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यूक्रेन पर चीन की चुप्पी

७ मार्च २०१४

पश्चिम और रूस जहां यूक्रेन पर भिड़ रहे हैं वहीं चीन उदासीन है. आर्थिक और सामरिक महाशक्ति बन चुका चीन समझ ही नहीं पा रहा है कि वो क्या करे. लेकिन बीजिंग के आर्थिक हित अब सरकार पर अपनी राय साफ करने का दबाव बना रहे हैं.

तस्वीर: Reuters

यूक्रेन संकट पर शक्तिशाली देशों के बीच चल रहे कूटनीतिक विवाद के बीच चीन की चुप्पी विश्लेषकों को हैरान कर रही है. दूसरे देश और चीनी कंपनियां बीजिंग सरकार पर यूक्रेन संकट में कूटनीतिक भागीदारी का दवाब डाल रही हैं. वॉशिंगटन के ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूट में चीन के एक्सपर्ट केनेथ लीबरथाल तंज करते हुए कहते हैं, "असली दुनिया में आपका स्वागत है. चीन के हित अब वैश्विक हैं लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वो रणनीति नहीं बना पा रहा है, वो वैश्विक खिलाड़ी भी नहीं है. वो ऐसा भी नहीं है कि किसी मसले में हिस्सा ले और समाधान को प्रभावित करने की कोशिश करे."

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन की छवि एक ऐसे देश की है जो दूसरों के विवादों में कूदने के बजाए अपने आर्थिक हित साधने पर यकीन रखता है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के बावजूद बीजिंग रूस की तरह विवाद पैदा करने के दूर रहता है. लीबिया, सीरिया, यमन, बहरीन, अफगानिस्तान, इराक और ट्यूनीशिया जैसे देशों में ऊपजी राजनैतिक अशांति से बीजिंग ने अपने आप को दूर रखा. सीरिया के मुद्दे पर वह बहुत देर बाद रूस के साथ खड़ा जरूर नजर आया.

यूक्रेन पर रूस से नाराज होता जर्मनीतस्वीर: Reuters

उलझन भरी मजबूरी

कुछ विश्लेषक कहते हैं कि चीन तिब्बत और शिनजियांग प्रांत के मामलों को दबाने के लिए ऐसी चुप्पी साधता है. उसे लगता है कि अगर वो दूसरों के विवाद में कूदा तो कल के दिन उसकी समस्याएं भी अंतरराष्ट्रीय जमात के हाथों में चली जाएंगी. तिब्बत और शिनजियांग प्रांत में अल्पसंख्यक समुदाय चीन पर मानवाधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता के दमन का आरोप लगाते हैं.

लेकिन लीबरथाल मानते हैं कि चीन ऐसी उदासीनता जारी नहीं रख सकता, "उसके हित अब उसे इस बात के लिए बाध्य कर रहे हैं कि वो परंपरागत बयानबाजी से बाहर आए. उसे वचन देना होगा, सुरक्षा देनी होगी और भविष्य की योजना बनानी होगी."

रूस विवाद का केंद्र बन चुके यूक्रेन के क्रीमिया में सेना तैनात कर चुका है. वहीं पश्चिमी देश यूक्रेन में विपक्षी गठबंधन की सरकार को समर्थन दे रहे हैं. चीन चुप है. चीनी विदेश मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर बस इतना लिखा कि, "चीन ने लंबे समय से अंदरूनी मामलों में दखल न देने की नीति को बरकरार रखा है. चीन यूक्रेन की आजादी, संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की कद्र करता है."

बीजिंग यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रोफेसर निऊ जुन के मुताबिक यूक्रेन के हालात चीन को 'बहुत असहज' कर रहे हैं. प्रोफेसर जुन के मुताबिक विदेश मंत्रालय का बयान समझ के परे हैं. वह कहते हैं, "आखिर क्यों उन्होंने ऐसा बयान दिया जिसे कोई नहीं समझ सकता है." जब चीन पर दबाव पड़ा कि वो अपना नजरिया और स्पष्ट करे तो विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता किन गांग ने प्रतिक्रिया देने से इनकार कर दिया. वेबसाइट के जरिए सिर्फ इतना कहा गया कि चीन के शीर्ष कूटनीतिक अधिकारी यांग जिएची ने अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सुजन राइस से कहा है कि प्रस्ताव में "यूक्रेन के लोगों के कानूनी अधिकारों का पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए." लेकिन ये कानूनी अधिकार क्या हैं, इसके बारे में कुछ नहीं कहा गया.

तिब्बत में चीन के खिलाफ प्रदर्शनतस्वीर: Reuters

चुप्पी कब तक

आर्थिक तौर पर मध्य पूर्व एशिया और दक्षिण अमेरिका में चीन की उपस्थिति बढ़ रही है. अफगानिस्तान और इराक जैसे अस्थिर देशों में भी उसकी कंपनियां ऊर्जा और संसाधन जुटाने को होड़ में हैं. आबादी के लिहाज से दुनिया के सबसे बड़े देश को अपनी अर्थव्यवस्था चमकाए रखने के लिए इसकी जरूरत है. इस वजह से भी चीनी कंपनियां सरकार पर अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर हिस्सा लेने का दबाव डाल रही है. कंपनियां विवादित इलाकों में अपना कामकाज जारी रखना चाहती हैं.

2011 में लीबिया में कर्नल मुअम्मर गद्दाफी के तख्ता पलट के बाद वहां के तेल संसाधनों का बहाव पश्चिम की ओर हो गया. पश्चिम की कई कंपनियों को वहां तेल आपूर्ति का ठेका मिला. बीजिंग इस बात को भांप चुका है. उसे समझ में आ रहा है कि उसे अपने आर्थिक हित बचाने के लिए विदेशी विवादों में पैर अड़ाना होगा, लेकिन तिब्बत, शिनजियांग, दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर का विवाद उसे चुप रहने पर मजबूर कर देता है.

ओएसजे/एमजे (एएफपी)

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