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म्यांमार में सेना और सरकार का मिलाजुला लोकतंत्र

७ अगस्त २०१८

एक समय में म्यांमार में आंग सान सू ची लोकतंत्र की सबसे बड़ी उम्मीद थीं. लंबे संघर्ष के बाद उन्हें देश की कमान मिली. लेकिन अब कहा जा रहा है कि सत्ता मिलते ही वह 30 साल पहले शुरू हुई क्रांति को भूल गई हैं.

Myanmar Aung San Suu Kyi
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/G. Amarasinghe

म्यामांर को सेना की तानाशाही से छुड़ाने का वादा करने वाली आंग सान सू ची की लड़ाई 1988 में शुरू हुई. जिमी के नेतृत्व में हजारों छात्रों और कार्यकर्ताओं ने ठीक तीस साल पहले तत्कालीन राजधानी यांगून में रैली निकाली और लोकतंत्र की स्थापना की मांग की. वे 1962 से सत्ता पर काबिज सेना को हटाना चाहते थे. लेकिन सेना के दमन के आगे उनका संघर्ष जीत नहीं पाया और अगले 22 वर्षों तक म्यांमार में सेना का ही वर्चस्व रहा. 30 वर्ष बीत जाने के बाद सू ची अब देश की काउंसलर तो बन गईं, लेकिन देश के हालात नहीं बदले. लोगों में उनके खिलाफ गुस्सा है.

हालात यह है कि 1988 में सेना के खिलाफ संघर्ष में राजनीतिक दल बनाने वाले कार्यकर्ता अब आंग सान सू ची की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के खिलाफ दल बना रहे हैं.

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1988 के संघर्षकाल की साक्षी और छात्र आंदोलन के नेता जिमी की साथी मिंट आंग 2020 के चुनाव में एनएलडी को चुनौती देंगी.

आंग का कहना है, ''हमने 2012 और 2015 में एनएलडी को इसलिए समर्थन दिया क्योंकि हमें लोकतंत्र के स्थापित होने की उम्मीद थी. लेकिन अब लोकतंत्र खतरे में दिख रहा है.''

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2015 के चुनाव में सू ची को मिली जबरदस्त जीत के बाद लोगों को लगा कि देश के हालात सुधर जाएंगे. लेकिन सू ची के आधे कार्यकाल में ही लोग उनसे निराश हो चुके हैं. देश का आर्थिक विकास धीमा है, लोगों के पास नौकरियां नहीं है और गृहयुद्ध से बिगड़ी कानून व्यवस्था ने एक बार फिर सेना को शक्ति दे दी है. म्यांमार के विशेषज्ञ बर्टिल लिंटर के मुताबिक, ''यह कहना गलत होगा कि म्यांमार में लोकतंत्र आ गया है. 2011 के बाद लोगों को कुछ अधिकार तो मिले हैं, लेकिन अब भी देश के हालात ऐसे हैं कि सेना का वर्चस्व बरकरार है.''

सू ची ने वादा किया था कि वह 2008 में बने कानून को बदलकर सेना का राजनीति में दखल बंद करेंगी. इसमें तीन मंत्रालयों और संसद की सीटों पर सेना के अधिकार को खत्म करने की बात थी. वह ऐसा करने में नाकाम रही हैं. मिंट आंग ने अपनी नई पार्टी का नाम पीपुल्स पार्टी रखा है जो इस कानून को बदलने का वादा करती है. वह कहती हैं, ''कानून में कुछ धाराएं ऐसी हैं जिन्हें 75 फीसदी का बहुमत न होने पर भी बदला जा सकता है. हम छोटे दलों से बात करके बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं.''

रोहिंग्या संकट में म्यांमार की भूमिका

1988 के संघर्षकाल में छात्र रही बो के मुताबिक, '''रखाइन प्रांत में दमन जारी है और सरकार कोई ठोस कदम उठा नहीं पाई है. 2017 में सात हजार रोहिंग्याओं की मौत हो गई. दरअसल, हम मिलेजुले लोकतंत्र में जी रहे हैं जिसमें सरकार और सेना ने सत्ता को लेकर आपसी सांठगांठ कर ली है. सेना का न सिर्फ राजनीति में बल्कि बड़ी कंपनियों और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा है. सरकार लोकतंत्र को स्थापित करने में असफल हुई है.''

वीसी/एमजे (डीपीए)

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