इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतान्याहू ने यूरोप से अपील की है कि वह येरुशलम को इस्राएल की राजधानी का दर्जा दे. यूरोपीय संघ ने अमेरिका के येरुशलम को राजधानी मानने के फैसले की आलोचना की है.
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यूरोपीय संघ के मुख्यालय ब्रसेल्स पहुंचे इस्राएली प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतान्याहू ने कहा कि यूरोप की सरकारों को "हकीकत" को स्वीकार करना चाहिए. अमेरिका के बाद उन्होंने यूरोप से भी येरुशलम को इस्राएल की राजधानी मानने की अपील की. नेतान्याहू के मुताबिक ऐसे कदमों से इस्राएलियों और फलीस्तीनों के बीच "शांति का संभावित रास्ता" निकलेगा. इस्राएली प्रधानमंत्री ने कहा कि उन्हें पूरी उम्मीद है कि येरुशलम के मुद्दे पर यूरोप अमेरिका का अनुसरण करेगा.
इससे पहले रविवार को उन्होंने फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों से मुलाकात की. पेरिस में हुई मुलाकात के दौरान माक्रों ने ट्रंप के फैसले को खारिज किया. फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने नेतान्याहू से कहा कि वह पश्चिमी तट पर यहूदी बस्तियों का निर्माण रोककर विश्वास बहाल करें. येरुशलम का कानूनी दर्जा क्या है?
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पिछले हफ्ते येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता दी. अमेरिका के हर राष्ट्रपति को छह महीने बाद अमेरिकी दूतावास से जुड़े एक बिल पर दस्तखत करना पड़ता था. बिल में इस बात का जिक्र करना पड़ता था कि अमेरिकी दूतावास इस्राएल की राजधानी येरुशलम के बजाए तेल अवीव में क्यों है. लंबे समय से अमेरिका के राष्ट्रपति इस बिल पर दस्तखत कर येरुशलम के मुद्दे से बचते रहे हैं. लेकिन ट्रंप ने तमाम चेतवानियों के बावजूद इस बिल पर दस्तखत करने से इनकार कर दिया और येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में स्वीकार कर लिया. अब अमेरिकी दूतावास तेल अवीव से येरुशलम जाएगा.
लेकिन ट्रंप के इस फैसले से अरब और इस्लामिक जगत में नाराजगी है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी ट्रंप के फैसले की आलोचना करते हुए कहा कि इससे इस्राएल और फलीस्तीन के बीच शांति की कोशिशों में अड़चन पड़ेगी. अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस विवाद का राजनीतिक हल खोजना चाहता है. ऐसा हल जिससे इस्राएल के भी हित प्रभावित न हों और एक आजाद देश के रूप में फलीस्तीन को भी मान्यता मिल सके.
लेकिन येरुशलम का दर्जा विवाद का केंद्र बना हुआ था. येरुशलम में यहूदी, ईसाई और मुसलमान तीनों समुदायों के पारंपरिक धार्मिक स्थल हैं और इसलिए इस शहर पर वे अपना अपना दावा जताते हैं. ऐसे धार्मिक स्थलों का बंटवारा करना बड़ा सिरदर्द है. इस्राएल लंबे वक्त से येरुशलम को अपनी राजधानी के रूप में पेश करता रहा है. लेकिन अंतराष्ट्रीय समुदाय को लगता है कि शहर का भविष्य फलीस्तीनियों के साथ बातचीत करके ही तय किया जाना चाहिए. ट्रंप के फैसले के बाद पलड़ा इस्राएल के पक्ष में झुक गया है.
(क्यों विवाद का केंद्र है येरुशलम)
इस्राएल के लिए आखिर क्यों इतना अहम है येरुशलम?
अमेरिका ने इस्राएल की राजधानी के रूप में येरुशलम को मान्यता दे दी. अमेरिका सहित कई देशों ने अपने दूतावास भी येरुशलम में शिफ्ट कर दिए हैं. येरुशलम ईसाई, यहूदी और इस्लाम धर्म का पवित्र शहर है.
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क्यों है झगड़ा
इस्राएल पूरे येरुशलम पर अपना दावा करता है. 1967 के युद्ध के दौरान इस्राएल ने येरुशलम के पूर्वी हिस्से पर कब्जा कर लिया था. वहीं फलस्तीनी लोग चाहते हैं कि जब भी फलस्तीन एक अलग देश बने तो पूर्वी येरुशलम ही उनकी राजधानी बने. यही परस्पर प्रतिद्वंद्वी दावे दशकों से खिंच रहे इस्राएली-फलस्तीनी विवाद की मुख्य जड़ है.
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जटिल मामला
विवाद मुख्य रूप से शहर के पूर्वी हिस्से को लेकर ही है जहां येरुशलम के सबसे महत्वपूर्ण यहूदी, ईसाई और मुस्लिम धार्मिक स्थल हैं. ऐसे में, येरुशलम के दर्जे से जुड़ा विवाद राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक धार्मिक मामला भी है और शायद इसीलिए इतना जटिल भी है.
टेंपल माउंट या अल अक्सा मस्जिद
पहाड़ियों पर स्थित परिसर को यहूदी टेंपल माउंट कहते हैं और उनके लिए यह सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है. यहां हजारों साल पहले एक यहूदी मंदिर था जिसका जिक्र बाइबिल में भी है. लेकिन आज यहां पर अल अक्सा मस्जिद है जो इस्लाम में तीसरा सबसे अहम धार्मिक स्थल है.
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बातचीत पर जोर
पूरे येरुशलम पर इस्राएल का नियंत्रण है और यही से उसकी सरकार भी चलती है. लेकिन पूर्वी येरुशलम को अपने क्षेत्र में मिला लेने के इस्राएल के कदम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिली है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय चाहता है कि येरुशलम का दर्जा बातचीत के जरिए तय होना चाहिए. हालांकि सभी दूतावास तेल अवीव में हैं.
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इस्राएल की कोशिश
इस्राएल लंबे समय से येरुशलम को अपनी राजधानी के तौर पर मान्यता दिलाना की कोशिश कर रहा था. यहीं इस्राएली प्रधानमंत्री का निवास और कार्यालय है. इसके अलावा देश की संसद और सुप्रीम कोर्ट भी यहीं से चलती है और दुनिया भर के नेताओं को भी इस्राएली अधिकारियों से मिलने येरुशलम ही जाना पड़ता है.
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बाड़
येरुशलम के ज्यादातर हिस्से में यहूदी और फलस्तीनी बिना रोक टोक घूम सकते हैं. हालांकि एक दशक पहले इस्राएल ने शहर में कुछ अरब बस्तियों के बीच से गुजरने वाली एक बाड़ लगायी. इसके चलते हजारों फलस्तीनियों को शहर के मध्य तक पहुंचने के लिए भीड़ भाड़ वाले चेक पॉइंट से गुजरना पड़ता है.
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इस्राएली अमीर, फलीस्तीनी गरीब
शहर में रहने वाले इस्राएलियों और फलस्तीनियों के बीच आपस में बहुत कम संवाद होता है. यहूदी बस्तियां जहां बेहद संपन्न दिखती हैं, वहीं फलस्तीनी बस्तियों में गरीबी दिखायी देती है. शहर में रहने वाले तीन लाख से ज्यादा फलस्तीनियों के पास इस्राएल की नागरिकता नहीं है, वे सिर्फ 'निवासी' हैं.
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हिंसा का चक्र
इस्राएल और फलस्तीनियों के बीच बीते 20 वर्षों में हुई ज्यादातर हिंसा येरुशलम और वेस्ट बैंक में ही हुई है. 1996 में येरुशलम में दंगे हुए थे. 2000 में जब तत्कालीन इस्राएली प्रधानमंत्री एरिएल शेरोन टेंपल माउंट गये, तो भी हिंसा भड़क उठी.
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हालिया हिंसा
हाल के सालों में 2015 में एक के बाद एक चाकू से हमलों के मामले देखने को मिले. बताया जाता है कि टेंपल माउंट में आने वाले यहूदी लोगों की बढ़ती संख्या से नाराज चरमपंथियों ने इस हमलों को अंजाम दिया.
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कैमरों पर तनातनी
2016 में उस वक्त बड़ा विवाद हुआ जब इस्राएल ने अल अक्सा मस्जिद के पास सिक्योरिटी कैमरे लगाने की कोशिश की. फलस्तीनी बंदूकधारियों के हमलें में दो इस्राएली पुलिस अफसरों की मौत के बाद कैमरे लगाने का प्रयास किया था.
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नेतान्याहू के लिए?
तमाम विरोध के बावजूद जहां ट्रंप ने येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देकर अपना चुनावी वादा निभाया है, वहीं शायद वह इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतान्याहू को भी खुश करना चाहते थे. विश्व मंच पर नेतान्याहू ट्रंप के अहम समर्थक माने जाते हैं.
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कड़ा विरोध
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अमेरिकी दूतावास को येरुशलम ले जाने की ट्रंप की योजना का विरोध किया. फलस्तीनी प्रधिकरण ने कहा है कि अमेरिका येरुशलम को इस्राएली की राजधानी के तौर पर मान्यता देता तो इससे न सिर्फ शांति प्रक्रिया की रही सही उम्मीदें भी खत्म हो जाएंगी, बल्कि इससे हिंसा का एक नया दौर भी शुरू हो सकता है.
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सऊदी अरब भी साथ नहीं
अमेरिका के अहम सहयोगी समझे जाने वाले सऊदी अरब ने भी ऐसे किसी कदम का विरोध किया है. वहीं 57 मुस्लिम देशों के संगठन इस्लामी सहयोग संगठन ने इसे 'नग्न आक्रामकता' बताया है. अरब लीग ने भी इस पर अपना कड़ा विरोध जताया है. [रिपोर्ट: एके/ओएसजे (एपी)]