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म्यांमार की सैन्य सरकार के साथ भारत का क्या रिश्ता है

५ अगस्त २०२२

म्यांमार में पिछले साल तख्ता पलट के बाद से ही भारत वहां लोकतांत्रिक सुधारों के लिए अपने समर्थन की बात कर रहा है. हालांकि जानकारों का कहना है कि भारत की कुछ कार्रवाइयां ऐसी हैं जो सैन्य जुंटा को खुश करती प्रतीत होती हैं.

भारत में रह रहे म्यांमार के लोगों ने कई बार विरोध प्रदर्शन किये हैं
भारत में रह रहे म्यांमार के लोगों ने कई बार विरोध प्रदर्शन किये हैंतस्वीर: Anushree Fadnavis/REUTERS

पिछले हफ्ते चार राजनीतिक कैदियों को फांसी देने की घटना की अन्य देशों के साथ भारत ने निंदा करते हुए म्यांमार में मानवाधिकार की खराब होती स्थिति पर ‘गहरी चिंता' जताई. 

पिछले साल हुए तख्तापलट के विरोध में सेना की बर्बरतापूर्वक दमनकारी कार्रवाइयों के बावजूद म्यांमार में नागरिक अशांति अभी भी जारी है.  

फांसी देने के ठीक एक दिन बाद भारत के राजदूत विनय कुमार ने म्यांमार के विदेश मंत्री यू वुन्ना मौन्ग ल्विन से राजधानी नेपिदॉ में मुलाकात की जहां उन्होंने द्विपक्षीय संबंधों और सहयोग की संभावनाओं पर बातचीत की. 

हालांकि तख्तापलट के बाद से ही म्यांमार के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों को लेकर भारत काफी सावधानी बरत रहा है और हिंसा की निंदा कर रहा है लेकिन भारत ने साल 2020 के चुनाव परिणामों की वैधता की पुष्टि नहीं की है जब आंग सान सू ची की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी ने सरकार बनाने के लिए संसद में पर्याप्त सीटें जीती थीं.

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यंगून स्थित तंपाडिपा इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर खिन जॉ विन डीडब्ल्यू से बातचीत में कहते हैं, "भारत म्यांमार जुंटा का घनिष्ठ मित्र रहा है और सेना की मदद करता रहा है, खासकर सेना प्रमुख मिन ऑन्ग लैंग की. फरवरी 2021 के बाद से यह स्थिति चिंताजनक हो गई है क्योंकि भारत को लगता है कि इस रिश्ते को बनाए रखना ही ठीक है. भारत जिसे एक संपत्ति के रूप में देखता है, वो एक बड़ा बोझ बन गया है.”

चार लोकतंत्र समर्थक कार्यकर्ताओं की फांसीके बाद नई दिल्ली में अधिकारियों ने भारत में शरण की उम्मीद लगाए म्यांमार के कुछ असंतुष्टों के एक प्रदर्शन को रद्द कर दिया. एक प्रदर्शनकारी ने डीडब्ल्यू को बताया, "करीब दो सौ लोग म्यांमार की सैन्य सरकार की बर्बर कार्रवाइयों के खिलाफ जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन करना चाहते थे जिसे अंतिम समय में रोक दिया गया.”

लोकतंत्र समर्थक सेना के दमन के बावजूद विरोध जारी रखे हुये हैंतस्वीर: Str/NurPhoto/IMAGO

म्यांमार के खिलाफ भारत की मजबूत स्थिति के लिए अभियान

भारत में निर्वासित जीवन बिता रहे तमाम शरणार्थी इस कोशिश में लगे रहते हैं कि वो म्यांमार में हो रहे मानवाधिकार हनन की घटनाओं को उजागर करें और भारत सरकार से इस बारे में म्यांमार के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने की अपील करें.

करीब बीस हजार चिन शरणार्थी पहले ही उत्तर पूर्वी राज्य मिजोरम की सीमा पार कर चुके हैं. ये लोग म्यांमार की सीमा पर बसे गांवों में बने शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं.

इन शरणार्थियों के रहने और खाने की पूरी व्यवस्था गांव समितियां देखती हैं जिन्हें यंग मिजो एसोसिएशन और मिजो बैप्टिस्ट चर्च जैसे शक्तिशाली संस्थाओं के सहयोग से चलाया जाता है. ये लोग चिन शरणार्थियों को अपना भाई समझते हैं.

म्यांमार की स्थिति दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया को जोड़ने वाले एक सेतु जैसी है और भारत के लिए यह स्थिति और म्यांमार का महत्व कूटनीतिक तौर पर बहुत ही अहम है. 

दोनों देश एक-दूसरे के साथ करीब 1600 किलोमीटर की जमीनी सीमा साझा करते हैं और बंगाल की खाड़ी में समुद्री सीमा भी. म्यांमार भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है. दोनों देशों ने एक-दूसरे से सीमा क्षेत्र में भारतीय विद्रोहियों से जुड़ी खुफिया सूचनाएं साझा करने संबंधी एक समझौता भी किया हुआ है.

इसके अलावा, म्यांमार की सैन्य सरकार के साथ बेहतर रिश्ते बनाए रखने में भारत के आर्थिक हित भी हैं क्योंकि यहां प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम और भारत के उच्च तकनीक उद्योग में काम आने वाली दुर्लभ मृदा धातुएं भरपूर मात्रा में हैं. 

विदेश मामलों के जानकारों के मुताबिक, म्यांमार के साथ भारत के संबंधों को चीन के साथ प्रतियोगिता के दृष्टिकोण से भी समझने की जरूरत है.

तटस्थ रहने की कोशिश

डीडब्ल्यू से बातचीत में नेशनल यूनिटी गवर्नमेंट यानी एनयूजी में प्रधानमंत्री कार्यालय से जुड़े आइजेक खेन कहते हैं, "ऐसा लगता है कि म्यांमार की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों में भारत खुद को तटस्थ रखने की कोशिश में है लेकिन यह सही फैसला नहीं है.”

एनयूजी एक सांकेतिक सरकार है जिसे अप्रैल 2021 में सैन्य सरकार के विरोध में निर्वाचित सांसदों के एक समूह को मिलाकर बनाया गया था. 

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खेन आगे कहते हैं, "यह देखने में आया है कि भारत की म्यांमार नीति सीधे तौर पर चीन की म्यांमार नीति से संबद्ध है और यह नीति म्यांमार में लोकतंत्र समर्थकों का साथ देने के लिहाज से बेहद कमजोर है.”

चीन ने घोषणा की है कि वह इस बात की चिंता किए बगैर म्यांमार की सरकार को समर्थन देता रहेगा कि चाहे स्थितियां जैसी भी हों. इससे यह साफ संकेत मिलता है कि म्यांमार की सैन्य सरकार के साथ वह रिश्ते मजबूत कर रहा है जो कि भारत के लिए चिंता का विषय हो सकता है.

म्यांमार भी चीन के उस बेल्ट एंड रोड इनीशियेटिव के अंतर्गत आता है जो कि 100 अरब डॉलर का एक आर्थिक गलियारा है और जो चीन के युआन प्रांत को म्यांमार में रखाइन प्रांत के तेल और गैस क्षेत्रों से जोड़ता है.

म्यांमार के साथ विविधतापूर्ण संबंध

कुछ लोगों का कहना है कि भारत अपने भू-रणनीतिक उद्देशों को पूरा करने के लिए म्यांमार की सैन्य सरकार को साथ लेकर चल रहा है.

म्यांमार की स्पेशल एडवाइजरी काउंसिल के क्रिस सिडोती कहते हैं, "म्यांमार के साथ भारत के संबंधों में विविधता है. एक तरफ वो फांसी की निंदा करता है और पिछले साल उद्योगपति गौतम अडानी ने यंगून में म्यांमार के साथ बंदरगाह बनाने की एक परियोजना से हाथ खींच लिया और दूसरी ओर दोनों देशों के बीच नजदीकी आर्थिक, व्यापारिक और राजनीतिक संबंध हैं. भारत के सर्वोत्तम हित स्थाई, शांतिपूर्ण और पारस्परिक रूप से समृद्ध संबंध में ही हैं.”

स्पेशल एडवाइजरी काउंसली-एम अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों का एक समूह है जो कि म्यांमार में मानवाधिकार और न्याय के लिए संघर्ष करने वालों का सहयोग करता है.

भारत और चीन के अलावा जापान ने भी म्यांमार जुंटा के साथ संबंध बढ़ाने का संकेत दे रहा है. और कंबोडिया भी जुंटा से बातचीत बढ़ा रहा है जिसने हाल ही में आसियान की अध्यक्षता पाई है. 

भारत उन आठ देशों में शामिल रहा है जिन्होंने पिछले साल मार्च में म्यांमार के आर्म्ड फोर्सेज डे में शिरकत की थी. यह दिवस म्यांमार की सेना के सम्मान में मनाया जाता है.

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हालांकि भारत यह भी समझता है कि म्यांमार की सैन्य सरकार को समर्थन देना उसके लिए नुकसानदायक भी साबित हो सकता है कि क्योंकि इस वजह से भारत को एक बड़ी शरणार्थी समस्या का सामना करना पड़ेगा जैसा कि साल 2017 में रोहिंग्या शरणार्थियों की वजह से करना पड़ा था.

पर्यवेक्षकों का कहना है कि सैन्य जुंटा किसी हड़बड़ी में नहीं है. सिडोती कहते हैं कि भारत के लिए म्यांमार के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि वो लोकतंत्र समर्थक आंदोलन और एनयूजी का साथ दे.

वो कहते हैं, "ऐसा करने से सैन्य सरकार के ऊपर काफी राजनीतिक और आर्थिक दबाव पड़ेगा कि वो सत्ता छोड़कर वापस बैरक में जाये और सरकार एनयूजी को सौंप दे.”

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