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यौन उत्पीड़क पर नहीं उसके धर्म पर बहस

कबीरा ज़ाएन२६ नवम्बर २०१५

एक पारंपरिक भारतीय परिवार में पैदा होने के नाते होठों पर चूमना क्या होता है यह ना परिवार में देखा ना इर्द गिर्द. पहला अनुभव था सात साल की उम्र में जब धार्मिक शिक्षा के लिए रखे गए व्यक्ति ने ऐसा करके दुलार जताया.

तस्वीर: Fotolia/Kitty

ऐसी कोशिश वह हर रोज ही करता था. लेकिन जैसे जैसे उम्र बढ़ती गई समझ में आया कि उसके जैसे लोग तो भारतीय समाज में भरे पड़े हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि वे उसकी तरह सिर पर टोपी और ऊंचे पाजामे के साथ कुर्ता नहीं पहने रहते. कभी रिक्शेवाले की शक्ल में, कभी परिवार के किसी मित्र की सूरत में तो कभी स्कूल के बाहर खड़े अनजान लोगों ने किसी ना किसी हरकत से जताया कि हमारे होते हुए तुम्हारा शरीर कहीं भी सुरक्षित नहीं है.

वक्त के साथ धीरे धीरे एहसास हुआ कि मैं तो ऐसी किसी भी लड़की को नहीं जानती जिसके साथ कभी ना कभी यौन शोषण की घटना भारत में ना हुई हो. अगर भारत की लगभग 80 फीसदी लड़कियों के साथ अनगिनत बार ऐसी घटनाएं लगातार हो रही हैं, तो क्या ऐसा करने वाला हर शख्स किसी मदरसे का मुल्ला, किसी मठ का महंत या किसी गिरजाघर का पादरी है? अगर नहीं, तो फिर बहस सिर्फ इन्हीं तक क्यों सीमित रह जाती है, अपराध की जड़ तक क्यों नहीं जाती? असल में समस्या पर नहीं धर्म पर बहस हमारा सबसे बड़ा मनोरंजन का साधन बन गया है.

जब सोशल मीडिया पर केरल की पत्रकार वीपी रजीना के पोस्ट पर हल्ला मचते देखा तो बचपन से जवानी तक जिस्म पर सिले तमाम टांके एक बार फिर उधर गए. रजीना ने अपने बचपन के बारे में फेसबुक पोस्ट पर उन घटनाओं का जिक्र किया था जिन्हें उन्होंने मदरसे में अपने सहपाठियों के साथ शिक्षकों द्वारा यौन उत्पीड़न के रूप में देखा था. सोशल मीडिया भी कहां भूलने देता है कि भारत में मजहब से बड़ा मुद्दा कोई और नहीं, यहां तक अपने बच्चों का यौन उत्पीड़न भी नहीं. घटनास्थल कथित तौर पर एक मदरसा था तो रजीना को धमकियां तो मिलनी ही थीं. धर्म पर प्रहार के आरोप के बाद उनका फेसबुक अकाउंट ब्लॉक कर दिया गया.

वह भूल जो गई थी कि यौन उत्पीड़न की जगह रेल की पटरी, घर का बाथरूम, या ऑफिस की लिफ्ट हो सकती है लेकिन मदरसा नहीं. अफसोसनाक बात है कि एक बार फिर वही हो रहा है जो हमेशा से होता आया है, घटना कहां हुई इस बात की चर्चा है, कथित आरोपी का संबंध किस समुदाय से है, इस बात की भी चर्चा है, ये घटनाएं देश की आधी से ज्यादा लड़कियों के साथ क्यों होती रही हैं इस पर बहस नहीं है.

किसी व्यक्ति का धार्मिक कार्यों से जुड़ा होना या धर्म का ज्ञानी होना क्या इस बात का सर्टिफिकेट है कि वह सही मायनों में इंसान भी है? आखिर यह स्वीकार करना क्यों मुश्किल है कि कोई भी मजहब इस तरह के कुकर्म की ना तो सीख देता है ना इजाजत. अपराध करने वाला अपराधी होता है किसी धर्म विशेष का प्रतिनिधि नहीं. बाल यौन शोषण करने वाले भारत के हर कोने में, हर तबके में, हर रूप में बैठे हैं. बहस बीमारी की नहीं मरीज के चोले की हो रही है. और फिर अपराधी क्यों नहीं चाहेगा कि वह किसी ऐसे सामाजिक या धार्मिक पद का मालिक हो जहां उस पर शक ना किया जाए. आरोपी कभी किसी मदरसे का मौलवी होता है, कभी आसाराम जैसा धर्म गुरू, तो कभी अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया जैसे विकसित देशों के चर्च का पादरी. अपराधी को अपराधी की तरह देखें, धर्म के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं. वे लगातार आंखों में धूल झोंक धर्म पर हमले की तलवार समाज के हाथ में थमा देते हैं और समाज डट कर उनकी हिफाजत करता है.

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