एक समय में म्यांमार में आंग सान सू ची लोकतंत्र की सबसे बड़ी उम्मीद थीं. लंबे संघर्ष के बाद उन्हें देश की कमान मिली. लेकिन अब कहा जा रहा है कि सत्ता मिलते ही वह 30 साल पहले शुरू हुई क्रांति को भूल गई हैं.
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म्यामांर को सेना की तानाशाही से छुड़ाने का वादा करने वाली आंग सान सू ची की लड़ाई 1988 में शुरू हुई. जिमी के नेतृत्व में हजारों छात्रों और कार्यकर्ताओं ने ठीक तीस साल पहले तत्कालीन राजधानी यांगून में रैली निकाली और लोकतंत्र की स्थापना की मांग की. वे 1962 से सत्ता पर काबिज सेना को हटाना चाहते थे. लेकिन सेना के दमन के आगे उनका संघर्ष जीत नहीं पाया और अगले 22 वर्षों तक म्यांमार में सेना का ही वर्चस्व रहा. 30 वर्ष बीत जाने के बाद सू ची अब देश की काउंसलर तो बन गईं, लेकिन देश के हालात नहीं बदले. लोगों में उनके खिलाफ गुस्सा है.
हालात यह है कि 1988 में सेना के खिलाफ संघर्ष में राजनीतिक दल बनाने वाले कार्यकर्ता अब आंग सान सू ची की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के खिलाफ दल बना रहे हैं.
1988 के संघर्षकाल की साक्षी और छात्र आंदोलन के नेता जिमी की साथी मिंट आंग 2020 के चुनाव में एनएलडी को चुनौती देंगी.
आंग का कहना है, ''हमने 2012 और 2015 में एनएलडी को इसलिए समर्थन दिया क्योंकि हमें लोकतंत्र के स्थापित होने की उम्मीद थी. लेकिन अब लोकतंत्र खतरे में दिख रहा है.''
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2015 के चुनाव में सू ची को मिली जबरदस्त जीत के बाद लोगों को लगा कि देश के हालात सुधर जाएंगे. लेकिन सू ची के आधे कार्यकाल में ही लोग उनसे निराश हो चुके हैं. देश का आर्थिक विकास धीमा है, लोगों के पास नौकरियां नहीं है और गृहयुद्ध से बिगड़ी कानून व्यवस्था ने एक बार फिर सेना को शक्ति दे दी है. म्यांमार के विशेषज्ञ बर्टिल लिंटर के मुताबिक, ''यह कहना गलत होगा कि म्यांमार में लोकतंत्र आ गया है. 2011 के बाद लोगों को कुछ अधिकार तो मिले हैं, लेकिन अब भी देश के हालात ऐसे हैं कि सेना का वर्चस्व बरकरार है.''
सू ची ने वादा किया था कि वह 2008 में बने कानून को बदलकर सेना का राजनीति में दखल बंद करेंगी. इसमें तीन मंत्रालयों और संसद की सीटों पर सेना के अधिकार को खत्म करने की बात थी. वह ऐसा करने में नाकाम रही हैं. मिंट आंग ने अपनी नई पार्टी का नाम पीपुल्स पार्टी रखा है जो इस कानून को बदलने का वादा करती है. वह कहती हैं, ''कानून में कुछ धाराएं ऐसी हैं जिन्हें 75 फीसदी का बहुमत न होने पर भी बदला जा सकता है. हम छोटे दलों से बात करके बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं.''
1988 के संघर्षकाल में छात्र रही बो के मुताबिक, '''रखाइन प्रांत में दमन जारी है और सरकार कोई ठोस कदम उठा नहीं पाई है. 2017 में सात हजार रोहिंग्याओं की मौत हो गई. दरअसल, हम मिलेजुले लोकतंत्र में जी रहे हैं जिसमें सरकार और सेना ने सत्ता को लेकर आपसी सांठगांठ कर ली है. सेना का न सिर्फ राजनीति में बल्कि बड़ी कंपनियों और प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा है. सरकार लोकतंत्र को स्थापित करने में असफल हुई है.''
वीसी/एमजे (डीपीए)
इन बेटियों ने संभाली पिता की राजनीतिक विरासत
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बाप की विरासत बेटे को मिलना आम बात है लेकिन दुनिया में ऐसी भी बेटियां उभरी जिन्होंने अपने पिता की राजनीतिक विरासत को बुलंदियों तक पहुंचाया. एक नजर दुनिया की मशहूर बाप-बेटियों पर..
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की बेटी इंदिरा को राजनीति में गूंगी गुड़िया तक कहा गया. लेकिन इंदिरा गांधी अपने नेतृत्व और राजनीतिक दांव पेंच के दम पर भारत की महिला प्रधानमंत्री बनीं.
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मीरा कुमार- जगजीवन राम
भारत के उपप्रधानमंत्री रहे बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार भारत की लोकसभा की स्पीकर रह चुकी हैं. वो 2017 में यूपीए के प्रत्याशी के रूप में राष्ट्रपति चुनाव भी लड़ चुकी हैं.
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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की बेटी प्रियंका गांधी भी राजनीति में सक्रिय हैं. वो कांग्रेस की महासचिव हैं और उत्तर प्रदेश की प्रभारी भी हैं.
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बेनजीर भुट्टो- जुल्फिकार अली भुट्टो
साल 1979 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फौजी हुकूमत ने फांसी पर चढ़ा दिया था. इसके बाद पाकिस्तान की उथलपुथल भरी सियासी विरासत को संभालते हुए बेनजीर भुट्टो ने राजनीति में प्रवेश किया और साल 1988 में देश की प्रधानमंत्री बनीं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
शेख हसीना- शेख मुजीबुर्रहमान
बांग्लादेश के पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान की उनके परिवार के अधिकतर सदस्यों के साथ साल 1975 में हत्या कर दी गयी थी. उनकी बेटी शेख हसीना बच गयीं क्योंकि वह देश से बाहर थीं. बाद में पिता की राजनीतिक विरासत को शेख हसीना ने संभाला और आज वह बांग्लादेश की प्रधानमंत्री हैं.
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आंग सान सू ची- आंग सान
म्यांमार की नेता आंग सान सू ची के पिता आंग सान को मौजूदा म्यांमार का राष्ट्रपिता माना जाता है. आंग सान सू ची ने पिता की राजनीति विरासत को संभालते हुए लोकतंत्र की पैरवी की और सैनिक शासन का लगातार विरोध करती रहीं. अब उनकी पार्टी सत्ता में है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Aung Shine Oo
मेगावती सुकर्णोपुत्री - सुकर्णो
इंडोनेशिया की पहले राष्ट्रपति सुकर्णों की बेटी मेगावती सुकर्णोपुत्री ने भी अपनी पिता की राजनीतिक विरासत को संभाला. वह साल 2001 में देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनीं. वह इंडोनेशिया के राजनीतिक दल पीडीआई-पी की प्रमुख नेता है.
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चंद्रिका कुमारतुंगा-सोलोमन भंडारनायके
साल 1994 में श्रीलंका का राष्ट्रपति पद संभालने वाली चंद्रिका कुमारतंगा ने अपने पिता की राजनीतिक विरासत को बनाये रखा. इनके पिता सोलोमन भंडारनायके देश के प्रधानमंत्री रहे. कुमारतुंगा की मां सिरीमावो भंडारनायके श्रीलंका की प्रधानमंत्री बनी और वह विश्व की पहली महिला प्रधानमंत्री भी थीं.
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इवांका ट्रंप- डॉनल्ड ट्रंप
इस सूची में सबसे युवा नाम है इवांका ट्रंप का. अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की बेटी इवांका राष्ट्रपति की वरिष्ठ सलाहकार हैं. इनके पिता राजनीति में आने से पहले एक नामी कारोबारी रहे हैं और इवांका ने भी पिता की विरासत को संभालते हुए एक नामी बिजनेसवुमन का खिताब हासिल किया है.