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यौनकर्मियों के बच्चों का स्कूल

२३ नवम्बर २०१३

वह भारतीय समाज हो या दुनिया का कोई और देश, यौनकर्मियों को समाज का एक अलग ही हिस्सा समझा जाता है. ऐसे में अगर कोई उनके बच्चों को गोद लेने लगे तो सामाजिक प्रतिक्रिया का अनुमान लगाया जा सकता है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

ऐसा ही हुआ वाराणसी के अजीत सिंह के साथ, जब उन्होंने यह फैसला किया.

सिंह सिर्फ यहीं नहीं रुके, आज उनकी संस्था 'गुड़िया' यौनकर्मियों के बच्चों के लिए स्कूल चलाती है. वह चाहते हैं कि इन लोगों की आने वाली पीढ़ी बेहतर जीवन चुन सके. अपनी संस्था के जरिए 1988 से वह देह व्यापार और मानव तस्करी के खिलाफ कोशिशों में लगे हैं.

उन्होंने बताया कि जब वह 17 साल के थे तो एक करीबी की शादी में उन्होंने मंच पर एक यौनकर्मी को नाचते हुए देखा. उन्हें यह देख कर अच्छा नहीं लगा. सिंह ने महसूस किया यह सभ्य समाज की निशानी नहीं है. उसी दिन उन्होंने तय किया कि वह देह व्यापार में फंसी औरतों और उनके बच्चों के लिए जितना हो सकेगा, करेंगे.

वह बताते हैं उस रात वह सोचते रहे और एक और बड़ा फैसला किया, "25 साल पहले उस रात मैंने एक और फैसला किया,जिसने मेरी जिंदगी का रुख ही बदल दिया. अगली सुबह मैंने उस औरत से जाकर कहा कि मैं उसके बच्चों को गोद लेना चाहता हूं. वह मेरे ऊपर हंसने लगी. लेकिन मैंने उसका पीछा नहीं छोड़ा. 1990 में मैंने उसके बच्चों को गोद लिया." वह बताते हैं कि उस समय उन्हें बहुत ज्यादा सामाजिक विरोध झेलना पड़ा. वह एक बड़े परिवार से थे. उनका एक यौनकर्मी के बच्चों को गोद लेना लोगों को ठीक नहीं लगा.

अजीत सिंह ने कहा, "वह मेरे जीवन का सबसे कठिन समय था. वह गोलियों से छलनी होने से ज्यादा भयानक था. मुझे कई धमकियां मिलीं और मुझ पर कई बार हमले भी हुए. मेरे खिलाफ पुलिस में फर्जी मामले भी दर्ज हुए." इस सबके बावजूद वह अपने मकसद से पीछे नहीं हटे.

मजबूरी में कई औरतें देह व्यापार करने लगती हैंतस्वीर: picture-alliance/dpa

1988 में ही उन्होंने इन औरतों के बच्चों के लिए एक स्कूल खोला. अजीत के स्कूल में 18 साल से कम उम्र के करीब 80 बच्चे पढ़ते हैं. यह दूसरे स्कूलों जैसा ही दिखता है, जहां लंच के समय बच्चे अपने अपने डिब्बे खोल कर साथ खाना खाते दिखाई देते हैं. वे अपने कोर्स की बातें एक दूसरे से बता रहे होते हैं. कोई कक्षा में सीखी नई कविता सुना रहा होता है तो कोई पहाड़ा. इन्हीं बच्चों में से एक माया कहती है, "मैं बड़ी होकर पत्रकार बनना चाहती हूं. मैं अपना सपना पूरा करना चाहती हूं. यह काम अच्छा नहीं है, बड़े होकर पत्रकार बन कर मैं इसे मिटाना चाहती हूं."

सिंह की संस्था गुड़िया को चलाने में उनकी पत्नी मंजू बराबरी से हाथ बंटाती हैं. माया जैसे बच्चों ने अपनी मां या नानी को कष्ट भरा जीवन जीते देखा है, 'गुड़िया' में उन्हें सपने सच करने की हिम्मत मिल रही है.

अजीत सिंह का कहना है कि इस काम में उन्हें सबसे बड़ी दिक्कत अपराधी गुटों के कारण आती है क्योंकि उनके बड़े बड़े नेटवर्क हैं, वे इन औरतों को कई बार कैद करके रखते हैं, बच्चों की तस्करी करते हैं, उनके साथ मारपीट भी करते हैं. भारत में अपराधियों को पुलिस का साथ मिलने से भी उनकी हिम्मत काफी बढ़ जाती है, इन लोगों की पुलिस के साथ भी साठगांठ होती है. ऐसे में उनके खिलाफ कोई कदम उठाना या उन्हें रोक पाना बहुत मुश्किल होता है. इसके अलावा कई बार उन्हें राजनेताओं की भी छत्रछाया मिली होती है जिससे कोई उन्हें आसानी से नुकसान नहीं पहुंचा सकता.

अजीत सिंह की कोशिश है कि वह ज्यादा से ज्यादा यौनकर्मियों के बच्चों को बेहतर जीवन का विकल्प दे सकें. उन्हें इस लायक बना सकें कि वे अपने लिए अपनी मर्जी का काम चुनें. उनकी गैरसरकारी संस्था मानव तस्करी और देह व्यापार के खिलाफ लड़ रही है. उन्होंने ऐसे कई ठिकानों पर छापे डलवाकर कई औरतों को रिहा भी कराया है.

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्टों के अनुसार भारत में अभी भी बंधुआ मजदूरी, मानव तस्करी और देह व्यापार के मामलों में ज्यादा सुधार नहीं हुआ है. भारत के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में करीब 30 लाख लोग देह व्यापार में लगे हैं. इनमें 12 लाख की आयु 18 साल से कम है.

रिपोर्टः जनक रॉजर्स/एसएफ

संपादनः ए जमाल

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