नुकसान 2030 तक 3.2 फीसदी तक पहुंच जाएगा. 2100 आने के पहले ही यह आंकड़ा 10 फीसदी तक पहुंचने की चेतावनी दी गई है. इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि दुनिया की अर्थव्यवस्था को कम कार्बन वाला बनाने में इस साल जीडीपी का 0.5 फीसदी हिस्सा खर्च किया गया.

गरीब देश बुरे हाल में

ब्रिटिश अर्थशास्त्री निकोलस स्टर्न ने कुछ महीने पहले कहा था कि दुनिया की जीडीपी के 2 फीसदी के बराबर का निवेश जलवायु में बदलाव को सीमित करने, रोकने और उसके हिसाब से फेरबदल करने के लिए चाहिए. 2006 में जलवायु परिवर्तन पर आई उनकी रिपोर्ट में कहा गया कि अगले 50 सालों में दुनिया का औसत तापमान 2-3 फीसदी बढ़ जाएगा. इससे पूरी दुनिया में हर इंसान की खपत 20 फीसदी तक कम हो जाएगी.

तस्वीर: picture alliance/ZB

औद्योगिक युग से पहले के मुकाबले तापमान 0.8 फीसदी बढ़ चुका है. 2010 में करीब 200 देश दुनिया के तापमान में वृद्धि 2 C के नीचे रखने पर रजामंद हुए थे. हालांकि वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि इस लक्ष्य को हासिल कर पाने की उम्मीद बेहद कम है क्योंकि जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल काफी ज्यादा बढ़ चुका है. दुनिया के गरीब देश सबसे बुरी हालत में हैं. इन देशों में सूखा, पानी की कमी, फसल खराब होने, गरीबी और बीमारियों का खतरा सबसे ज्यादा है. दारा के मुताबिक औसत रूप से इन देशों को 2030 तक जीडीपी का 11 फीसदी इन सब की वजह से गंवाना पड़ सकता है.

बड़ा नुकसान

बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने इस रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया दी है, "तापमान में एक डिग्री सेल्सियस के बढ़ने से खेती की पैदावार पर 10 फीसदी के नुकसान का असर होता है. हमारे लिए इसका मतलब है करीब 40 लाख मिट्रिक टन का नुकसान जिसकी कीमत है 2.5 अरब डॉलर. यह रकम हमारी जीजीपी के दो फीसदी हिस्से का बराबर है. इसके साथ अगर संपत्ति और जीवन का नुकसान जोड़ दें तो हमारी जीडीपी को करीब 3.4 फीसदी का नुकसान होता है. "

वैसे एक सच्चाई यह भी है कि भले ही विकासशील देश ज्यादा नुकसान उठा रहे हों लेकिन विकसित देशों को भी माफी नहीं मिलने वाली. अमेरिका और चीन की जीडीपी को 2.1 फीसदी का नुकसान उनके देशों में देखना पड़ सकता है. इस मामले में भारत भी पीछे नहीं वहां तो करीब 5 फीसदी के नुकसान की बात कही जा रही है.

एनआर/एएम (रॉयटर्स, एएफपी)

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