2019 की शुरूआत के साथ ही इस्राएल और अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक एजेंसी यूनेस्को से नाता तोड़ लिया है. दोनों के आरोप यूनेस्को की कार्य प्रणाली पर कुछ सवाल खड़े करते हैं.
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संयुक्त राष्ट्र के शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति संगठन, यूनेस्को से बाहर निकलने का एलान इस्राएल और अमेरिका 2017 में ही कर चुके थे. 31 दिसंबर 2018 को नोटिस पीरियड खत्म हुआ और 2019 की शुरूआत के साथ ही एलान अमल में आ गया. अमेरिका के विदेश मंत्रालय ने यूनेस्को छोड़ने से पहले एक बयान जारी कर कहा, "दुर्भाग्य से, यूनेस्को ने इस्राएल के खिलाफ सुनियोजित तरीके से भेदभाव को अपनाया है और यहूदी लोगों और इस्राएल राष्ट्र से घृणा करने वाले लोग यूनेस्को का इस्तेमाल कर इतिहास को फिर से लिख रहे हैं."
अपनी स्थापना के एक साल बाद ही इस्राएल 1949 में यूनेस्को में शामिल हुआ. दुनिया भर में यूनेस्को को विश्व ऐतिहासिक धरोहर कार्यक्रम के लिए जाना जाता है. वर्ल्ड हेरिटेज प्रोग्राम का मकसद सांस्कृतिक इलाकों और वहां की संस्कृति को सुरक्षित रखना है. इसके अलावा, एजेंसी प्रेस की आजादी व महिलाओं को शिक्षित करने को बढ़ावा देती है. साथ ही कट्टरपंथ व यहूदी घृणा के खिलाफ भी काम करती है. इस्राएल में नौ वर्ल्ड हेरिटेज साइट्स हैं. इनमें हैफा का बहाई गार्डन, मृत सागर के पास मसादा का बाइबलकालीन इलाका और तेल अवीव की व्हाइट सिटी शामिल है. पूर्वी येरुशलम की ओल्ड सिटी इसमें शामिल नहीं है. यूनेस्को ने फलस्तीनी इलाके में तीन जगहों को विश्व धरोहरों में शामिल किया है.
इस्राएल के यूनेस्को छोड़ने का असर पहले से घोषित विश्व धरोहरों पर नहीं पड़ेगा. इनका संरक्षण स्थानीय प्रशासन करता है. विश्व धरोहर संधि के तहत इस्राएल इन धरोहरों के लिहाज से पार्टी बना रहेगा.
कुछ इस्राएली संरक्षक यूनेस्को छोड़ने के फैसले से मायूस है. हाल बरसों में नई विश्व धरोहरों के लिए कई आवेदन भरने वाले आर्किटेक्ट गियोरा सोलार कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि यह एक चतुराई भरा कदम था. यह एक राजनीतिक फैसला है. मैं खुद भी यूनेस्को में होने वाली वोटिंग से सहमत नहीं हूं, लेकिन उसे छोड़ने से यह राजनीतिक मामला बन गया है. हम ऐसा कर खुद को सजा दे रहे हैं. यूनेस्को इस्राएल के खिलाफ नहीं है, बल्कि वे देश हैं जो (इस्राएल) विरोध में वोट देते हैं."
(आखिर क्यों इतना अहम है येरुशलम?)
इस्राएल के लिए आखिर क्यों इतना अहम है येरुशलम?
अमेरिका ने इस्राएल की राजधानी के रूप में येरुशलम को मान्यता दे दी. अमेरिका सहित कई देशों ने अपने दूतावास भी येरुशलम में शिफ्ट कर दिए हैं. येरुशलम ईसाई, यहूदी और इस्लाम धर्म का पवित्र शहर है.
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क्यों है झगड़ा
इस्राएल पूरे येरुशलम पर अपना दावा करता है. 1967 के युद्ध के दौरान इस्राएल ने येरुशलम के पूर्वी हिस्से पर कब्जा कर लिया था. वहीं फलस्तीनी लोग चाहते हैं कि जब भी फलस्तीन एक अलग देश बने तो पूर्वी येरुशलम ही उनकी राजधानी बने. यही परस्पर प्रतिद्वंद्वी दावे दशकों से खिंच रहे इस्राएली-फलस्तीनी विवाद की मुख्य जड़ है.
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जटिल मामला
विवाद मुख्य रूप से शहर के पूर्वी हिस्से को लेकर ही है जहां येरुशलम के सबसे महत्वपूर्ण यहूदी, ईसाई और मुस्लिम धार्मिक स्थल हैं. ऐसे में, येरुशलम के दर्जे से जुड़ा विवाद राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक धार्मिक मामला भी है और शायद इसीलिए इतना जटिल भी है.
टेंपल माउंट या अल अक्सा मस्जिद
पहाड़ियों पर स्थित परिसर को यहूदी टेंपल माउंट कहते हैं और उनके लिए यह सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है. यहां हजारों साल पहले एक यहूदी मंदिर था जिसका जिक्र बाइबिल में भी है. लेकिन आज यहां पर अल अक्सा मस्जिद है जो इस्लाम में तीसरा सबसे अहम धार्मिक स्थल है.
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बातचीत पर जोर
पूरे येरुशलम पर इस्राएल का नियंत्रण है और यही से उसकी सरकार भी चलती है. लेकिन पूर्वी येरुशलम को अपने क्षेत्र में मिला लेने के इस्राएल के कदम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिली है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय चाहता है कि येरुशलम का दर्जा बातचीत के जरिए तय होना चाहिए. हालांकि सभी दूतावास तेल अवीव में हैं.
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इस्राएल की कोशिश
इस्राएल लंबे समय से येरुशलम को अपनी राजधानी के तौर पर मान्यता दिलाना की कोशिश कर रहा था. यहीं इस्राएली प्रधानमंत्री का निवास और कार्यालय है. इसके अलावा देश की संसद और सुप्रीम कोर्ट भी यहीं से चलती है और दुनिया भर के नेताओं को भी इस्राएली अधिकारियों से मिलने येरुशलम ही जाना पड़ता है.
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बाड़
येरुशलम के ज्यादातर हिस्से में यहूदी और फलस्तीनी बिना रोक टोक घूम सकते हैं. हालांकि एक दशक पहले इस्राएल ने शहर में कुछ अरब बस्तियों के बीच से गुजरने वाली एक बाड़ लगायी. इसके चलते हजारों फलस्तीनियों को शहर के मध्य तक पहुंचने के लिए भीड़ भाड़ वाले चेक पॉइंट से गुजरना पड़ता है.
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इस्राएली अमीर, फलीस्तीनी गरीब
शहर में रहने वाले इस्राएलियों और फलस्तीनियों के बीच आपस में बहुत कम संवाद होता है. यहूदी बस्तियां जहां बेहद संपन्न दिखती हैं, वहीं फलस्तीनी बस्तियों में गरीबी दिखायी देती है. शहर में रहने वाले तीन लाख से ज्यादा फलस्तीनियों के पास इस्राएल की नागरिकता नहीं है, वे सिर्फ 'निवासी' हैं.
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हिंसा का चक्र
इस्राएल और फलस्तीनियों के बीच बीते 20 वर्षों में हुई ज्यादातर हिंसा येरुशलम और वेस्ट बैंक में ही हुई है. 1996 में येरुशलम में दंगे हुए थे. 2000 में जब तत्कालीन इस्राएली प्रधानमंत्री एरिएल शेरोन टेंपल माउंट गये, तो भी हिंसा भड़क उठी.
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हालिया हिंसा
हाल के सालों में 2015 में एक के बाद एक चाकू से हमलों के मामले देखने को मिले. बताया जाता है कि टेंपल माउंट में आने वाले यहूदी लोगों की बढ़ती संख्या से नाराज चरमपंथियों ने इस हमलों को अंजाम दिया.
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कैमरों पर तनातनी
2016 में उस वक्त बड़ा विवाद हुआ जब इस्राएल ने अल अक्सा मस्जिद के पास सिक्योरिटी कैमरे लगाने की कोशिश की. फलस्तीनी बंदूकधारियों के हमलें में दो इस्राएली पुलिस अफसरों की मौत के बाद कैमरे लगाने का प्रयास किया था.
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नेतान्याहू के लिए?
तमाम विरोध के बावजूद जहां ट्रंप ने येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देकर अपना चुनावी वादा निभाया है, वहीं शायद वह इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतान्याहू को भी खुश करना चाहते थे. विश्व मंच पर नेतान्याहू ट्रंप के अहम समर्थक माने जाते हैं.
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कड़ा विरोध
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अमेरिकी दूतावास को येरुशलम ले जाने की ट्रंप की योजना का विरोध किया. फलस्तीनी प्रधिकरण ने कहा है कि अमेरिका येरुशलम को इस्राएली की राजधानी के तौर पर मान्यता देता तो इससे न सिर्फ शांति प्रक्रिया की रही सही उम्मीदें भी खत्म हो जाएंगी, बल्कि इससे हिंसा का एक नया दौर भी शुरू हो सकता है.
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सऊदी अरब भी साथ नहीं
अमेरिका के अहम सहयोगी समझे जाने वाले सऊदी अरब ने भी ऐसे किसी कदम का विरोध किया है. वहीं 57 मुस्लिम देशों के संगठन इस्लामी सहयोग संगठन ने इसे 'नग्न आक्रामकता' बताया है. अरब लीग ने भी इस पर अपना कड़ा विरोध जताया है. [रिपोर्ट: एके/ओएसजे (एपी)]
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विवादों से पटे प्रस्ताव
2011 में यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र की पहली ऐसी संस्था बनीं, जिसने फलस्तीन को पूर्ण सदस्य के तौर पर मान्यता दी. उस फैसले के तुरंत बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रशासन ने यूनेस्को को दी जाने वार्षिक राशि बंद कर दी. यूनेस्को के कुल बजट में अमेरिका की हिस्सेदारी 22 फीसदी थी. अमेरिका के राष्ट्रीय कानून के तहत फलस्तीन को पूर्ण सदस्य मानने वाली यूएन एजेंसी के फंड में कटौती करना बाध्यकारी है. अमेरिका के साथ ही इस्राएल ने भी यूनेस्को को पैसा देना बंद कर दिया.
2016 में यूनेस्को के साथ इन दोनों देशों के रिश्ते और खराब हो गए. उस वक्त यूनेस्को ने एक प्रस्ताव पास किया. इस्राएली अधिकारियों ने आरोप लगाया कि प्रस्ताव येरुशलम की एक पवित्र जगह को यहूदी धर्म से जुड़ा नहीं मानता है. प्रस्ताव के तहत पवित्र इलाके टेंपल माउंट कॉमप्लेक्स (अंग्रेजी नाम), हरम अल-शरीफ (अरबी नाम) से स्वीकार किया गया, लेकिन हिब्रू भाषा से जुड़े नाम को स्वीकृति नहीं मिली. यूनेस्को ने उस इलाके में इस्राएल को कब्जा करने वाली ताकत के तौर पर पेश किया और फलस्तीनी इलाकों में उसकी कार्रवाई पर सवाल उठाए.
उस वक्त प्रस्ताव की आलोचना करते हुए इस्राएली प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू ने कहा, "टेंपल माउंट से इस्राएल का कोई संबंध नहीं है, यह कहना बिल्कुल वैसा ही है जैसे कोई कहे कि ग्रेट वॉल का चीन से और पिरामिडों का मिस्र से कोई संबंध नहीं है." नेतन्याहू के मुताबिक यूनेस्को ने अपनी "रही सही साख" भी गंवा दी है.
इसके साल भर बाद 2017 में यूनेस्को के एक और प्रस्ताव ने इस्राएली अधिकारियों को नाराज किया. उस वक्त यूनेस्को ने पश्चिमी तट एक मकबरे को फलस्तीनी विश्व धरोहर करार दिया. यहूदी धर्म में उस मकबरे को माचपेला कहा जाता है. ऐसा विश्वास है कि उस पवित्र गुफा में यहूदी धर्म के पितामह अब्राहम को दफनाया गया. मुसलमान इस जगह को इब्राहिमी मस्जिद कहते हैं. इस जगह पर जाने के लिए दो अलग अलग गेट हैं, एक तरफ से मस्जिद का गेट है और दूसरी तरफ से यहूदी उपासना केंद्र सिनेगॉग का.
एक के बाद एक आए विवादास्पद प्रस्तावों के चलते अमेरिका ने यूनेस्को से बाहर निकलने का एलान कर दिया. वॉशिंगटन ने साफ कहा कि यूनेस्को की भाषा और कार्यवाही में इस्राएल के प्रति भेदभाव नजर आ रहा है. अमेरिका 1984 में भी यूनेस्को से बाहर निकल चुका है. उस वक्त राष्ट्रपति रॉनल्ड रीगन ने यह कदम उठाया था. 19 साल बाद 2003 में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के नेतृत्व में अमेरिका फिर यूनेस्को को सदस्य बना. इराक पर हमले के दौरान बुश यह दिखाना चाहते थे कि अमेरिका "अंतरराष्ट्रीय सहयोग के प्रति" वचनबद्ध है.
नवंबर 2017 में ऑड्रे एजुले ने यूनेस्को के डायरेक्टर जनरल का पदभार संभाला. उनके आते ही कूटनीतिक विवाद कुछ शांत पड़ा. एजुले ने इस्राएल को यूनेस्को में बनाए रखने के लिए काफी कोशिशें की. येरुशलम पर आए दो छमाही प्रस्तावों की भाषा काफी हद तक काटी छांटी गई. यूनेस्को में उस वक्त तैनात इस्राएली दूत ने उन कोशिशों को "नई ऊर्जा" करार दिया और कहा कि सदस्यता छोड़ने का फैसला टाला जा सकता है. प्रगति जरूर हुई लेकिन प्रधानमंत्री नेतन्याहू की उम्मीदों से कहीं कम. सितंबर 2018 में नेतन्याहू ने यहूदी घृणा के विरुद्ध यूनेस्को की कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया. संयुक्त राष्ट्र महासभा के साथ हो रही इस कॉन्फ्रेंस के बारे में इस्राएली प्रधानमंत्री ने कहा, "यदि और जब भी यूनेस्को इस्राएल के खिलाफ भेदभाव खत्म कर देगा, इतिहास को दुत्कारना बंद कर देगा और सच के साथ खड़ा रहना शुरू कर देगा उस दिन इस्राएल फिर से जुड़ने में सम्मानित महसूस करेगा."
(येरुशलम दीवारों के बगैर क्या होता?)
येरुशलम दीवारों के बगैर क्या होता?
प्राचीन काल से ही कवि येरुशलम की दीवारों पर गीत लिखते रहे हैं. दशकों पुराने अरब-इस्राएल के विवाद पर इसका साया नजर आता है. इन तस्वीरों में देखिए येरुशलम के दीवारों की कहानी.
तस्वीर: picture alliance/dpa
3000 साल के इतिहास में येरुशलम के पुराने शहर पर कई लोगों का कब्जा रहा. पारसियों और बेबिलोनियाई से लेकर आधुनिक दौर में जॉर्डन और इस्राएल तक. जितने तरह के शासन रहे उतनी ही तरह की दीवारें भी हैं. कुछ दीवारें जंग में खत्म हुई तो कुछ भूकंप में लेकिन इनके इर्द गिर्द की दुनिया लंबे समय से लगभग एक जैसी ही है.
तस्वीर: Imago/robertharding/A. Rotenberg
16वीं सदी में ओटोमन सुल्तान सुलेमान द मैग्नीफिसेंट ने 1517 में येरुशलम को अपने अधीन करने के बाद अपने पिता के नाम पर इस ऐतिहासिक दीवार को बनावाने का आदेश दिया.
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पूरे शहर को घेरने वाली चूने पत्थर से बनी इन प्राचीन दीवारों की लंबाई करीब 4,018 मीटर है और औसत उंचाई करीब 12 मीटर जबकि औसत मोटाई 2.5 मीटर है.
तस्वीर: Picture-Alliance/Zuma Press/N. Alon
इन दीवारों पर 34 वॉचटावर बने हैं और सात मुख्य दरवाजे हैं जिनसे हो कर सारा ट्रैफिक शहर में आता जाता है. पुरातत्वविदों ने दो छोटे छोटे दरवाजों को दोबारा खोला है.
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400 साल तक येरुशल ओटोमन राजाओं के ही अधीन रहा. 11 दिसंबर 1917 को ब्रिटिश जनरल एडमंड एलेनबाइ जाफा गेट से इस शहर में दाखिल हुए और इसके साथ ही 30 साल लंबे ब्रिटिश शासन की शुरुआत हुई.
तस्वीर: public domain
आज पुराने शहर के चारों और करीब चार किलोमीटर की परिधि में जो दीवार है उसके घेरे में दुनिया भर के यहूदी, मुसलमान, ईसाई, अरब, अर्मेनियाई, स्त्री और पुरुष एक दूसरे का सामना करते हैं. कोई यहां का बाशिंदा है तो कोई सैलानी.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/S. Järkel
इस्राएल में 2017 में बारिश नहीं के बराबर हुई है और सूखा पड़ने का अंदेशा है. इस्राएल के दो प्रमुख रब्बियों के साथ 2000 से ज्यादा लोगों ने इसी दीवार के पास जमा हो कर बारिश के लिए ईश्वर से प्रार्थना की. इस कार्यक्रम का आयोजन कृषि मंत्री उरी एरियल ने किया था.
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पुराना शहर, इसकी दीवारें और यहां के धार्मिक स्थलों को लेकर एक बार फिर तनाव बढ़ गया है. इस्राएल और फलस्तीन दोनों दीवारों से घिरे 215 एकड़ के इलाके पर अपना अधिकार जताते हैं.
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1967 की जंग के बाद इस्राएल ने पूरे येरुशलम पर कब्जा कर लिया लेकिन फलस्तीनी इसके पूर्वी हिस्से को भविष्य में बनने वाले अपने राष्ट्र की राजधानी बनाना चाहते हैं. इस हिस्से में बहुसंख्यक आबादी फलस्तीनी लोगों की है.
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दीवारों के साए में ही रोजमर्रा की जिंदगी चलती रहती है. परिवार पिकनिक मनाते हैं, आस्थावान लोग प्रार्थना करते हैं, फेरीवाले सामान और खाने-पीने की चीजें बेचते है, और कलाकार इन दीवारों को अपना कैनवस बनाते हैं.