म्यांमार ने बनाया पढ़े-लिखे रोहिंग्या लोगों को निशाना
५ जून २०१८
"मैं पहाड़ों के पीछे छुप गया. मैंने देखा कि मेरा भाई सेना से जान बख्शने की गुहार लगा रहा है. वह सेना को पहचान पत्र दिखा कर गिड़गिड़ा रहा था कि वह शिक्षक है. लेकिन सेना ने तय कर लिया था कि वह पढ़े लिखे को मार देगी."
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"वो आखिरी मौका था जब मैंने अपने 35 साल के भाई को जिंदा देखा था." अपने डरावने अनुभव को शब्दों में बयां करते वक्त मोहम्मद हाशिम की आवाज सहम जाती है. हाशिम खुद एक शिक्षक थे. रखाइन में हुई हिंसा के बाद म्यांमार से भागकर बांग्लादेश आ गए. हाशिम की ही तरह कई शिक्षक, बुजुर्गं, धार्मिक नेता मानते हैं कि म्यांमार सरकार ने जानबूझ कर पढ़े-लिखे रोहिंग्या समुदाय को निशाना बनाया. दर्जन भर रोहिंग्या लोगों ने समाचार एजेंसी एपी के साथ बातचीत में कहा कि ऐसे लोगों को इसलिए निशाना बनाया गया ताकि कोई भी जातीय हिंसा के खिलाफ आवाज न उठा सके.
26 साल का रहीम भी एक हाईस्कूल में विज्ञान और गणित पढ़ाता था. गांव के जिस स्कूल में वह पढ़ाता था वहां आसपास के क्षेत्र में तैनात जवानों के बच्चे भी पढ़ने आते थे, जिसमें से काफी उसे जानते थे. लेकिन जब उसने सेना का ऐसा रुख देखा तो उसे भी सब छोड़छाड़ कर भागना पड़ा. बकौल रहीम, "मुझे समझ आ गया था कि अगर मैं पकड़ा गया तो वो लोग मुझे मार डालेंगे. क्योंकि उन्हें पता था कि मैं अकसर लोगों के लिए आवाजें उठाता रहा हूं. इसलिए वे हमें खत्म करना चाहते थे क्योंकि हमें खत्म कर उनके लिए बाकी रोहिंग्या लोगों के साथ कुछ भी करना आसान होता."
कैंपों में रहने वाले ये रोहिंग्या शरणार्थी बताते हैं कि म्यांमार के सैनिकों ने माउंग नु गांव में आकर लोगों से पूछा था कि शिक्षक कहां हैं?
जनसंहार का अध्ययन करने वाले इसे एक पुरानी रणनीति मानते हैं. जिसका इस्तेमाल मारकाट को जायज ठहराने के लिए किया जाता है. रिसर्चर्स रखाइन में हुई हिंसा की तुलना होलोकॉस्ट समेत दुनिया के अन्य जनसंहारों से करते हैं. बांग्लादेश के रोहिंग्या कैंपों में जाकर लोगों से बातचीत करने वाली यूएससी शोह फाउंडेशन की कैरन यंगबॉल्ट कहती हैं, "इन लोगों के अनुभव सुनकर लगता है कि यहां जनसंहार की रणनीतियां अपनाई जा रही हैं. जिसमें सबसे पहले आप धार्मिक और राजनीतिक आवाजों को बंद करते हैं और उसके बाद आम जनता की आवाजों की दबाते हैं. यह कोई अचानक पैदा हुई क्षेत्रीय हिंसा नहीं थी."
दुनिया में कहां-कहां बसे हैं रोहिंग्या मुसलमान
रोहिंग्या मुसलमानों के मसले पर संयुक्त राष्ट्र समेत पूरी दुनिया म्यांमार के रुख पर सवाल उठा रही है. भारत में तो रोहिंग्या मुसलमानों का मामला न्यायालय तक पहुंच गया है. एक नजर उन देशों पर जहां रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं.
तस्वीर: DW/M. Mostqfigur Rahman
म्यांमार
म्यांमार में गरीबी और मुफलिसी का जीवन बिता रहे ये रोहिंग्या मुसलमान देश के रखाइन प्रांत को अपना गृहप्रदेश मानते हैं. आंकड़ों के अनुसार म्यांमार में तकरीबन 6 लाख रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं.
तस्वीर: DW/M. Mostqfigur Rahman
भारत
देश में तकरीबन 40 हजार रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं. भारत की मोदी सरकार ने रोहिंग्या मुसलमानों को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया है और इन्हें वापस भेजने की बात कही है. फिलहाल मामला उच्चतम न्यायालय में है.
तस्वीर: Reuters
बांग्लादेश
म्यांमार से भागे शरणार्थी बांग्लादेश में ही शरण ले रहे हैं. बांग्लादेश में तकरीबन 9 लाख रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं. बांग्लादेश सरकार, म्यांमार से बार-बार इन्हें वापस लेने की बात कह रही है लेकिन म्यांमार सरकार इन्हें बांग्लादेशी करार देती है.
तस्वीर: Getty Images/A. Joyce
पाकिस्तान
दुनिया के तमाम मुस्लिम देश रोहिंग्या मुसलमानों की हालत पर सवाल उठा रहे हैं लेकिन मुस्लिम राष्ट्रों में भी रोहिंग्या समुदाय की हालत कोई बहुत अच्छी नहीं है. पाकिस्तान में 40 हजार से 2.50 लाख तक रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं.
तस्वीर: Reuters/A. Soomro
थाईलैंड
भारत के साथ सांस्कृतिक रूप से जुड़ाव रखने वाले थाईलैंड में भी तकरीबन 5000 रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं. इनमें से अधिकतर ऐसे शरणार्थी हैं जो म्यांमार से भाग कर थाईलैंड आये और वहीं बस गये.
तस्वीर: DW/A. Rahman Rony
मलेशिया
म्यांमार के रखाइन प्रांत में हुई हिंसा का विरोध मलेशिया में भी हुआ था. मलेशिया में तकरीबन एक लाख रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं जो म्यांमार और बांग्लादेश में रहने वाले रोहिंग्या समुदाय से हमदर्दी रखते हैं.
तस्वीर: Getty Images/G.Chai Hin
सऊदी अरब
सुन्नी बहुल मुस्लिम समुदाय वाले सऊदी अरब में भी तकरीबन 2 लाख रोहिंग्या मुसलमान रहते हैं. लेकिन म्यांमार के साथ अपने कारोबारी हितों के चलते सऊदी अरब के तेवरों में रोहिंग्या मसले पर वैसी तल्खी नजर नहीं आती जैसा अन्य मुस्लिम देश अपनाये हुए हैं.
तस्वीर: Reuters/D.Siddiqui
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अगस्त 2017 को म्यांमार के रखाइन प्रांत में हुई हिंसा ने यहां रहने वाले रोहिंग्या मुसलमानों की जिंदगी में भूचाल ला दिया. मजबूरन लाखों रोहिंग्या लोगों को म्यांमार से भागकर पड़ोसी देश बांग्लादेश में शरण लेनी पड़ी. लंदन की क्वीन मेरी यूनिवर्सिटी में साल 2012 से रोहिंग्या पर शोध कर रहे थॉमस मैकमैनस कहते हैं, "इस पूरे घटनाक्रम के पीछे रोहिंग्या समुदाय को खत्म करने का उद्देश्य नजर आता है. इसका एक तरीका हो सकता है कि उनकी संस्कृति को नष्ट कर उन्हें इतिहास से खत्म कर दिया जाए. यह जनसंहार में इस्तेमाल होने वाला एक तरीका है."
संयुक्त राष्ट्र ने 65 रिफ्यूजी लोगों से बातचीत के आधार पर तैयार की गई अपनी रिपोर्ट में कहा था, "म्यांमार के सुरक्षा बलों ने शिक्षकों समेत बुलंद धार्मिक और राजनीतिक ताकतों को निशाना बनाया. यह रोहिंग्या के इतिहास, संस्कृति को खत्म करने की कोशिश थी."
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी नवंबर 2017 में पेश अपनी रिपोर्ट में रोहिंग्या लोगों के खिलाफ संस्थागत भेदभाव की बात कही थी. रिपोर्ट में कहा गया था कि इसका मकसद इनकी संस्कृति को खत्म करना है.
रोहिंग्या: ये घाव अपनी कहानी खुद कहते हैं..
म्यांमार में सेना की कार्रवाई से बचने के लिए लाखों रोहिंग्या भागकर बांग्लादेश पहुंचे हैं. इनमें से कई लोगों के शरीर के निशान उन पर हुए जुल्मों की गवाही देते हैं. समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने कुछ ऐसे ही लोगों की फोटो खींची.
तस्वीर: Reuters/J. Silva
शाहिद, एक साल
पट्टियों में लिपटी एक साल के नन्हे शाहिद की टांगें. यह तस्वीर दिमाग में जितनी जिज्ञासा पैदा करती है, उससे कहीं ज्यादा त्रासदी को दर्शाती है. शाहिद की दादी म्यांमार के सैनिकों से बचकर भाग रही थी कि बच्चा गोद से गिर गया. यह तस्वीर कॉक्स बाजार में रेड क्रॉस के एक अस्पताल में ली गयी. (आगे की तस्वीरें आपको विचलित कर सकती हैं.)
तस्वीर: Reuters/H. McKay
कालाबारो, 50 साल
50 साल की कालाबारो म्यांमार के रखाइन प्रांत के मुंगदूत गांव में रहती थी. गांव में म्यांमार के सैनिकों ने आग लगा दी. सब कुछ भस्म हो गया है. कालाबारो के पति, बेटी और एक बेटा मारे गये. कालाबारो घंटों तक मरने का बहाना बनाकर लेटी ना रहती तो वह भी नहीं बचती. लेकिन अपना दाया पैर वह न बचा सकी.
तस्वीर: Reuters/J. Silva
सितारा बेगम, 12 साल
ये पैर 12 साल की सितारा बेगम के हैं. जब सैनिकों ने उसके घर में आग लगायी तो उसके आठ भाई बहन तो घर से निकल गये, लेकिन वह फंस गयी. बाद में उसे निकाला गया, लेकिन दोनों पैर झुलस गये. बांग्लादेश में आने के बाद उसका इलाज हुआ. वह ठीक तो हो गयी लेकिन पैरों में उंगलियां नहीं बचीं.
तस्वीर: Reuters/J. Silva
नूर कमाल, 17 साल
17 साल के नूर कमाल के सिर पर ये घाव हिंसा की गवाही देते हैं. वह अपने घर में छिपा था कि सैनिक आए, उसे बाहर निकाला और फिर चाकू से उसके सिर पर हमला किया गया. सिर में लगी चोटें ठीक हो गयी हैं, लेकिन उसके निशान शायद ही कभी जाएं.
तस्वीर: Reuters/J. Silva
अनवारा बेगम, 36 साल
अपने घर में सो रही 36 वर्षीय अनवारा बेगम की जब आंख खुली तो आग लगी हुई थी. जलती हुई एक चिंगारी ऊपर गिरी और नाइलोन का कपड़ा उनके हाथों से चिपक गया. वह कहती हैं, "मुझे तो लगा कि मैं बचूगीं नहीं, लेकिन अपने बच्चों की खातिर जीने की कोशिश कर रही हूं."
तस्वीर: Reuters/J. Silva
मुमताज बेगम, 30 साल
30 साल की मुमताज बेगम के घर में घुसे सैनिकों ने उससे कीमती सामान लेने को कहा. जब मुमताज ने अपनी गरीबी का हाल बताया तो सैनिकों ने कहा, "पैसा नहीं है तो हम तुम्हें मार देंगे." और घर में आग लगा दी. उसके तीन बेटे मारे गये और उसे लहुलुहान कर दिया गया.
तस्वीर: Reuters/J. Silva
इमाम हुसैन, 42 साल
इमाम हुसैन की उम्र 42 साल है. एक मदरसे में जाते वक्त हुसैन पर तीन लोगों ने हमला किया. इसके अगले ही दिन उसने अपने दो बच्चों और पत्नी को गांव के अन्य लोगों के साथ बांग्लादेश भेज दिया. इसके बाद वह भी इस हालात में कॉक्स बाजार पहुंचा.
तस्वीर: Reuters/J. Silva
मोहम्मद जुबैर, 21 साल
21 साल के मोहम्मद जुबैर के शरीर की यह हालात उसके गांव में एक धमाके का कारण हुई. जुबैर का कहना है, "कुछ हफ्तों तक मुझे कुछ दिखायी ही नहीं देता था." बांग्लादेश पहुंचने के बाद कॉक्स बाजार के एक अस्पताल में उसका 23 दिनों तक इलाज चला.