म्यांमार के पश्चिमी प्रदेश रखाइन में बौद्धों और मुसलमानों के बीच हुए दंगों और लगातार जारी दमन ने दोनों समुदायों के बीच न सिर्फ विभाजन की स्थिति को बदतर किया है, बल्कि कट्टरपंथ के प्रसार को भी मौका दे दिया है.
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रखाइन प्रदेश की राजधानी सितवे एक शांत सी जगह थी, लेकिन 2012 में हुए दंगों के बाद चारों ओर सिर्फ झुलसे हुए घरों और बर्बाद की गई मस्जिदों के निशान बाकी हैं. 4,000 से ज्यादा रोहिंग्या शहर की एक मुस्लिम बस्ती में रहने के लिए मजबूर हैं. एक वक्त दोनों समुदाय के लोग उस बस्ती में एकसाथ रहा करते थे.
इस सप्ताह म्यांमार की उस घटना को आधा दशक होने जा रहा है, जब एक बौद्ध महिला की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी और मुसलमानों और बौद्धों के बीच भीषण दंगे हो गये थे. इसके बाद म्यांमार ने बांग्लादेश से आये लोगों को नागरिकता देने से इंकार कर दिया. हजारों रोहिंग्या लोगों को देश के भीतर कैद कर लिया गया और पुनर्वास कैंपों में भेज दिया गया था. उनमें से ज्यादातर लोग आज भी उन्हीं कैंपों में अपना जीवन बिता रहे हैं. इन लोगों को नहीं मालूम कि ये कभी घर लौट भी पाएंगे या नहीं.
इन लोगों में एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की है, जो आजादी से कहीं भी आ जा नहीं सकते हैं. इसके अलावा उनके पास शिक्षा और स्वास्थ्य की कोई सुविधा नहीं है. यांगोन में मानवीय मामलों को देख रहे यूएन के प्रवक्ता पियर पेरोन ने कहा कि पांच साल हो चुके हैं और बच्चों की पूरी एक पीढ़ी है, जिसने सिवाय इन कैंपों के कुछ नहीं देखा है.
2016 के अक्टूबर में रखाइन में हुई कड़ी कानूनी कार्यवाही के दौरान सेना पर सैड़कों रोहिंग्या लोगों की हत्या और बलात्कार करने के आरोप हैं. जानकारी के मुताबिक एक मुस्लिम उग्रवादी समूह के लोगों ने सेना पर हमला किया था, जिसके बाद यह मामला भड़क उठा था. अक्टूबर 2016 में तलवारों और बंदूकें लिये रोहिंग्या उग्रवादियों ने खुद को अराकान रोहिंग्या मुक्ति सेना का बताते हुए बांग्लादेश की सीमा पर सेना पर हमला कर दिया था. इस हमले में 9 लोग मारे गए थे.
वैसे तो उग्रवादी समूह खुद को जातीय-राष्ट्रवादी आंदोलनकारी बताता है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि इस समूह के नेता पाकिस्तानी तालिबान के साथ ट्रेनिंग ले चुके हैं. इंस्टीच्यूट फॉर पॉलिसी एनालिसिस ऑफ कॉन्फ्लिक्ट की एक रिपोर्ट ने इस बात के संकेत दिये हैं कि ये उग्रवादी समूह बांग्लादेश, इंडोनेशिया और मलेशिया में इस्लामिक स्टेट को बढ़ावा दे सकता है, जिसका मकसद रोहिंग्या समुदाय के लोगों को इस्लामिक स्टेट में शामिल करना हो सकता है.
बर्मा मानवाधिकार समूह के कार्यकारी निदेशक कियाव विन का कहना है कि सेना की रोहिंग्या पर कड़ी कार्यवाही ने उन्हें कट्टरपंथ की ओर धकेला है. उन्होंने कहा कि ये बस समय की बात है और वे कभी भी कोई दंगा कर सकते हैं और जब तक उग्रवादी समूह मौजूद है ये डर बना रहेगा.
एसएस/एमजे (डीपीए)
कौन हैं रोहिंग्या मुसलमान
म्यांमार के पश्चिमी रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों की आबादी लगभग दस लाख है. लेकिन उनकी जिंदगी प्रताड़ना, भेदभाव, बेबसी और मुफलिसी से ज्यादा कुछ नहीं है. आइए जानते हैं, कौन हैं रोहिंग्या लोग.
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इनका कोई देश नहीं
रोहिंग्या लोगों का कोई देश नहीं है. यानी उनके पास किसी देश की नागरिकता नहीं है. रहते वो म्यामांर में हैं, लेकिन वह उन्हें सिर्फ गैरकानूनी बांग्लादेशी प्रवासी मानता है.
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सबसे प्रताड़ित लोग
म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्ध लोगों और सुरक्षा बलों पर अक्सर रोहिंग्या मुसलमानों को प्रताड़ित करने के आरोप लगते हैं. इन लोगों के पास कोई अधिकार नहीं हैं. संयुक्त राष्ट्र उन्हें दुनिया का सबसे प्रताड़ित जातीय समूह मानता है.
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आने जाने पर भी रोक
ये लोग न तो अपनी मर्जी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकते हैं और न ही अपनी मर्जी काम कर सकते हैं. जिस जगह वे रहते हैं, उसे कभी खाली करने को कह दिया जाता है. म्यांमार में इन लोगों की कहीं सुनवाई नहीं है.
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बंगाली
ये लोग दशकों से रखाइन प्रांत में रह रहे हैं, लेकिन वहां के बौद्ध लोग इन्हें "बंगाली" कह कर दुत्कारते हैं. ये लोग जो बोली बोलते हैं, वैसी दक्षिणपूर्व बांग्लादेश के चटगांव में बोली जाती है. रोहिंग्या लोग सुन्नी मुसलमान हैं.
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जोखिम भरा सफर
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि 2012 में धार्मिक हिंसा का चक्र शुरू होने के बाद से लगभग एक लाख बीस हजार रोहिंग्या लोगों ने रखाइन छोड़ दिया है. इनमें से कई लोग समंदर में नौका डूबने से मारे गए हैं.
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सामूहिक कब्रें
मलेशिया और थाइलैंड की सीमा के नजदीक रोहिंग्या लोगों की कई सामूहिक कब्रें मिली हैं. 2015 में जब कुछ सख्ती की गई तो नावों पर सवार हजारों रोहिंग्या कई दिनों तक समंदर में फंसे रहे.
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इंसानी तस्करी
रोहिंग्या लोगों की मजबूरी का फायदा इंसानों की तस्करी करने वाले खूब उठाते हैं. ये लोग अपना सबकुछ इन्हें सौंप कर किसी सुरक्षित जगह के लिए अपनी जिंदगी जोखिम में डालने को मजबूर होते हैं.
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बांग्लादेश में आसरा
म्यांमार से लगने वाले बांग्लादेश में लगभग आठ लाख रोहिंग्या लोग रहते हैं. इनमें से ज्यादातर ऐसे हैं जो म्यांमार से जान बचाकर वहां पहुंचे हैं. बांग्लादेश में हाल में रोहिंग्याओं को एक द्वीप पर बसाने की योजना बनाई है.
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आसान नहीं शरण
बांग्लादेश कुछ ही रोहिंग्या लोगों को शरणार्थी के तौर पर मान्यता देता है. वो नाव के जरिए बांग्लादेश में घुसने की कोशिश करने वाले बहुत से रोहिंग्या लोगों को लौटा देता है.
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दर ब दर
बाग्लादेश के अलावा रोहिंग्या लोग भारत, थाईलैंड, मलेशिया और चीन जैसे देशों का भी रुख कर रहे हैं.
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सुरक्षा के लिए खतरा
म्यांमार में हुए हालिया कई हमलों में रोहिंग्या लोगों को शामिल बताया गया है. उनके खिलाफ होने वाली कार्रवाई के जवाब में सुरक्षा बलों का कहना है कि वो इस तरह के हमलों को रोकना चाहते हैं.
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मानवाधिकार समूहों की अपील
मानवाधिकार समूह म्यांमार से अपील करते हैं कि वो रोहिंग्या लोगों को नागरिकता दे और उनका दमन रोका जाए.
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कानूनी अड़चन
म्यांमार में रोहिंग्या लोगों को एक जातीय समूह के तौर पर मान्यता नहीं है. इसकी एक वजह 1982 का वो कानून भी है जिसके अनुसार नागरिकता पाने के लिए किसी भी जातीय समूह को यह साबित करना है कि वो 1823 के पहले से म्यांमार में रह रहा है.
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आलोचना
रोहिंग्या लोगों की समस्या पर लगभग खामोश रहने के लिए म्यांमार में सत्ताधारी पार्टी की नेता आंग सान सू ची की अक्सर आलोचना होती है. माना जाता है कि वो इस मुद्दे पर ताकतवर सेना से नहीं टकराना चाहती हैं. सू ची हेग को अंतरराष्ट्रीय अदालत में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार से जुड़े आरोपों का सामना करने के लिए जाना पड़ा है.