म्यांमार में सैन्य तख्तापलट दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन आसियान की गले की फांस बन गया है. उसे डर है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय का रोष उसके लिए भी नुकसानदेह न साबित हो.
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म्यांमार में सैन्य तख्तापलट के बाद आसियान के दस देशों की आपात बैठक बुलाई गई जिसका मकसद था म्यांमार में चल रही हिंसा पर कूटनीतिक तरीके से काबू पाना और म्यांमार की सैन्य सरकार के साथ-साथ आसियान की धूमिल होती छवि को बचाना. दरअसल 1 फरवरी को सेना द्वारा अप्रत्याशित रूप से सत्ता पर कब्जा किए जाने के बाद से ही म्यांमार अंतरराष्ट्रीय समुदाय की आलोचना का केंद्र बन गया है. म्यांमार में आम जनता का सेना के खिलाफ विरोध प्रदर्शन लगातार जारी है तो वहीं अमेरिका और पश्चिम के कुछ देश म्यांमार की सेना तात्मादाव और सैन्य सरकार के खिलाफ प्रतिबंध लगाने की कवायद में भी जुटे हैं. सैनिक शासन के खिलाफ जनता के शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में, जिसे असहयोग आंदोलन की संज्ञा दी जा रही है, तीन दर्जन से भी अधिक लोगों की पुलिस और सेना की गोलीबारी में जान जा चुकी है. निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर हुई हिंसा ने विश्व समुदाय को फिर से झकझोड़ कर रख दिया है.
ऐसा लगता है जैसे म्यांमार एक बार फिर 1990 के दशक में वापस पहुंच गया है, ऐसा म्यांमार जहां सेना ऐसी सर्वोच्च शक्ति है जिसके आगे लोकतांत्रिक व्यवस्था और आम जनता की भावनाएं कोई मायने नहीं रखतीं. म्यांमार की इस दुर्दशा के पीछे आंग सान सू ची की कमजोर राजनीतिक समझ और हद से ज्यादा शराफत ने तो नुकसान किया ही है, यह भी आश्चर्य की ही बात है कि तख्तापलट की घटना के एक महीने से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी कोई संवैधानिक प्रावधान, कोई नेता और कोई अंतरराष्ट्रीय संस्था देश के आम नागरिक की मदद नहीं कर पाई है. लोकतंत्र की लड़ाई म्यांमार की जनता को पहले भी खुद ही लड़नी पड़ी थी, और इस बार भी उसे ही यह लड़ाई लड़नी पड़ रही है.
अंदरूनी मामलों में दखल न देने की नीति
जहां तक आसियान का सवाल है, तो उसकी समस्या यह है कि बरसों से इस क्षेत्रीय संगठन की यह नीति रही है कि वह किसी भी सदस्य देश के अंदरूनी मामलों में दखल नहीं देता. आंग सान सू ची की नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) के तथाकथित लोकतांत्रिक राज में भी जब रोहिंग्या अल्पसंख्यक समुदाय और अराकान प्रदेश के तमाम लोगों पर सेना और प्रांतीय सरकार ने जम कर अत्याचार किए और लाखों लोगों को देश छोड़कर भागना पड़ा, तब भी आसियान "गैर हस्तक्षेप” की ही नीति के तहत चुप बैठा रहा. वैसे ये अलग बात है कि संगठन के तौर पर आसियान भले ही चुप रहा हो, उसके दसों देश चुप नहीं बैठे रहे. रोहिंग्या के मुद्दे पर मलेशिया और इंडोनेशिया ने जम कर आवाज उठाई. लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. उल्टे फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतैर्ते तो सू ची की पीठ थपथपाने के कगार तक तक पहुंच गए थे.
ऐसा नहीं है कि आसियान को यह लगाव सिर्फ म्यांमार के साथ ही है. लगभग छः साल पहले 22 मई 2014 को जब थाईलैंड में सेना ने सेना प्रमुख प्रयुथ चान ओ-चा के नेतृत्व में सत्ता पर कब्जा जमाया तब भी आसियान चुप था. इसी तरह के एक दर्जन मामले और गिनाए जा सकते हैं जब आसियान अपनी मौन रहने की प्रतिज्ञा पर टिका रहा. और यही कारण है कि दक्षिणपूर्व एशिया के किसी भी जानकार को इस बार भी आसियान की यह चुप्पी ना अप्रत्याशित लगी और न ही चौंकाने वाली. अपनी ताजा बैठक में भी आशा के अनुरूप आसियान ने म्यांमार के हालात पर चिंता जताई और देश में अमन और चैन कायम करने की गुहार लगाई और बैठक के बाद अपने-अपने देश में नेताओं ने म्यांमार को जम कर कोसा.
म्यांमार में दमन का कुचक्र
एक फरवरी 2021 को म्यांमार में सेना द्वारा तख्ता पलट देने और सत्ता हथिया लेने के बाद वहां लगातार नागरिकों के अधिकारों का दमन हो रहा है. तीन मार्च को एक ही दिन में सुरक्षाबलों की फायरिंग में 38 प्रदर्शनकारी मारे गए.
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हिंसा का दौर
तख्तापलट के बाद से ही लोग लोकतंत्र की बहाली की मांग कर रहे हैं और देश के कई हिस्सों में प्रदर्शन आयोजित कर रहे हैं. सेना और पुलिस प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सख्ती से पेश आ रहे हैं, जिसकी वजह से देश में हिंसा का दौर थम ही नहीं रहा है. तीन मार्च को सुरक्षाबलों की फायरिंग में 38 लोग मारे गए.
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बढ़ते जनाजे
इन 38 लोगों को मिला कर अभी तक कम से कम 50 प्रदर्शनकारियों की जान जा चुकी है. यह तस्वीर 19 साल की क्याल सिन के शव की अंतिम यात्रा की है. वो तीन मार्च को मैंडले में सेना के खिलाफ प्रदर्शन कर रही थीं जब सुरक्षाबलों ने गोलियां चला दीं. उन्हें सिर में गोली लगी और उनकी मौत हो गई.
तस्वीर: REUTERS
बल का प्रयोग
प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए पुलिस ने पहले आंसू गैस का भी इस्तेमाल किया. सुरक्षाबल लगातार आंसू गैस, रबड़ की गोलियां, ध्वनि बम जैसे हथकंडों का इस्तेमाल कर रही है. प्रदर्शन शांत ना होने पर गोली चला दी जा रही है.
तस्वीर: Aung Kyaw Htet/ZumaWire/Imago Images
बचने के तरीके
प्रदर्शनकारियों को अपनी सुरक्षा का इंतजाम भी करना पड़ रहा है. आंखों को ढकने के लिए बड़े बड़े चश्मे, हेलमेट और ढालों का इस्तेमाल किया जा रहा है.
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नाकामयाब कोशिशें
प्रदर्शनकारी भी खुद को बचाने के लिए धुंआ छोड़ रहे हैं लेकिन धुंआ और किसी तरह से बनाए हुए बैरिकेड भी उन्हें पुलिस की गोलियों से बचा नहीं पा रहे हैं.
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मीडिया पर हमले
गिरफ्तारियों का सिलसिला भी लगातार चल रहा है और प्रदर्शनकारियों के अलावा पुलिस पत्रकारों को भी गिरफ्तार कर रही है. प्रदर्शनों पर खबर कर रहे एसोसिएटेड प्रेस के थेइन जौ और पांच और पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया गया है. उन्हें तीन साल तक की जेल हो सकती है.
तस्वीर: Thein Zaw family/AP/picture alliance
सू ची की छाया
प्रदर्शनकारियों में से कई म्यांमार की नेता आंग सान सू ची के समर्थक हैं, जिन्हें सेना ने पहले ही गिरफ्तार कर लिया था. प्रदर्शनों में सू ची की रिहाई और लोकतंत्र की बहाली की मांग उठ रही है.
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आसियान पर विश्व समुदाय का बढ़ता दबाव
इंडोनेशिया इस मामले में अभी भी बीच का और सबको मान्य रास्ता निकालने की कोशिश में लगा है. लेकिन अब आसियान पर भी अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ रहा है. दुनिया के तमाम देशों, खास तौर से अमेरिका और पश्चिम के देशों की उम्मीद है कि आसियान को कुछ कड़े कदम उठाने चाहिए. आसियान के अंदर भी म्यांमार में तख्तापलट के खिलाफ विरोध की आवाजें मुखर हो रही हैं. तो क्या आसियान के पास कोई रास्ता नहीं है? ऐसा नहीं है.
आसियान के पास रास्ते तो कई हैं. पहला तो यही है कि आसियान के देश म्यांमार की सेना और उससे जुड़ी कंपनियों के साथ व्यापार और निवेश सम्बंधी ताल्लुकात खतम कर लें. आसियान म्यांमार पर आर्थिक और कूटनीतिक प्रतिबंध भी लगा सकता है. लेकिन सच्चाई यह है कि इनमें से किसी भी कदम का म्यांमार पर बहुत बड़ा असर नहीं पड़ेगा. आसियान का म्यांमार पर प्रभाव बहुत ज्यादा नहीं है और दंडात्मक कार्यवाई करने के मामले में तो यह प्रभाव न के बराबर है. हां, संयुक्त राष्ट्र संघ, आसियान और ऐसी ही दूसरी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में आसियान के देश म्यांमार को कूटनीतिक तौर पर कमजोर करने की कोशिश कर सकते हैं लेकिन यह म्यांमार की सैन्य सत्ता को डिगा पाएगा ऐसा नहीं है.
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म्यांमार की सेना के समर्थक
इस संदर्भ में म्यांमार की सेना का यह कथन महत्वपूर्ण है कि वह किसी भी तरह के प्रतिबंध झेलने के लिए तैयार है. सेना ने यह भी कहा कि अतीत में भी म्यांमार ने इस तरह की परिस्थितियों को झेला है और उसे बहुत कम और भरोसेमंद दोस्तों के साथ काम चलाने की आदत है. साफ है, म्यांमार की सैन्य तानाशाही को बखूबी पता है कि चीन उसका साथ नहीं छोड़ेगा. पड़ोस के थाईलैंड में जमी प्रयुथ की सरकार भी तात्मादाव का साथ देती रहेगी. दोनों सेनाओं के बीच बहुत गहरे संबंध हैं. चाहे अनचाहे भारत भी म्यांमार के ही साथ खड़ा दिखेगा यह भी लगभग तय ही है.
जो भी हो, म्यांमार में बिन बुलाए इस तख्तापलट ने आसियान को मुश्किल में तो डाल ही दिया है. हस्तक्षेप करें या नहीं, यह उलझन आसियान और उसके सदस्य देशों को आने वाले समय में काफी उलझा कर रखने वाली है. ऐसे में आसियान देश अपने व्यापारिक हितों और क्षेत्रीय एकता को वरीयता देते हैं या मानवीय मूल्यों और लोकतंत्र को, यह देखना दिलचस्प होगा.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
म्यांमार फिर एक बार सैन्य तख्तापलट की वजह से सुर्खियों में है. 20वीं सदी का इतिहास तो सत्ता की खींचतान और तख्तापलट की घटनाओं से भरा हुआ है, लेकिन 21वीं सदी में भी कई देशों ने ताकत के दम पर रातों रात सत्ता बदलते देखी है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/F. Vergara
म्यांमार
म्यांमार की सेना ने आंग सान सू ची को हिरासत में लेकर फिर एक बार देश की सत्ता की बाडगोर संभाली है. 2020 में हुए आम चुनावों में सू ची की एनएलडी पार्टी ने 83 प्रतिशत मतों के साथ भारी जीत हासिल की. लेकिन सेना ने चुनावों में धांधली का आरोप लगाया. देश में लोकतंत्र की उम्मीदें फिर दम तोड़ती दिख रही हैं.
तस्वीर: Sakchai Lalit/AP/picture alliance
माली
पश्चिमी अफ्रीकी देश माली में 18 अगस्त 2020 को सेना के कुछ गुटों ने बगावत कर दी. राष्ट्रपति इब्राहिम बोउबाखर कीटा समेत कई सरकारी अधिकारी हिरासत में ले लिए गए और सरकार को भंग कर दिया गया. 2020 के तख्तापलट के आठ साल पहले 2012 में माली ने एक और तख्तापलट झेला था.
तस्वीर: Reuters/M. Keita
मिस्र
2011 की क्रांति के बाद देश में हुए पहले स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के बाद राष्ट्रपति के तौर पर मोहम्मद मुर्सी ने सत्ता संभाली थी. लेकिन 2013 में सरकार विरोधी प्रदर्शनों का फायदा उठाकर देश के सेना प्रमुख जनरल अब्देल फतह अल सिसी ने सरकार का तख्तापलट कर सत्ता हथिया ली. तब से वही मिस्र के राष्ट्रपति हैं.
तस्वीर: Reuters
मॉरिटानिया
पश्चिमी अफ्रीकी देश मॉरिटानिया में 6 अगस्त 2008 को सेना ने राष्ट्रपति सिदी उल्द चेख अब्दल्लाही (तस्वीर में) को सत्ता से बेदखल कर देश की कमान अपने हाथ में ले ली. इससे ठीक तीन साल पहले भी देश ने एक तख्तापलट देखा था जब लंबे समय से सत्ता में रहे तानाशाह मोओया उल्द सिदअहमद ताया को सेना ने हटा दिया.
तस्वीर: Issouf Sanogo/AFP
गिनी
पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी में लंबे समय तक राष्ट्रपति रहे लांसाना कोंते की 2008 में मौत के बाद सेना ने सत्ता अपने हाथ में ले ली. कैप्टन मूसा दादिस कामरा (फोटो में) ने कहा कि वह नए राष्ट्रपति चुनाव होने तक दो साल के लिए सत्ता संभाल रहे हैं. वह अपनी बात कायम भी रहे और 2010 के चुनाव में अल्फा कोंडे के जीतने के बाद सत्ता से हट गए.
तस्वीर: AP
थाईलैंड
थाईलैंड में सेना ने 19 सितंबर 2006 को थकसिन शिनावात्रा की सरकार का तख्तापलट किया. 23 दिसंबर 2007 को देश में आम चुनाव हुए लेकिन शिनावात्रा की पार्टी को चुनावों में हिस्सा नहीं लेने दिया गया. लेकिन जनता में उनके लिए समर्थन था. 2001 में उनकी बहन इंगलक शिनावात्रा थाईलैंड की प्रधानमंत्री बनी. 2014 में फिर थाईलैंड में सेना ने तख्तापलट किया.
तस्वीर: AP
फिजी
दक्षिणी प्रशांत महासागर में बसे छोटे से देश फिजी ने बीते दो दशकों में कई बार तख्तापलट झेला है. आखिरी बार 2006 में ऐसा हुआ था. फिजी में रहने वाले मूल निवासियों और वहां जाकर बसे भारतीय मूल के लोगों के बीच सत्ता की खींचतान रहती है. धर्म भी एक अहम भूमिका अदा करता है.
तस्वीर: Getty Images/P. Walter
हैती
कैरेबियन देश हैती में फरवरी 2004 को हुए तख्तापलट ने देश को ऐसे राजनीतिक संकट में धकेल दिया जो कई हफ्तों तक चला. इसका नतीजा यह निकला कि राष्ट्रपति जाँ बेत्रां एरिस्टीड अपना दूसरा कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और फिर राष्ट्रपति के तौर पर बोनीफेस अलेक्सांद्रे ने सत्ता संभाली.
तस्वीर: Erika SatelicesAFP/Getty Images
गिनी बिसाऊ
पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी बिसाऊ में 14 सितंबर 2003 को रक्तहीन तख्तापलट हुआ, जब जनरल वासीमो कोरेया सीब्रा ने राष्ट्रपति कुंबा लाले को सत्ता से बेदखल कर दिया. सीब्रा ने कहा कि लाले की सरकार देश के सामने मौजूद आर्थिक संकट, राजनीतिक अस्थिरता और बकाया वेतन को लेकर सेना में मौजूद असंतोष से नहीं निपट सकती है, इसलिए वे सत्ता संभाल रहे हैं.
तस्वीर: AFP/Getty Images
सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक
मार्च 2003 की बात है. मध्य अफ्रीकी देश सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक के राष्ट्रपति एंगे फेलिक्स पाटासे नाइजर के दौरे पर थे. लेकिन जनरल फ्रांसुआ बोजिजे ने संविधान को निलंबित कर सत्ता की बाडगोर अपने हाथ में ले ली. वापस लौटते हुए जब बागियों ने राष्ट्रपति पाटासे के विमान पर गोलियां दागने की कोशिश की तो उन्होंने पड़ोसी देश कैमरून का रुख किया.
तस्वीर: Camille Laffont/AFP/Getty Images
इक्वाडोर
लैटिन अमेरिकी देश इक्वोडोर में 21 जनवरी 2000 को राष्ट्रपति जमील माहौद का तख्लापलट हुआ और उपराष्ट्रपति गुस्तावो नोबोआ ने उनका स्थान लिया. सेना और राजनेताओं के गठजोड़ ने इस कार्रवाई को अंजाम दिया. लेकिन आखिरकर यह गठबंधन नाकाम रहा. वरिष्ठ सैन्य नेताओं ने उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनाने का विरोध किया और तख्तापलट करने के वाले कई नेता जेल भेजे गए.