डॉयचे वेले के मुख्य संपादक अलेक्जांडर कुदाशेफ का कहना है कि यूरोप को यहूदी विरोधी भावना खत्म करने के लिए एकजुट होना होगा तभी पेरिस और कोपनहेगन जैसे हमले रुक सकेंगे.
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इस्लामी आतंकवाद ने यूरोप को दहशत में जकड़ रखा है. इसी साल पहले फ्रांस और अब डेनमार्क. लोग पूछने लगे हैं कि आतंकवादियों का अगला निशाना क्या होगा. इस पर किसी को शक नहीं है कि वे फिर से हमला करेंगे. लेकिन आतंकवाद के खतरे के डर ने राजनीतिक सोच पर बुरा असर नहीं डाला है. यूरोप अडिग खड़ा है, वह घुटनों के बल गिरने को, अपने मूल्यों को त्यागने को तैयार नहीं है. वह एक स्वतंत्र समाज में विश्वास रखता है जहां अभिव्यक्ति की आजादी है.
आतंकवाद के निशाने पर हम सब हैं. पर सबसे बढ़कर हैं यूरोप में रहने वाले यहूदी. जनवरी में सोच समझ कर पेरिस में यहूदियों के एक सुपरमार्केट को निशाना बनाया गया और अब कोपनहेगन में एक यहूदी उपासनागृह को. सालों से यूरोप भर में यहूदियों के कब्रिस्तान पर हमले होते रहे हैं, खास तौर से फ्रांस में. पिछले सप्ताहांत भी ऐसा ही कर उनका अपमान किया गया. कई लोग इसे एक छोटी सी खबर समझ कर नजरअंदाज कर देंगे. लेकिन यहां इस ओर ध्यान दिलाना जरूरी है कि उपद्रवी मरने के बाद भी लोगों को शांति से नहीं रहने दे रहे और ऐसा कर वे परिवारों और जानने वालों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं. वे उनकी यादों को कलंकित कर रहे हैं और यह घृणित है, चाहे ऐसा करने वाले उग्रदक्षिणपंथी हों या फिर इस्लाम कट्टरपंथी.
वक्त आ गया है कि यूरोप इस बात को समझे कि उसके पास केवल एक यहूदी अतीत ही नहीं है, बल्कि यहूदी वर्तमान भी है. यूरोप के इतिहास में अलबर्ट आइंस्टाइन और मोसेस मेंदेल्ससोन जैसे महान यहूदियों के नाम भी हैं और यहूदी विरोधी लंबा इतिहास भी है जो हजारों सालों तक इस महाद्वीप पर छाया रहा, फिर चाहे वह इंग्लैंड और फ्रांस में हुए धर्मयुद्ध हों, 1492 में स्पेन से यहूदियों का निकाला जाना या फिर नाजी जर्मनी में हुआ यहूदियों का नरसंहार.
यूरोप में यहूदियों का इतिहास उत्पीड़न, भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार और हत्याओं का इतिहास रहा है. इसीलिए यूरोपवासियों को अब यहूदियों के साथ खड़ा होना होगा. अगर वे चाहते हैं कि यहूदी महाद्वीप छोड़ कर ना जाएं तो यूरोप के लोगों को उनकी ढाल बनना होगा. यूरोप में रहने वाले करीब बीस लाख यहूदियों में से तीस हजार हर साल इस्राएल जा रहे हैं. लेकिन ऐसे लोगों की कोई गिनती नहीं है जो चुपचाप अमेरिका और कनाडा जाते जा रहे हैं. यह चेतावनी का संकेत है.
इस्लामी आतंकवाद के खौफ के बावजूद यूरोप समझदारी से पेश आ रहा है. कानून में कोई बदलाव नहीं किए गए हैं और ना ही लोगों में किसी तरह का पागलपन है. एक अनदेखे खतरे ने समाज को स्तब्ध नहीं कर दिया है, कम से कम अभी तक तो नहीं. लेकिन यूरोप और यूरोपवासियों को यहूदी विरोधी विचारधारा के खिलाफ इस लड़ाई में और सक्रिय होना होगा. उन्हें यहूदियों को यह विश्वास दिलाना होगा कि वे उनके साथ खड़े हैं.
यह अपने आप में एक शर्मनाक बात है कि कई लोगों को यहूदियों के स्कूलों, किंडरगार्टन और सिनेगॉग के बाहर पुलिस और सुरक्षाकर्मियों को देखने की आदत पड़ गयी है. राजनीतिक तौर पर भी यह हैरान करने वाला है कि इस्राएल की निंदा करने का मतलब लोग यहूदियों के खिलाफ आवाज उठाना समझ लेते हैं. यूरोप और हर एक यूरोपवासी को इसके खिलाफ खड़ा होना होगा. केवल रैलियों में ही नहीं, रोजमर्रा की जिंदगी में भी. बाइबिल में भी लिखा है कि अगर तुम्हारे पड़ोसी की जिंदगी खतरे में है, तो यूं ही खड़े मत रहो. हमें अब चुपचाप खड़े नहीं रहना है, बल्कि इसके खिलाफ आवाज उठानी है.
होलोकॉस्ट की भयावहता को दर्शाती कला
होलोकॉस्ट के वक्त जीना एक सतत संघर्ष था. कितने ही लोग यातना शिविरों में सताए गए और कितने ही इसके डर से छिप कर जीवन जीने को मजबूर थे. अंडरग्राउंड जीवन बिताते हुए कुछ लोगों ने उन बुरी यादों को कला के रूप में उकेरा.
तस्वीर: Staatliches Museum Auschwitz-Birkenau in Oœwiêcim
भूले बिसरे कलाकार
नाजियों द्वारा यातना शिविरों में डाले गए कई कलाकार विश्व प्रसिद्ध हुए. वहीं यातना शिविर में रहते हुए पेंटिंग करने वाले वाल्डेमार नोवाकोव्स्की (तस्वीर में) जैसे कई कलाकार विस्मृत भी हो गए. ऐसे ही गुनाम रहे कई कलाकरों की कृतियां 27 जनवरी 2015 से जर्मन संसद में शुरु हुई प्रदर्शनी का हिस्सा बनी हैं.
तस्वीर: Staatliches Museum Auschwitz-Birkenau in Oœwiêcim
खौफ को उकेरते
लेखक, क्यूरेटर और इतिहासकार युर्गेन काउमकोएटर ने करीब 15 साल तक होलोकॉस्ट आर्ट पर शोध किया. उनका ध्यान केवल पेंटिंग पर ही नहीं, बल्कि कला के ऐसे किसी भी रूप पर था जिससे उस काल की घटनाओं के बारे में पता चलता हो. लियो हास की उकेरी हुई इस कलाकृति में 1947 के थेरेसिएनश्टाट यातना शिविर की एक तस्वीर दिखती है.
तस्वीर: Bürgerstiftung für verfolgte Künste – Else-Lasker-Schüler- Zentrum – Kunstsammlung Gerhard Schneider
'कैंप म्यूजियम' के लिए पेंटिंग
थेरेसिएनश्टाट में कलाकारों का अपना 'कैंप म्यूजियम' हुआ करता था. थेरेसिएनश्टाट कैंप में कलाकारों को पेंसिलें, ब्रश और कागज दिए जाते थे, जिससे वे नाजियों से मिला काम पूरा कर सकें. बाकि कृतियां वे छिप कर बनाया करते थे. तस्वीर में देखें, 1943-44 के बीच मारियान रुत्सामस्की की बनाई एक सेल्फ पोर्ट्रेट.
तस्वीर: Staatliches Museum Auschwitz-Birkenau in Oœwiêcim
गवाह थे जो कलाकार
येहूदा बाकन (तस्वीर में दाएं) 1942 में केवल 13 साल की उम्र में थेरेसिएनश्टाट कैंप पहुंचे. दिसंबर 1943 में उन्हें आउशवित्स-बिरकेनाउ भेजा गया, जहां उन्हें एक मेसेंजर का काम दिया गया. इसके अलावा उन्हें जाड़ों में शवदाहगृह की भठ्ठी से खुद को गर्म रखने की अनुमति मिली थी. युद्ध के बाद अपनी कई तस्वीरों में उन्होंने अपने आंखों देखें दृश्यों का ब्यौरा दिया.
तस्वीर: Bürgerstiftung für verfolgte Künste – Else- Lasker-Schüler-Zentrum – Kunstsammlung Gerhard Schneider
मौत का प्रतीक
येहूदा बाकन की कई कृतियों में आउशवित्स को साफ साफ नहीं दिखाया गया. फिर भी शवदाहगृह की चौकोर चिमनियों और लोगों की छाया देखकर समझा जा सकता था कि उन्होंने किस खूबी से गैस चैंबर में मारे गए लोगों की कहानी कही है.
तस्वीर: Yehuda Bacon
दूसरी पीढ़ी
मिषेल किषका इस्राएल के एक प्रभावशाली कॉमिक इलस्ट्रेटर हैं. अपने 'दूसरी पीढ़ी' नाम के एक ग्राफिक उपन्यास में उन्होंने आउशवित्स के पीड़ित अपने पिता के साथ अपने संबंधों का ब्यौरा दिया है. बचपन से ही उन्हें पिता के झेले दर्दनाक अनुभव जानकर काफी सदमा लगा था. पिता ने ही बाद में शिविर के बारे में हल्की फुल्की बातें कर किषका की दहशत को कम करने की कोशिश की.
तस्वीर: Egmont Graphic Novel
होलोकॉस्ट के कई रूपक
इस्राएली कलाकार सिगालिट लांडाउ के माता पिता होलोकॉस्ट से बचकर निकलने वालों में से थे. आउशवित्स में लंबा समय बिताने वाले येहूदा बाकन उनके कला शिक्षक थे. लांडाउ आज भी एक कलाकार और प्रोफेसर के रूप में इस्राएल में काफी सक्रिय जीवन बिता रही हैं. उनकी कला में रूपकों का काफी महत्व है. जैसे कि यहां दिख रहे जूते जो कि आउशवित्स की स्थाई प्रदर्शनी में दिखाए गए जूतों के ढेर वाली कृति से प्रेरित हैं.
तस्वीर: Sigalit Landau
मौत के साथ सब खत्म नहीं होता
सिगालिट लांडाउ ने इस्राएल से सैकड़ों जूते इकट्ठे किए और फिर उन्हें डेड सी में डुबो कर रखा. डेड सी में जूतों के ऊपर नमक की कई पर्तें जम गईं जो कि मौत के बाद जीवन का एक रूपक है. इस कृति से वह यही संदेश देना चाहती हैं कि हताशा को पार कर उम्मीद का दामन पकड़ना चाहिए.