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साहित्य

युरेक बेकरः झूठा याकोब ( याकोब द लायर )

सबीने पेशेल
८ जनवरी २०१९

जीवन का अमृत है उम्मीद. पोलैंड की एक यहूदी बस्ती पर केंद्रित युरेक बेकर का उपन्यास दिलचस्प और अवसादपूर्ण है लेकिन हास्य से भी भरा है. यहूदियों की तबाही की ये दास्तान उससे कहीं अधिक भी है.

Filmstill Jakob der Lügner
तस्वीर: picture-alliance/KPA

क्या आउशवित्स के बारे में लिखना मुमकिन है? ये विवादास्पद सवाल न सिर्फ जर्मनी में बल्कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में बार बार पूछा जाता रहा है. उपन्यासों और कहानियों, आत्मकथाओं, कविताओं के जरिए बहुत बार इसका जवाब दिया भी जा चुका है. इतालवी-यहूदी लेखक प्रिमो लेवी कृत "क्या ये आदमी है?” (इज़ दिस अ मैन?) या यहूदी मूल के हंगरेयिन लेखक इम्रे कैरतेश का लिखा "भाग्यहीनता” (फेटलेसनेस) ऐसे सिर्फ दो उदाहरण हैं. स्तब्धकारी और सच्ची, दोनों किताबें विश्व साहित्य की क्लासिक मानी जाती हैं.

आतंक के साए में साहित्य की रचना

दूसरे विश्व युद्ध के खात्मे के बाद, कई जर्मन-भाषी लेखकों ने नाजियों के अपराधों और यहूदियों पर अत्याचार यानी हॉलोकॉस्ट के बारे में लिखा था. 1969 में प्रकाशित बेकर का उपन्यास, बिला शक 1933 से 1945 के दौर से टकराने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण रचनाओं में एक है. ये किताब एक महान साहित्य तो है ही, ऐतिहासिक अपराध का एक साहित्यिक दस्तावेज भी है.

"सैकड़ों बार मैंने इस उजड़ी हुई दास्तान को कहने की कोशिश की है, लेकिन विफल रहा,” उपन्यास का अनाम, प्रथम पुरुष सूत्रधार शुरू में ही ये बात कहता है. और इस तरह खुलने लगती है सूत्रधार की निजी दास्तान. कई साल बाद, 1967 में, सूत्रधार पोलैंड की एक यहूदी बस्ती की घटनाओं को याद करता है जहां यहूदियों को पशुओं की तरह बाड़ों में रखा गया था और जहां, कुछ हफ्तों के लिए, "झूठा याकोब” (याकोब द लायर), उस घेटो के हताश यहूदियों के लिए उम्मीद का स्रोत बन जाता है. 

यूरेक बेकरतस्वीर: Imago/United Archives

मनगढ़ंत किस्सों से जगती उम्मीद

हताशा के एक पल में, याकोब एक मित्र को बताता है कि उसके पास एक रेडियो है और उसने सुना है कि रूसी फौज बस कुछ किलोमीटर दूर हैं. क्या घेटो मुक्ति से बस कुछ क्षण ही दूर है? ये समाचार जंगल की आग की तरह फैल जाता है. लोग उम्मीद से भर उठते हैं और उनमें जीने की नई चाहत आ जाती है. जहां तक याकोब की बात है, खुश कर देने वाली सूचनाओं के वाहक के रूप में अपनी भूमिका उसे बोझ लगने लगती है. लोगों में "सिर्फ” उम्मीद बनाए रखने के लिए, क्या वो अपने दोस्तों से झूठ बोलता रहेगा और गलत खबर फैलाना जारी रखेगा?

इसका जवाब हमेशा उतना आसान नहीं होता. लेकिन एक खास दृश्य में इसका जवाब आता है. याकोब अपने दोस्त कोवाल्स्की के सामने स्वीकार करता है कि उसके पास वास्तव में कोई रेडियो नहीं है. ये सुनकर कोवाल्स्की आत्महत्या कर लेता है.

"…..संताप से घिरा एक झूठा शख्स हमेशा अनाड़ी ही रहेगा.” इस तरह की हरकत में, संयम और फर्जी शराफत नामुनासिब होती है, तुम्हें तो अपना काम हर हाल में पूरा करना होगा, तुम्हें अपना इरादा बहुत पक्का करना होगा, तुम्हें उस शख्स जैसा बर्ताव करना होगा, जो पहले से इस बात को जानता है कि लोग अगले ही पल उससे क्या सुनने वाले हैं.”

युरेक बेकर का उपन्यास अपने में कई चीजें समेटे हुए है. ये अवसाद और उदासी से भरा हुआ है. लेकिन यहूदी दास्तानगोई की शैली में एक निराश हास्य से भी ओतप्रोत है. उपन्यास पूछता है कि संकटों के दौर में क्या सही है और क्या गलत है. 1969 में जब उपन्यास प्रकाशित हुआ था तो उस समय किसी ने "फेक न्यूज” के बारे में बात करना शुरू भी नहीं किया था.

सबसे बढ़कर, "याकोब द लायर" एक ऐसी किताब है जो उपयुक्त सवाल पूछने का माद्दा रखती है और साहित्य और कविता की ताकत दिखाती हैः "हम लोग थोड़ी देर गप करेंगे, आत्म-सम्मान वाली किसी कहानी की तरह. मुझे आप मेरी थोड़ी सी खुशी प्रदान करें, बिना छोटे से गप के हर चीज कितनी उदास और सूनी होती है.”

युरेक बेकरः "याकोब द लायर” प्लूम पेंग्विन बुक्स (जर्मन शीर्षकः याकोब डेयर ल्युगनर), 1969

युरेक बेकर का जन्म 1937 में पोलैंड के लोज शहर में यहूदी परिवार में येरजी बेकर के रूप में हुआ था. वो शहर की गंदी बस्तियों में पले बढ़े और बाद में यातना शिविरों में. उनकी मां की मौत हो गई लेकिन पिता ने उन्हें युद्ध के बाद ढूंढ निकाला और अपने साथ पूर्वी बर्लिन ले गए, जहां युवा बेकेर ने जर्मन भाषा सीखी. उनके शुरुआती काम फिल्म और टेलीविजन के लिए थे. 1969 में उन्हें पहली बड़ी सफलता हासिल हुई जब उनका उपन्यास "याकोब द लायर” प्रकाशित हुआ. 1977 में बेकेर जर्मन संघीय गणतंत्र (पश्चिम जर्मनी) चले गए जहां उन्होंने और भी उपन्यास और कहानियां लिखीं. उनकी एक रचना "मेरा प्रिय क्रॉएत्सबर्ग (लीबलिंग क्रॉएत्सबर्ग) पर एक टीवी धारावाहिक भी बना जो काफी लोकप्रिय हुआ. बेकर का 1997 में निधन हो गया.

अनुवादः शिवप्रसाद जोशी

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