यूरोप को समझने में सहायक होता जर्मन
२३ अक्टूबर २०१४प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार एक ओर विदेशी निवेशकों को आकृष्ट करना चाहती है और 'मेक इन इंडिया' अभियान द्वारा उन्हें आश्वस्त करना चाहती है कि भारत में उत्पादक और विनिर्माण इकाइयां लगाना उनके लिए फायदेमंद रहेगा, तो दूसरी ओर वह भारतीय छात्रों और युवाओं के दिमाग के खिड़की-दरवाजे बंद रखना चाहती है. ये दोनों परस्परविरोधी प्रयास कितनी दूर तक चल पाएंगे, यह तो कहना मुश्किल है लेकिन फिलहाल नई सरकार अपने आरंभिक महीनों में इसी तरह की कोशिश में लगी है.
भारतीय जनता पार्टी के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वर्चस्व इस समय केंद्र और राज्यों की सरकारों में लगातार बढ़ रहा है, इसलिए आश्चर्य नहीं कि उसका वैचारिक प्रभुत्व भी स्थापित होता जा रहा है. हिंदुत्ववादी संगठनों को संस्कृत अत्यधिक प्रिय है क्योंकि उनकी राय में प्राचीन हिन्दू संस्कृति के स्रोत के रूप में उसका असाधारण महत्व है. संस्कृत के महत्व से कोई भी इंकार नहीं कर सकता लेकिन इसके साथ ही आधुनिक भाषाओं के ज्ञान के महत्व से इंकार करना भी असंभव है. समस्या तभी पैदा होती है जब संस्कृत और आधुनिक भारतीय या विदेशी भाषाओं को एक दूसरे के आमने-सामने विकल्प के तौर पर खड़ा कर दिया जाता है.
तीन वर्ष पहले केन्द्रीय विद्यालयों में जर्मन पढ़ाने के संबंध में जर्मनी के गोएथे संस्थान के साथ जो समझौता हुआ था, वह पिछले माह स्वतः समाप्त हो गया है क्योंकि उसका पुनर्नवीकरण नहीं किया गया. जर्मनी यूरोपीय संघ के भीतर आर्थिक रूप से सबसे अधिक शक्तिशाली देश माना जाता है और विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में वह सदियों से अग्रणी देश रहा है. स्पष्ट है कि यदि भारतीय छात्र जर्मन भाषा सीखेंगे तो यह ज्ञान उनके भावी शैक्षिक जीवन में बहुत काम आएगा. जर्मन भाषा और साहित्य का ज्ञान यूरोप को समझने में भी बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है और इसके कारण उच्च शिक्षा के लिए भारतीय छात्रों के लिए जर्मनी जाना भी अधिक आसान होगा.
लेकिन जर्मन की जगह संस्कृत सिखाने के उत्साह में मोदी सरकार ने इस समझौते को समाप्त होने दिया. दरअसल संस्कृत शिक्षण संगठन ने अदालत में जर्मन सिखाए जाने का विरोध करते हुए एक मुकदमा दायर किया था क्योंकि उसके अनुसार इससे त्रिभाषा सूत्र का उल्लंघन होता था. लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि अनेक दशकों से उत्तर भारत के राज्यों में इस सूत्र पर अमल नहीं हो रहा है.
इस सूत्र के अनुसार छात्रों को एक आधुनिक भारतीय भाषा, एक अपनी भाषा (यानि हिन्दी) और अंग्रेजी सीखनी थी. लेकिन उत्तर भारत में तमिल या तेलुगू या बांग्ला के बजाय छात्रों को संस्कृत पढ़ाई जाती है, और इस तरह त्रिभाषा सूत्र को पूरी तरह निष्प्रभावी बना दिया जाता है. इसलिए जर्मन पढ़ाने से त्रिभाषा सूत्र के उल्लंघन का कोई संबंध नहीं है, क्योंकि यह उल्लंघन तो तब भी होता है जब संस्कृत पढ़ाई जाती है. लेकिन केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की नजर में जर्मन की पढ़ाई का विशेष महत्व नहीं है. इसलिए उसने इससे संबंधित समझौते की अवधि को आगे बढ़ाने में कोई रुचि नहीं दिखाई.
इसके पीछे एक कड़वी सचाई यह भी हो सकती है कि भारत और जर्मनी दोनों ही देशों की ओर से सदाशयतापूर्ण बयानों के बावजूद पिछले दशकों के दौरान उनके आपसी संबंधों के स्तर में वह ऊंचाई नहीं आ सकी है जिसकी उम्मीद की जा रही थी. राजनीतिक, आर्थिक, राजनयिक, इन सभी केन्द्रीय महत्व के क्षेत्रों में भारत और जर्मनी के बीच संबंध बेहतर तो हुए हैं, लेकिन उनकी प्रगति की गति बेहद धीमी है. शायद इसलिए भी भारत सरकार जर्मन की पढ़ाई के प्रति उतनी सजग और संवेदनशील नहीं है जितनी वह तब होती जब दोनों देशों के आपसी संबंध बेहद प्रगाढ़ होते. गोएथे संस्थान को तो अभी भी उम्मीद है कि शायद आने वाले दिनों में कोई रास्ता निकल आए. हमें भी यही उम्मीद करनी चाहिए.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार