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म्यांमार में चुनावों से पहले दूर है शांति का सपना

राहुल मिश्र
१ सितम्बर २०२०

म्यांमार में पांच साल बाद फिर आम चुनाव होने जा रहे हैं. चुनाव के नतीजे देश की राजनीति के अलावा इलाके की राजनीति को भी प्रभावित करेंगे. भारत की दिलचस्पी लोकतांत्रिक नेता आंग सान सू ची को जीतता देखने में होगी.

Myanmar Parlament wählt Win Myint zum neuen Präsidenten
तस्वीर: Reuters

म्यांमार के चुनाव आयोग ने 8 नवम्बर 2020 को चुनाव कराने का निर्णय लिया है. कुल मिलाकर 97 राजनीतिक दलों के चुनाव में भाग लेने की संभावना है. इन चुनावों में 1171 सीटों पर उम्मीदवारों के राजनीतिक भविष्य का फैसला होगा. नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी एनएलडी की नेता और स्टेट काउन्सिलर आंग सान सू ची और राष्ट्रपति विन मिंट ने चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है.

म्यांमार संघीय गणराज्य व्यवस्था वाला देश है जहां पांच साल में एक बार, एक साथ राष्ट्रीय, प्रांतीय और क्षेत्रीय स्तर पर चुनाव होते हैं. भारत की तरह म्यांमार में भी चुनाव में सबसे अधिक मत पाने वाला प्रत्याशी विजयी माना जाता है. म्यांमार चुनाव आयोग के अनुसार 3 करोड़ 70 लाख नागरिक चुनावों में मतदान के योग्य हैं. देश की दो तिहाई से ज्यादा जनसंख्या बामार समुदाय की है और रोहिंग्या मुसलमानों को मतदान का अधिकार नहीं है. अंतरराष्ट्रीय स्तर के मानवाधिकार से जुड़े कई संगठनों की उम्मीद है कि इस बार चुनावों में कम से कम रोहिंग्या समुदाय के लोगों को वोट देने का अधिकार मिल सकेगा, हालांकि जमीनी तौर पर इसकी संभावना बहुत कम ही लगती है.

नवम्बर के चुनाव में म्यांमार की संसद के दोनों सदनों और प्रांतीय और क्षेत्रीय सदनों के लिए 1171 सदस्यों का निर्वाचन होगा. इनमें वह 25 प्रतिशत सीटें शामिल नहीं हैं जो तात्मादव (म्यांमार की सेना) के लिए आरक्षित हैं. 2008 के संविधान के अनुसार केंद्र के दोनों सदनों में तात्मादाव के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं. प्रांतीय और क्षेत्रीय सदनों में यह आरक्षण एक तिहाई सीटों का है. इसके अलावा सेना के प्रतिनिधियों के लिए तीन अहम मंत्रालय, गृह, रक्षा, और सीमा मामलों से जुड़ा मंत्रालय भी आरक्षित हैं.

संसद के सैनिक सदस्यतस्वीर: picture-alliance/AA/A. Naing

असली लड़ाई दो दलों में

म्यांमार में वैसे तो दर्जनों राजनीतिक दल हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर दो दलों के बीच ही  लड़ाई है. आंग सान सू ची की नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी और विपक्षी यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी यूएसडीपी जिसमें सेना के पूर्व अधिकारियों का महत्वपूर्ण स्थान है. माना यह भी जा रहा है कि इस चुनाव में क्षेत्रीय पार्टियां भी अपना दम खम दिखाएंगी. लेकिन एनएलडी और यूएसडीपी में से कोई एक सरकार बनाने में प्रमुख भूमिका निभाएगी. देखना यह है कि एनएलडी 2015 के चुनावों की तरह फिर से भारी बहुमत पाने में सफल होती है या नहीं. एनएलडी के लिए चिंताजनक यह भी है कि 1988 के आंदोलन के समय सक्रिय छात्र नेताओं ने अपनी एक अलग पार्टी पीपुल्स पार्टी बना ली है. इसके अलावा 2019 में नौ राजनीतिक दलों का गठबंधन यूनाइटेड पोलिटिकल पार्टीज अलायंस यूपीपीए भी उभर कर सामने आया है.

2015 के चुनावों में भारी बहुमत से जीतने के बावजूद आंग सान सू ची राष्ट्रपति पद पर काबिज होने में नाकाम रहीं थी. इस बार भी ऐसी कोई संभावना बनती नहीं दिख रही है. अकेले 2020 में ही एनएलडी सरकार ने संवैधानिक संशोधनों के 100 से अधिक प्रस्ताव पेश किए. इन संशोधनों में वह अनुच्छेद भी शामिल थे जिनकी वजह से आंग सान सू ची राष्ट्रपति पद के लिए अयोग्य करार दी गयी थीं. इन मसौदों पर तात्मदाव के प्रतिनिधियों का विरोध स्वाभाविक था और उनके विरोध के कारण यह मसौदे पास नहीं हो सके. लगता यही है कि सू ची संवैधानिक तौर पर इस बार भी राष्ट्रपति की कुर्सी पर नहीं बैठ पाएंगी.

बांग्लादेश में रोहिंग्या कैंपतस्वीर: Reuters/D. Sagolj

लोकतांत्रिक शासन का लेखा जोखा

अगर सू ची और एनएलडी के पिछले 5 साल का लेखा-जोखा देखा जाए तो ऐसा नहीं है कि सू ची के आने के बाद म्यांमार में सब कुछ सामान्य और खुशहाल हो गया है. यह साफ दिखता है कि हर एक शहर के लिए एक चिराग भी अभी तक मयस्सर नहीं हुआ है. संविधान संशोधन जैसे बड़े मुद्दे अभी तक अनसुलझे ही हैं. आर्थिक विकास और प्रगति की दर भी संतोषजनक नहीं रही है. देशव्यापी शांति समझौते की भी कोई उम्मीद नहीं दिखती. सू ची  के तमाम दावों के बावजूद एनएलडी सरकार एक आम बामार-समर्थक सरकार के तौर पर ही सामने आई है जिसने अल्पसंख्यक समदायों के हितों को अनदेखा किया है.

विकास के हाशिए पर खड़े इन लोगों में कचिन, शान, चिन और नागा जैसे दर्जनों समुदायों के लोग हैं. इनमें से कई वर्षों से तात्मदाव के साथ हिंसक संघर्ष में फंसे हुए हैं. यह बात और है कि मुस्लिम रोहिंग्या समुदाय पर सभी का ध्यान ज्यादा है. जहां तक रखाइन प्रांत का सवाल है तो वहां गेहूं के साथ साथ घुन भी पिस रहा है. साफ कहें तो सिर्फ रोहिंग्या मुसलमान ही नहीं अन्य समुदायों के लोग भी गरीबी और भुखमरी का शिकार हो रहे हैं. रहा रोहिंग्या मुसलमानों का सवाल तो सू ची के नेतृत्व में पांच साल के एनएलडी शासनकाल में तात्मदाव के रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहे अत्याचारों में बढ़ोत्तरी ही हुई है. लगभग साढ़े सात लाख रोहिंग्या आसपास के देशों में शरणार्थी बन कर रहे हैं.

अंतरराष्ट्रीय अदालत में पेशीतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/P. Dejong

नहीं हुआ हिंसा का दौर खत्म

इसमें कोई दो राय नहीं कि 2015 के आम चुनावों से पहले से ही सू ची राष्ट्र्व्यापी पंगलांग कॉन्फ्रेंस के जरिए 100 से अधिक समुदायों के बीच वर्षों से चले आ रहे मतभेदों को खत्म करना चाह रहीं थीं और इसके लिए उन्होंने प्रयास भी किए. लेकिन ये प्रयास असफल ही रहे. सू ची के सत्ता में आने से पहले यह उम्मीद की जा रही थी कि उनके नेतृत्व में एनएलडी की सरकार बनने के बाद हिंसा और द्वेष का दौर खत्म होगा और देश की 100 से अधिक समुदायों के बीच भी आपसी समझ और सहयोग स्थापित होगा. इसके उलट ऐसे कई मौके आए जब सू ची अपने देश की सरकार के ऊपर लगे  जनसंहार के आरोपों पर सफाई देती पाई गईं. इसी कड़ी में वह खुद हेग स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में भी खुद पेश हुईं. अपनी सरकार और तात्मादव के बचाव की कवायद में वह देश की बहुसंख्यक बामार समुदाय की चहेती तो बनीं लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी और म्यांमार की छवि बहुत धूमिल हुई है.

एनएलडी को अंदाजा लग चुका है कि 2015 वाली ऐतिहासिक जीत को दुहराना बहुत मुश्किल है और इस वजह से एनएलडी ने न सिर्फ सारी सीटों पर चुनाव न लड़ने का मन बनाया है बल्कि कई अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में अल्पसंख्यक समुदाय के और मुसलमानों को भी टिकट देने पर विचार किया जा रहा है. बामार समुदाय के समर्थन से सू ची और उनकी पार्टी चुनाव तो जीत सकती है और जीतेंगी भी, लेकिन यह जीत बामार समुदाय की होगी, कचिन, शान, और चिन प्रांतों के अल्पसंख्यकों की नहीं और रखाइन प्रांत के अल्पसंख्यकों की तो बिल्कुल नहीं.

चीनी राष्ट्रपति और सू चीतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Shine Oo

भारत और चीन से रिश्ते

पिछले पांच सालों में म्यांमार ने अपने दोनों बड़े पड़ोसियों, भारत और चीन, दोनों से अच्छा सामंजस्य और संतुलन बना रखा है. भारत और चीन दोनों ने ही म्यांमार को लुभाने की कोशिशें भी जारी रखी हैं. भारत के लिए सू ची के सत्ता में बने रखने से फायदा ही है क्योंकि भारत के लिए वहां फिलहाल सत्ता की स्थिरता बना रहना सबसे जरूरी है. सीमा सुरक्षा और रक्षा मंत्रालय तात्मदाव से जुड़ी यूएसडीपी के प्रतिनिधियों के जिम्मे होने की वजह से भारत के लिए भी म्यांमार के दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखना जरूरी है और ऐसा हुआ भी है.

भारत ने म्यांमार और दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य देशों से रोड और हवाई संपर्क बनाने की कोशिशें जारी रखीं हैं. इन प्रयासों की सफलता के लिए म्यांमार में शांति, स्थिरता और समृद्धि जरूरी है. सीमा पर व्यापार और विकास का भी आपसी संबंधों को सुदृढ़ करने में योगदान है. यही वजह है कि इस हफ्ते म्यांमार में भारत के राजदूत सौरभ कुमार ने म्यांमार सरकार को भारत सरकार की तरफ से 50 लाख अमेरिकी डॉलर का चेक सौंपा है जिसे भारत-म्यांमार सीमा क्षेत्र के विकास के लिए खर्च किया जाएगा. नए चुनावों के बाद भी म्यांमार में चीन के साथ संतुलन बनाना भारत की चुनौती रहेगी.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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