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यूक्रेन के संकट में यूरोप की आवाज क्यों नहीं सुनाई देती

४ फ़रवरी २०२२

बीते कई हफ्तों से यूक्रेन युद्ध की आशंकाओं में घिरा है लेकिन इसे रोकने की कोशिशों में अमेरिका की आवाज जितनी मजबूत है उतनी यूरोपीय देशों की नहीं. आखिर यूरोपीय देशों को रूस इतना भाव क्यों नहीं दे रहा है.

ब्रशेल्स में यूक्रेन पर चर्चा करने जमा हुए यूरोपीय देशों के विदेश मंत्री.
यूरोपीय देशों की बातों का रूस पर कोई असर नहीं है.तस्वीर: Virginia Mayo/AP Photo/picture alliance

दो विश्वयुद्धों में करोड़ों लोगों की जान गंवाने के बाद ज्यादातर यूरोपीय देश सेना पर खर्च के मामले में चौकन्ने हो गए. अब जब रूस युक्रेन की सीमा पर दबाव बना रहा है तो उनके सामने यह दर्दनाक सच्चाई है कि यूरोप अपनी जमीन पर किसी बड़े युद्ध को रोकने के लिए अमेरिका की ताकत पर निर्भर है.  

बीते दशकों में बचाव और सुरक्षा के प्रति आधे अधूरे मन से अपनाए गए उपायों ने यूरोप को विवशता की इस स्थिति तक पहुंचाया है. यूरोपियन काउंसिल ऑफ फॉरेन रिलेशंस थिंक टैंक के सीनियर पॉलिसी फेलो पियोत्र बुरास का कहना है, "यूरोपीय संघ के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो वह (बातचीत की) मेज पर रख सकें. तो रूस बड़े आराम से उसकी अनदेखी कर सकता है."

यूरोपीय महाद्वीप में रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन को चुनौती देने वाली ताकतवर आवाज बस अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की है. ऐसे में यूरोपीय संघ की नीतियां बनाने वाले जानते हैं कि उन्हें क्या कुछ देखना पड़ेगा. यूरोपीय संघ की विदेश नीति के प्रमुख जोसेप बोरेल ने पिछले हफ्ते कहा, "हमें यह फैसला करना होगा. या तो हमें हमारी सामूहिक क्षमता में निवेश करना होगा ताकि हम कार्रवाई कर सकें या फिर यह स्वीकार करना होगा कि हम विदेश नीति में महज कर्म हैं कर्ता नहीं."

यूरोपीय संघ के विदेश नीति प्रमुख जोसेप बोरेल ने यूक्रेन की सीमा का दौरा किया था.तस्वीर: Andriy Dubchak/AP Photo/picture alliance

आखिर यूरोप इस हाल में पहुंचा कैसे?

ब्रसेल्स के दक्षिणी हिस्से में सेंट सिंफोरियन सैन्य कब्रगाह है. यहां पहले विश्वयुद्ध के सबसे पहले और आखिरी में जान गंवानेवाले दफन हैं. जर्मन सैनिकों के साथ ही विदेशी सैनिकों के शव भी यहां दफनाए गए हैं. इस कब्रगाह के विजिटर्स बुक में लिखा है, "युद्ध दोबारा कभी नहीं." यहां से 100 किलोमीटर दूर फ्लैंडर्स फील्ड्स में 1914-1918 के बीच चली जंग में मारे गए सैनिकों के शव अब भी निकाले जा रहे हैं. जंग में मारे गए लोगों की याद में बने स्मारक और स्मृति केंद्र पूरे महाद्वीप में फैले हैं.

दूसरा विश्वयुद्ध भी लगभग इतना ही क्रूर था और उसमें भी करीब 3.65 करोड़ यूरोपीय लोगों की जान गई. इन युद्धों ने ही यह तय कर दिया था कि अब यहां बड़े पैमाने पर बदलाव होंगे. जर्मनी तो इन दोनों युद्धों की शुरुआत करने वाला था ही और उसने पड़ोसी देश फ्रांस को भी इस तरह अपने आर्थिक ताने बाने में समेट लिया था जिससे कि व्यावहारिक रूप से युद्ध असंभव हो जाए. इन दोनों देशों का गठबंधन आखिरकार आगे बढ़ा, यूरोपीय संघ बना और इसने अपना ध्यान लोहा, कोयला और खेती पर लगाया ना कि सैनिक और बम बनाने में.

यूरोपीय सुरक्षा समुदाय और एक सक्षम यूरोपीय सेना बनाने की कोशिश राजनीतिक रूप से अब भी अजन्मा है और यह 1954 में फ्रांस की पुष्टि से आगे नहीं बढ़ सका. एक तरफ दोनों विश्वयुद्धों में निर्णायक रूप से विजयी होने के बाद अमेरिका ने सोवियत संघ का मुकाबला करने के लिए परमाणु हथियारों का जखीरा तैयार कर लिया. दूसरी ओर अमेरिका पर भरोसा करने में यूरोप की राजनीति को दिमाग लगाने की कोई जरूरत नहीं थी.

जर्मनी और फ्रांस ने आपसी सहयोग से शांति की जमीन तैयार की.तस्वीर: John Thys/AP Photo/picture alliance

यह व्यवस्था समस्या क्यों बन गई?

1949 में बने नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन के तहत यूरोपीय बड़े आराम से अमेरिकी सैन्य शक्ति के शरण में रह सकते थे. यह बीते दशकों में काफी ज्यादा बढ़ा और वो भी तब जबकि कई पश्चिमी देश इस पर खर्च करने के मामले में बहुत पीछे रह गए. नाटो का सैन्य मुख्यालय सेंट सिंफोरियन कब्रगाह के करीब ही है. इसे सुप्रीम हेडक्वार्टर्स अलायड पावर्स यूरोप कहा जाता है. 1952 में अमेरिकी जनरल ड्वाइट डी आइजनहावर के समय से ही इसका नेतृत्व अमेरिका के हाथ में रहा है. हेडक्वार्टर के बाहर एक रेस्तरां है जिसका नाम है "चेज एल ओंकल सैम" -या "एट अंकल सैम." यह रेस्तरां अपने बर्गर और टेक्स मेक्स ग्रिल के लिए विख्यात है और नाटो भी अब इसी के जैसा महसूस होता है.

यूरोपीय संघ वैश्विक अर्थव्यवस्था का पावरहाउस बन गया लेकिन उसने अपनी सुरक्षा और बचाव को उस स्तर तक ले जाने के लिए कुछ नहीं किया. बोरेल कहते हैं, "अकसर लोग यूरोपीय संघ को एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में देखते हैं लेकिन इसके साथ ही एक राजनीतिक बौने या फिर एक सैन्य कीड़े के रूप में. मैं जानता हूं कि यह एक ऐसे मुहावरे जैसा है जो अब चलन से बाहर है लेकिन दूसरे कई मुहावरों की तरह इसमें भी एक बुनियादी सच्चाई का पुट है."

यूरोपीय संघ की जटिलता

1990 के दशक में बाल्कन युद्ध के दौरान इसकी सच्चाई का यूरोप ने बड़ी कठिनाई से सामना किया. लग्जमबर्ग के विदेश मंत्री जैक पूस ने घोषणा की थी, "यह यूरोप का समय है." बावजूद इसके अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो के आने के बाद ही फैसला हो सका. यूरोपीय संघ में फैसला लेने की प्रक्रिया जटिल होने के साथ मामला और बिगड़ गया. अब हर स्वतंत्र देश विदेश नीति या सुरक्षा से जुड़े मामलों में वीटो करने की धमकी देता है. इसी हफ्ते जब हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओरबान पुतिन से मिलने गए तो यूरोपीय राजधानी में कई लोगों ने मुंह बना लिया. वो प्राकृतिक गैस की ज्यादा मात्रा का आयात कर रूस के साथ रिश्तों को मजबूत करना चाहते हैं, वो भी ऐसे समय में जब बाकी यूरोपीय संघ रूस से दूरी बनाना चाहता है.

अमेरिकी सेना ने अपनी ताकत बढ़ाने पर खूब खर्च किया है.तस्वीर: Daniel Ceng Shou-Yi/ZUMAPRESS.com/picture alliance

यूरोपीय संघ में रक्षा पर खर्च करने और हथियारों के तंत्र को शामिल कराने की अब तक की कोशिशें नाकाम ही रही हैं. इस परिस्थिति को नाटो की वेबसाइट पर कुछ इस तरह से व्यक्त किया गया है, "गैर अमेरिकी सहयोगी देशों की संयुक्त संपत्ति जीडीपी के मामले में मापी जाए तो अमेरिका से ज्यादा है. हालांकि गैर यूरोपीय सहयोगी सब मिलाकर भी जितना खर्च करते हैं वो अमेरिकी रक्षा खर्च के आधे से भी कम है." पिछली आधी सदी से अमेरिकी राष्ट्रपति यूरोप की अमेरिकी सेना पर निर्भरता से झल्लाते रहे हैं.

हथियार बनाम लोककल्याण

रक्षा पर खर्च के मामले में इस फर्क के पीछे राजनीतिक और ऐतिहासिक कारण हैं. अमेरिका 20वीं सदी को अपना बनाना चाहता था और इस वजह से रक्षा पर भारी खर्च किया गया. दूसरी तरफ युद्ध के बाद पश्चिमी यूरोपीय लोकतंत्रों ने कल्याणकारी राज्यों का निर्माण किया. अस्पतालों और स्कूल की मेज पर खर्च को हमेशा टैंक पर खर्च के ऊपर रखा गया. यूरोप में सैन्य खर्च में इजाफे का कोई भी संकेत जिससे कि आक्रमणकारी भंगिमा बने वह विरोध प्रदर्शनों का आह्वान करने जैसा था.

आज जब रक्षा खर्चों को जीडीपी के 2 फीसदी तक ले जाने पर सहमति के 15 साल बीत चुके हैं, नाटो के 13 सदस्य अब तक वहां नहीं पहुंच सके हैं. पिछले साल प्रमुख देशों में स्पेन ने 1.02 फीसदी, इटली 1.41 फीसदी और जर्मनी ने 1.54 फीसदी ही खर्च किया और पीछे रह गए. यूरोपीय संघ के तरफदार ध्यान दिलाते हैं कि उन्होंने महाद्वीप में शांति बनाए रखने के लिए 2012 का नोबेल शांति पुरस्कार हासिल किया. यूरोपीय संघ विकास सहायता, आर्थिक सहयोग और सांस्कृतिक संपर्कों के जरिए  खुद को सॉफ्ट पावर बनाना चाहता है ना कि हार्ड पावर.

रूस और यूक्रेन के संकट में सॉफ्ट पावर जरूरी प्रतिरोध उत्पन्न नहीं कर पा रहा है. फ्रेंच राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का रूसी राष्ट्रपति से सीधा संपर्क है और ये दोनों देश परमाणु ताकत से लैस हैं. दूसरी तरफ यूरोपीय संघ कूटनीतिक प्रयासों से एक बार फिर मोटे तौर पर बाहर है.

एगमॉन्ट रॉयल इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल रिलेशंस के आलेक्जांडर माटेलेयर का कहना है, "लंबे समय में यह स्थिति केवल तभी बदल सकती है जब यूरोपीय लोग अपनी पीठ सीधी करें. मॉस्को के साथ बातचीत की मेज पर तुलनात्मक ताकत के साथ बैठने से ही प्रगति होगी."

एनआर/एमजे (एपी)

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