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म्यांमार को लेकर कोई भ्रम नहीं बचा

रोडियोन एबिगहाउजेन
२ फ़रवरी २०२१

म्यांमार की सेना ने तख्तापलट कर देश की नेता आंग सान सू ची को हिरासत में ले लिया है. डीडब्ल्यू के रोडियोन एबिगहाउसेन कहते हैं कि म्यांमार में लोकतांत्रिक प्रयोग विफल हो गया है.

Thailand Anhänger aus Myanmar protestieren für Aung San Suu Kyi
तस्वीर: Sakchai Lalit/AP/picture alliance

म्यांमार की सेना जब 2011 में देश की राजनीति से दूर होने लगी तो सब के मन में यही सवाल था कि सेना आखिर किस हद तक सत्ता को छोड़ेगी. आलोचकों ने सैन्य जनरलों को संदेह की नजर से देखा. उन्होंने इसे लोकतंत्र के लबादे में तानाशाही करार दिया था. वहीं आशावादियों को लगा कि एक नई ईमानदार कोशिश शुरू हो रही है और लोकतंत्र के लिए संभावनाएं पैदा हो रही हैं.

शुरुआती प्रगति

शुरू में सारे संकेत सकारात्मक दिख रहे थे. पूर्व जनरल और सुधारवादी राष्ट्रपति थीन सीन के नेतृत्व में सेना देश में नई संभावनाओं के लिए द्वार खोलने के प्रति गंभीर हुई. आंग सान सू ची को नजरबंदी से रिहा किया गया. उनकी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के बहुत से दूसरे नेताओं को भी जेल से रिहा किया गया. प्रेस पर लगी पाबंदियों में भी ढील दी गई.

म्यांमार में 2015 में संसदीय चुनाव हुए. एनएलडी को भारी जीत मिली. सेना और उसकी समर्थक यूनियन सॉलिडेरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी ने हार स्वीकार की. इसमें बहुत ज्यादा जोखिम नहीं था. संविधान के अनुसार सेना के पास संसद में एक चौथाई सीटें रहेंगी और रक्षा मंत्रालय, सीमा सुरक्षा और गृह मंत्रालय भी सेना के अधीन होगा. फिर भी सेना ऐसे संकेत दे रही थी कि वह समझौता करने को तैयार है.

सेना प्रमुख जनरल ह्लैंग और कार्यवाहक राष्ट्रपति मिंट स्वेतस्वीर: MRTV/Handout/REUTERS

पहले जीत, फिर धक्का

एनएलडी ने 2015 के चुनाव में वैधता हासिल करने के बाद सेना को मात देते हुए आंग सान सू ची को स्टेट काउंसिलर के पद पर नियुक्त करने में कामयाबी हासिल की. यह पद प्रधानमंत्री पद के बराबर है लेकिन संविधान में इसका कोई उल्लेख नहीं है.

इसे संभव कर दिखाया एक वकील ने, जिनका नाम था को नी. वह सेना के कटु आलोचक थे और 2017 में यांगोन एयरपोर्ट के सामने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई. हत्या करने वाला व्यक्ति पकड़ा गया, लेकिन इस पूरी साजिश के पीछे मास्टरमाइंड कौन था, इसका पता नहीं चला. लेकिन माना जाता है कि सेना एनएलडी को यह संदेश देना चाहती थी कि हमें चुनौती मत देना. सेना खुद को देश की सुरक्षा और एकता का रखवाला मानती है. उसे यह मंजूर नहीं था कि कोई और खेल के नियम तय करे.

दूसरी तरफ, एनएलडी भी टकराव के रास्ते पर आगे बढ़ती रही. जनता को फायदा पहुंचाने वाले सुधारों पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय पार्टी ने संविधान में बदलाव करने पर अपनी ऊर्जा लगाई. सेना ने इसमें अड़ंगा लगाया.

सू ची और सशस्त्र सेनाओं के कमांडर इन चीफ मिन आंग ह्लैंग के बीच रिश्ते खराब होते चले गए. हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के सामने आंग सान सू ची की पेशी से भी कुछ नहीं बदला. रोहिंग्या लोगों के खिलाफ नरसंहार के मामले में आंग सान सू ची हेग की अदालत में गई थीं जहां उन्होंने म्यांमार की सेना का बचाव किया.

किस हद तक जाएगी सेना

इसके बाद 2020 में म्यांमार में फिर आम चुनाव हुए और एनएलडी ने 83 प्रतिशत वोटों के साथ भारी जीत हासिल की. इस बार सेना ने चुनावों में धांधली का आरोप लगाया. निर्वाचित सरकार की तरफ से नियुक्त चुनाव आयोग ने इन आरोपों को बेबुनियाद बताया. सेना ने म्यांमार की सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा दायर किया जिस पर सुनवाई अभी चल रही है.

अब सेना ने तख्तापलट कर दिया है और एक साल तक सत्ता अपने हाथ में रखना चाहती है ताकि सुधार किए जा सकें. इसमें चुनाव आयोग के सुधार भी शामिल हैं. म्यांमार के संविधान का अनुच्छेद 417 तख्तापलट को उचित ठहराता है और अगर देश की संप्रभुता और एकता को खतरा हो तो सेना को सत्ता अपने हाथ में लेने की अनुमति देता है. सेना इसे अपना अधिकार समझती है. लेकिन तख्तापलट का मतलब है कि सेना अपने इस अधिकार को बचाने के लिए लोकतंत्र को नष्ट कर सकती है.

तो सेना कितनी हद तक सत्ता छोड़ना चाहती है. जवाब है, किसी भी हद तक नहीं.

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