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युद्ध के 50 साल बाद का तवांग

५ अक्टूबर २०१२

3000 मीटर ऊंचाई पर बसे तवांग में मुश्किल से 10,000 लोग रहते हैं. शहर भारत चीन सीमा से 40 किलोमीटर दूर है और बौद्ध मठ के लिए जाना जाता था, 50 साल पहले तक.

तस्वीर: DW

हिमालय की खूबसूरत वादियों वाले इस शहर में आम तौर पर बौद्ध मठ के मंत्रोच्चार सुनाई देते हैं. लेकिन एक सुबह अचानक यह घाटी गोलियों की आवाज से गूंज उठा. चीन की सेना ने मैकमोहन रेखा पार कर भारत पर हमला बोल दिया और कई हिस्सों पर कब्जा जमा लिया. 20 अक्तूबर 1962 में शुरू हुई लड़ाई महीने भर तक चली. इसके बाद चीन ने युद्धविराम का एलान किया और अपनी सेनाओं को भी वापस बुला लिया.

परेशान करने वाली यादें

सांगे सेरिंग को 75 साल की उम्र में भी युद्ध की मुश्किल बातें याद हैं. तब वे कोई 25 साल के जवान हुआ करते थे, "तवांग शहर पर चीन की सेना पूरी तरह हावी हो गई, जैसे अनाज के खेत पर चिड़िया. दोनों तरफ के कई सैनिक मारे गए. गांववाले डर के मारे जंगलों में छिप हए. उन्होंने गुफाओं में और बड़े पेड़ों के नीचे पनाह ली. मैं भगवान से विनती करता हूं कि ऐसा भविष्य में कभी न हो और वह हमारी रक्षा करे."

15 अगस्त और एक अक्तूबर को भारतीय और चीनी सेना सीमा पर स्वतंत्रता दिवस मनाती हैंतस्वीर: DW

"चीन के सैनिकों ने हमें चारों ओर से घेर लिया और चारों दिशाओं से गोलियां चल रही थीं. भारतीय सेना की छोटी सी पलटन भी हैरान रह गई और गोलियों का जवाब दिया. फिर अचानक कहीं से एक गोली मेरी हथेली पर लगी और मैं बेहोश हो गया", ताशी गोंबू का यह अनुभव शहर के आर्काइव में रिकॉर्ड कर लिया गया. 2004 में गोंबू की मौत के बाद अब भी उनके बयान सुने जा सकते हैं. गोंबू युद्ध कैदी के रूप में चीन ले जाए गए और उन्हें कुछ सालों बाद छोड़ दिया गया, लेकिन इस अनुभव ने उनके दिल में एक गहरा सदमा छोड़ा, "जब मुझे होश आया तो लड़ाई का मैदान खाली था. मेरे साथी सैनिक मारे जा चुके थे. मैं जल्दी में उठ खड़ा हुआ लेकिन फिर मैंने देखा कि चीनी सैनिक अपने बंदूकों से भारतीय सैनिकों के शवों को छेड़ रहे हैं."

तवांग में रहने वाले बुजुर्गों के लिए 50 साल बाद भी युद्ध की यादों ने पीछा नहीं छोड़ा है और वे उसे याद करके सहम जाते हैं.

अद्भुत संस्कृति

तवांग जिले में मोनपा समुदाय के लोग रहते हैं. यह बौद्ध धर्म में महायान को मानते हैं और अपनी संस्कृति और इतिहास पर गर्व करते हैं. राज्य कला और संस्कृति विभाग के उप निदेशक केशांग धोंधुप कहते हैं कि तवांग के इस खास इलाके को मोन्युल कहते हैं, "इस इलाके के लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं. वे गायों को चराते हैं या खेती करते हैं. वे प्राकृतिक तरीकों से खेती बाड़ी करते हैं और कागज भी बनाते हैं. लकड़ी की मूर्तियां और कालीन बनाना मोनपा के लोगों की विरासत का हिस्सा है."

तवांग के मशहूर बौद्ध मठ में युवा लामाओं को शिक्षा भी दी जाती हैतस्वीर: DW

मठ का आकर्षण

हाल के दिनों में तवांग में आ रहे हजारों सैलानी इस बात के सबूत हैं कि युद्ध के घाव भरे रहे हैं. यहां का मठ भारत का सबसे बड़ा बौद्ध मठ है और पूरी दुनिया में बौद्ध धर्म के सबसे बड़े शैक्षिक संस्थानों में शामिल है. यहां करीब 450 भिक्षु रहते हैं. मठ के गुरु ग्यालसे रिंपोचे कहते हैं, "इस मठ को तवांग ज्ञानदेन नामग्याल ग्यात्से कहा जाता है. इसका मतलब है खुले आसमान में दिव्य जन्नत."

इस मठ की स्थापना 1680 में मेरग लामा लोदरे ग्यात्सो ने की. 1959 तक इस जगह पर 600 भिक्षु रह चुके थे. रिंपोचे कहते हैं, "आजकल हम आधुनिक शिक्षा के साथ साथ योग और पारंपरिक चीजें भी सिखाते हैं." 1959 तक तिब्बत की राजधानी ल्हासा से मठ के प्रमुखों को चुना जाता था लेकिन उसके बाद तवांग के ही लामा यहां के प्रमुख बनते हैं. 2009 में दलाई लामा मठ आए और उस वक्त 30,000 लोग उनका प्रवचन सुनने जमा हुए.

शहर के मुख्य बाजार में गांव वाले अपने उप्पादों को बेचते और खरीदते हैंतस्वीर: DW

आगे की सोच

1962 के घाव अब भर चुके हैं. तवांग शहर में जिंदगी किसी भी आम भारतीय शहर जैसी है. यहां लगभग एक लाख 80 हजार भारतीय सैनिक तैनात हैं. तवांग में केवल 10,000 लोग रहते हैं लेकिन सुरक्षा देखते हुए अब यह भी पक्के घर बनवा रहे हैं. भारतीय सेना ने ऊंचाई पर फौजी ट्रेनिंग के लिए खास अकादमी खोल दी है. इससे लोगों में विश्वास बढ़ा है और सुरक्षा की भावना भी बढ़ी है.

तवांग में रह रहे सोनम सेरिंग कहते हैं, "अब मैं बिलकुल इस बात पर विश्वास करता हूं कि कुछ नहीं होने वाला क्योंकि कई लोग घर बनवाने पर पैसा खर्च रहे हैं. सब लोग घर बनवा रहे हैं और हमें यहां के सैनिकों पर पूरा विश्वास है."

रिपोर्टः लोहित डेका/एमजी

संपादनः अनवर जे अशरफ

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