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ये मोदी का करिश्मा है या कोई राज

१८ फ़रवरी २०१२

सिर पर मुख्यमंत्री का ताज भी है और गुजरात दंगों का दाग भी है. सुप्रीम कोर्ट उन्हें आज का नीरो बताता है, तो खुद प्रधानमंत्री राजधर्म निभाने को कहता है. फिर भी दस साल से गुजरात में सिर्फ एक ही नाम क्यों गूंज रहा है.

पसीने छुड़ाता वक्ततस्वीर: AP

आखिर नरेंद्र मोदी की कामयाबी का क्या राज है. सामाजिक कार्यकर्ता उनके खिलाफ मोर्चा निकाले बैठे हैं. विपक्षी पार्टियां दिन रात कोसती हैं. अदालतें हर रोज सवाल उठाती हैं, खुद उनकी सरकार में पुलिस और प्रशासनिक अफसर रहे लोग सबूत लिए घूमते हैं. लेकिन मोदी टस से मस नहीं होते हैं. लगातार दो बार चुनाव जीत कर गुजरात में सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकॉर्ड बना चुके हैं और इस साल होने वाले चुनाव में भी उनकी कामयाबी में ज्यादा शक नहीं है.

भारत के जाने माने पत्रकार विजय त्रिवेदी लंबे वक्त से गुजरात पर नजर रखे हुए हैं. वह मोदी की कामयाबी की एक खास वजह बताते हैं, "इस बात को समझने के लिए गुजरात को समझना होगा. गुजरात में अल्पसंख्यकों की बड़ी संख्या है लेकिन दोनों संप्रदायों के बीच बड़ा फासला भी है. पिछले 10 साल में यह दरार और बढ़ी है और मोदी लगातार इस चीज का फायदा उठाते आए हैं."

आडवाणी साथ, अटल नहींतस्वीर: AP

कहां गया राजधर्म

गुजरात दंगों के बाद मोदी पर इस्तीफे पर इस कदर दबाव था कि खुद उनकी पार्टी के सबसे बड़े नेता और उस वक्त के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी उनसे "राजधर्म" निभाने को कहा. लेकिन मोदी को प्रधानमंत्री बनने की चाहत लिए बीजेपी के दूसरे नेता लालकृष्ण आडवाणी का पूरा साथ मिला और उन्हें अपनी शर्तों पर चुनाव कराने का भी मौका मिल गया. टूट रही गुजरात बीजेपी को संभालने 2001 के आखिरी दिनों में बीजेपी आलाकमान ने उन्हें दिल्ली से गांधीनगर भेजा. दो तीन महीने के अंदर दंगे हो गए और मोदी की शख्सियत केंद्र में पार्टी को मैनेज करने वाले एक नेता से बदल कर वोट बैंक जुटाने वाले बड़े नेता की हो गई.

दंगों के बाद के हालात और सांप्रदायिक समीकरणों का राजनीतिक फायदा उठाते हुए मोदी ने तय वक्त से पहले चुनाव का प्रस्ताव रख दिया. उस वक्त के गुजरात पुलिस के खुफिया प्रमुख आरबी श्रीकुमार बताते हैं कि इन सबके पीछे किस तरह प्रशासनिक तंत्र का बेजा इस्तेमाल हुआ, "जब चुनावों की बात हुई, तो शुरुआती रिपोर्टों में बताया गया कि सिर्फ 50 विधानसभा सीटें हिंसा से प्रभावित हैं. लेकिन मैंने अपनी रिपोर्ट में कहा कि 150 सीटें दंगों से बुरी तरह प्रभावित हुई हैं. चुनाव आयोग ने मेरी बात को बाद में माना भी. यह मार्च अप्रैल, 2002 की बात है, जब गुजरात में लोगों के अंदर धार्मिक भावना चरम पर थी. स्थिति के सामान्य होने से पहले ही नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी चुनाव चाहती थी. अगर इसमें देर होती, तो उन्हें कम सीटें मिलतीं."

कितना गंभीर है सद्भावना प्रयासतस्वीर: AP

बिका हुआ प्रशासन

श्रीकुमार कहते हैं कि इसके लिए जितना जिम्मेदार मोदी की राजनीति थी, उतना ही पुलिस और प्रशासन खुद, "यह दुर्भाग्य की बात थी कि कुछ पुलिस वाले अपने निजी फायदे और प्रमोशन के लिए जाल में फंस गए. उनके पास बहुत से सबूत हैं लेकिन वे सामने नहीं लाते. दूसरी तरफ हमारे जैसे लोग हैं, जो दबाव के बाद भी सबूत दे रहे हैं."

खुद मोदी की महत्वाकांक्षा भी गुजरात की सीमा पार करने की है. लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी छवि को पूरी तरह बदलना होगा. उन्होंने सद्भावना उपवास जैसे हथकंडे अपनाए हैं, जिसे राजनीतिक जानकार सिर्फ "दिखावे के लिए" की जा रही कवायद बताते हैं. मोदी जिस सांचे में ढल चुके हैं, उसे तोड़ना आसान नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने कभी मोदी प्रशासन की तुलना निरंकुश रोमन शासक नीरो से की. कहते हैं कि जिस वक्त रोम शहर जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था. जानकारों का कहना है कि भले ही गुजरात में मोदी पास होते गए हों लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी परीक्षा बहुत बड़ी होगी. त्रिवेदी का कहना है, "जेडीयू के नीतीश कुमार ने चुनावों के दौरान बिहार में उनकी इंट्री बैन कर दी और बीजेपी चाह कर भी उन्हें नहीं ले जा पाई. बीजेडी मोदी के साथ नहीं जा सकती. डीएमके उनके साथ नहीं जा सकती. ऐसी बहुत सारी पार्टियां हैं और केंद्र में बीजेपी को अगले चुनावों में स्पष्ट बहुमत की संभावना तो बिलकुल नहीं देखी जा सकती. तो क्या सहयोगी दलों के साथ मोदी की स्वीकृति होगी."

मोदी की माया

इन सबके बावजूद नरेंद्र मोदी अपने सादे जीवन से लोगों को जरूर प्रभावित करते हैं. साठ के दशक में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान उन्होंने युवा अवस्था में ही स्वयंसेवी के तौर पर काम किया और मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कहते हैं कि उनके सिर्फ तीन निजी स्टाफ हैं. लेकिन उनका राजनीतिक घमंड भी अजीब है. विजय त्रिवेदी बताते हैं, "पार्टी के भी बहुत सारे लोग उनसे नाराज रहते हैं कि वह आम तौर पर सबसे नमस्कार भी नहीं करते. मैंने उनसे पूछा कि आप इस बात के लिए क्यों नाराज करते हैं. तो उन्होंने कहा कि मैं ऐसा ही हूं." त्रिवेदी का मानना है कि इस अंदाज में बड़ी कामयाबी मुमकिन नहीं, "हिन्दुस्तान में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिलेगा कि जिसमें आप सबको साथ लिए बगैर कहीं पहुंच पाए हों, खास तौर पर लाल किले पर."

रिपोर्टः अनवर जे अशरफ

संपादनः महेश झा

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