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यूरोपीय संघ में बल्ब को फ्यूज करने की तैयारी

१ सितम्बर २०११

बिजली की पहचान बने पीली रोशनी देने वाले लट्टू यानी बल्ब के दिन अब खत्म समझिए. यूरोप ने तो उसे तिलांजलि दे दी है. सितंबर से यूरोपीय संघ के देशों में वह पारंपरिक सामान्य बल्ब नहीं मिलेगा.

तस्वीर: AP

सामान्य बल्ब की जगह सीएफएल और एलईडी बल्ब लेंगे जो कम बिजली का इस्तेमाल करते हुए अधिक रोशनी देते हैं. यूरोपीय संघ को उम्मीद है कि इस कदम से काफी बिजली बचाई जा सकेगी. हालांकि संघ का इस बात से भी इनकार नहीं है कि शुरुआत में यह विकल्प लोगों की जेबों पर काफी भारी पड़ेगा.

तस्वीर: Fotolia/Petoo

यूरोपीय संघ बल्बों के निर्माण और बिक्री पर पूरी तरह रोक लगाना चाहता है, लेकिन इसे धीरे धीरे कई चरणों में लागू किया जा रहा है. पिछले साल 70 वॉट से अधिक के बल्बों पर रोक लगाई गई, उस से पहले 100 वॉट पर. इस बार 60 वॉट के बल्बों की बारी है, तो अगली बार यह 10 वॉट होगा. इसके बाद हेलोजन बल्बों पर भी रोक लगा दी जाएगी. इस तरह से धीरे धीरे इन्हें बाजार से पूरी तरह हटा दिया जाएगा. इस योजना को सितम्बर 2009 से लागू किया गया.

बिजली की खपत कम

सामान्य बल्ब केवल पांच प्रतिशत बिजली को ही रोशनी में बदल पाते हैं. बाकी की पूरी ऊर्जा गर्मी में बदल जाती है. इनके विपरीत सीएफएल यानी कॉमपैक्ट फ्लोरोसेन्ट लैम्प 25 प्रतिशत बिजली को रोशनी में बदलने में सक्षम होते हैं. जानकारों का मानना है कि सीएफएल के इस्तेमाल से 75 प्रतिशत बिजली बचाई जा सकेगी.

जर्मनी में सामान की गुणवत्ता की जांच करने वाली संस्था 'ष्टिफटुंग वारन टेस्ट' के अनुसार जिस घर में तीन लोगों का परिवार रहता हो वहां यदि बल्ब हटाकर सीएफएल लगा दिए जाएं तो साल में 150 यूरो की बचत हो सकती है. अकेले रहने वाला इंसान 60 यूरो बचा सकता है. इसके अलावा बल्बों की गर्मी के कारण पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा पर भी काबू पाया जा सकेगा. जर्मनी में हर साल होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में 40 लाख टन की कमी आएगी.

तस्वीर: AP

सीएफएल से खतरा

सामान्य बल्बों पर रोक का विरोध भी किया जा रहा है. कम बिजली पर चलने वाले ये नए तरह के बल्ब पर्यावरण के लिए अच्छे तो हैं, पर साथ ही इनमें एक दिक्कत भी है. इनमें कुछ मात्रा में सीसा होता है, जो खतरनाक साबित हो सकता है. जर्मनी में कूड़ा छांटा जाता है. हर घर में कम से कम चार अलग अलग तरह के कूड़ेदान होते हैं. कागज और प्लास्टिक को मिलने नहीं दिया जाता. इसी तरह रसोई का कूड़ा अलग फेंका जाता है और बैटरियों के लिए अलग व्यवस्था होती है.

नए किस्म के बल्बों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था की जरूरत है, ताकि लोग इसे घर के अन्य कूड़े के साथ न फेंके. अब तक देश में 2200 ऐसे डब्बे लगाए जा चुके हैं जहां इन्हें इकट्ठा किया जा सकता है. इनमें से 725 दुकानों या शॉपिंग सेंटर में लगाए गए हैं और बाकी रिहायशी इलाकों में. पर्यावरणविदों और जर्मनी में बल्ब बनाने वाली कंपनी ओसराम का मानना है कि यह काफी नहीं है. अभी भी ऐसे और कई डब्बे लगाने की जरूरत है. साथ ही 'ष्टिफटुंग वारन टेस्ट' के अनुसार बल्बों को फ्यूज हो जाने के बाद दुकान पर वापस करना अनिवार्य होना चाहिए ताकि सीसे से होने वाले खतरे को रोका जा सके.

तस्वीर: RIA Novosti

मिलेगी पूरी जानकारी

सीएफएल इस्तेमाल करने से लोग इसलिए भी कतराते हैं क्योंकि उन्हें पूरी रोशनी तक पहुंचने में थोड़ा समय लगता है. सामान्य बल्बों की तरह वे फौरन नहीं जल पाते. साथ ही सीएफएल और एलईडी के ऊंचे दाम देख कर भी लोगों को चिंता सता रही है. लेकिन ओसराम कंपनी का मानना है कि आने वाले समय में इनकी मांग इतनी ज्यादा बढ़ जाएगी कि दाम कम होने लगेंगे.

लोगों को सीएफएल की क्षमता समझाने के लिए यूरोपीय संघ के आदेश अनुसार पैकिंग पर पूरा विवरण दिया जाएगा. सीएफएल से बिजली की खपत कितनी होगी, उसे पूरी रोशनी तक पहुंचने में कितनी देर लगेगी, वह कितने घंटों तक रोशनी दे सकेगा और उसकी रोशनी में कितनी गर्माहट होगी - ये सब बातें पैकिंग पर लिखी जाएंगी. इसके अलावा इनकी तुलना पारंपरिक बल्बों से भी की जाएगी, ताकि लोग समझ सकें कि 40 वॉट के बल्ब और 40 वाट के सीएफएल में कितना अंतर है. जितना महंगा सीएफएल उतनी ही अधिक उसकी क्षमता. एक सीएफएल 1500 से 15,000 घंटे जल सकता है, जबकि एक पारंपरिक बल्ब केवल एक हजार घंटे ही जल पाता है.

रिपोर्ट: एजेंसियां/ईशा भाटिया

संपादन: वी कुमार

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