वॉरंटी खत्म होते ही नई इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस खराब हो गई. रिपेयरिंग भी नहीं हो सकी. यूरोप और अमेरिका में अब मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों पर "राइट टू रिपेयर" की लगाम कसने की तैयारी हो रही है.
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यूरोपीय संघ और अमेरिका के पर्यावरण संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक कंपनियों की मनमानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. वे "राइट टू रिपेयर" यानि मरम्मत करने का अधिकार की मांग कर रहे हैं. यूरोपीय संघ के कई देशों के पर्यावरण मंत्री मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों को इससे जुड़े प्रस्ताव भेज चुके हैं. प्रस्तावों में कहा गया है कि निर्माता ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाएं जो लंबे समय तक चलें और आसानी से रिपेयर किए जा सकें.
प्रस्ताव लाइटिंग, टेलिविजन और लार्ज होम एप्लाइंसेस बनाने वाली कंपनियों को भेजे गए हैं. अमेरिका में भी 18 राज्य राइट टू रिपेयर जैसा कानून लागून करने पर विचार कर रहे हैं.
मैन्युफैक्चरिंग कंपनियां अब तक यूरोपीय संघ के प्रस्तावों का विरोध करती आई हैं. कंपनियों का कहना है कि रिपेयरिंग से जुड़े प्रस्तावित कानून बहुत सख्त हैं और इनसे नई खोजों में बाधा पड़ेगी.
वहीं ग्राहक अधिकारों की वकालत करने वालों का आरोप है कि यूरोपीय संघ रिपेयरिंग के मामले में मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों पर नर्म रुख दिखा रहा है. एक प्रस्ताव के मुताबिक कुछ प्रोडक्ट्स को सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग कंपनी के प्रशिक्षित कामगार ही रिपेयर करेंगे. यूरोपीय पर्यावरण ब्यूरो (ईईबी) के मुताबिक, "इसकी वजह से स्वतंत्र मैकेनिक स्पेयर पार्ट्स और जानकारी हासिल नहीं कर सकेंगे. इससे संभावनाएं और किफायती मरम्मत की सीमाएं सीमित होंगी." स्मार्टफोन, टैबलेट और स्क्रीन को भी इसमें शामिल किए जाने की मांग हो रही है.
एक शोध के मुताबिक 2004 में घरेलू कामकाज की 3.5 फीसदी इलेक्ट्रॉनिक मशीनें पांच साल बाद खराब हो रही थीं. 2012 में यह खराबी का अनुपात बढ़कर 8.3 फीसदी हो गया. रिसाइक्लिंग सेंटरों में 10 फीसदी से ज्यादा ऐसी वॉशिंग मशीनें आईं, जो पांच साल से पहले ही खराब हो गईं. यूरोप में बिकने वाले कई लैंपों में बल्ब बदलने का विकल्प नहीं है. एक बल्ब के खराब होते ही पूरा लैंप बदलना पड़ता है.
(मुसीबत बना ई कचरा)
मुसीबत बना ई कचरा
इंसानी जिंदगी में इलेक्ट्रिक और इलेक्ट्रॉनिक चीजों का दखल लगातार बढ़ता जा रहा है. बेशक इनसे हमारी जिंदगी आसान हुई है लेकिन इनकी वजह जमा होने वाले टनों ई-कचरे के बारे में भी सोचना होगा.
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बेतहाशा वृद्धि
संयुक्त राष्ट्र यूनिवर्सिटी की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले पांच साल के दौरान पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में ई-कचरे की मात्रा में 63 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
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चीनियों की भूख
रिपोर्ट में इस वृद्धि की बड़ी वजह चीन के मध्य वर्ग में नए इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की भूख को बताया गया है. ई-कचरे में खराब हुए कंप्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल फोन, रिमोट कंट्रोल और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान शामिल हैं.
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12 इलाकों में स्टडी
यूएन की रिपोर्ट में पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया में कंबोडिया, चीन, हांगकांग, इंडोनेशिया, जापान, मलेशिया, फिलिपींस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, ताइवान, थाइलैंड और वियतनाम में ई-कचरे से बारे में जानकारी जुटाई गई.
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कितना ई-कचरा
रिपोर्ट के मुताबिक 2010 से 2015 के बीच इन जगहों पर 1.23 करोड़ मीट्रिक टन ई-कचरा जमा हुआ. 2005 से लेकर 2010 की अवधि से तुलना करें तो हालिया पांच साल के भीतर ई-कचरे में 63 प्रतिशत का उछाल आया है.
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चीन यहां भी अव्वल
शोधकर्ताओं का कहना है कि अकेले चीन ने पांच सालों में 67 लाख मीट्रिक टन का ई-कचरा पैदा किया और इस तरह उसके यहां 107 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है.
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अमेरिका और चीन
यूएन की 2014 की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि दुनिया में जितना भी ई-कचरा पैदा होता है, उसके एक तिहाई यानी 32 प्रतिशत हिस्से के लिए केवल दो देश अमेरिका और चीन जिम्मेदार हैं.
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प्रति व्यक्ति हिसाब
प्रति व्यक्ति के हिसाब से देखें तो क्षेत्र में ई-कचरा पैदा करने में हांगकांग अव्वल है. वहां 2015 में प्रति व्यक्ति 21.5 किलो ई-कचरा पैदा हुआ जबकि इसके बाद सिंगापुर (19.95 किलो) और ताइवान (19.13 किलो) का नंबर आता है.
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गैरकानूनी डंपिंग
यूएन रिपोर्ट कहती है कि कई देशों में ई-कचरे से निपटने के कानून होने के बावजूद वहां गलत और गैरकानूनी तरीके से डंपिंग हो रही है. ई-कचरे को सही तरीके ना निपटाए जाने से इंसान और पर्यावरण दोनों पर बुरा असर होता है.
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रीसाइकिल कारोबार
कई देश अपना ई-कचरा रीसाइकिल करवाने चीन भेजते हैं. वहां इनमें से कई चीजों को थोड़ी मरम्मत के बाद दोबारा सस्ते दामों में बेच दिया जाता है. बाकी के अंदरूनी हिस्सों को अलग कर सोने या तांबे जैसी धातुएं निकाल ली जाती हैं.
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भारी कीमत
ऐसे निपटारे के कारोबार के कारण पर्यावरण को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. भट्टी में ई-कचरे को जलाया जाता है. प्लास्टिक और केमिकल के जलने से धुआं वायु को प्रदूषित करता है. पानी और हवा में हानिकारक तत्व घुल रहे हैं.
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एक अनुमान के मुताबिक 2018 में दुनिया भर में 5 करोड़ टन ई-कचरा जमा हुआ. इस कचरे में कंप्यूटर प्रोडक्ट्स, स्क्रीन्स, स्मार्टफोन, टैबलेट, टीवी, फ्रिज, वॉशिंग मशीन और हीटिंग या कूलिंग वाले उपकरण सबसे ज्यादा थे. इसमें से सिर्फ 20 फीसदी कचरे की रिसाइक्लिंग हुई, बाकी खुली जमीन या नदियों और समंदर तक पहुंच गए. उत्पादन और कचरा प्रबंधन में बहुत ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है. कई इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में हानिकारक रसायन भी होते हैं जो जमीन और भूजल को भी दूषित करते हैं.
इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा करने के मामले में भारत दुनिया का पांचवा बड़ा देश है. भारतीय शहरों में पैदा होने वाले इलेक्ट्रॉनिक कचरे में सबसे ज्यादा कंप्यूटर होते हैं. ऐसे ई कचरे में 40 फीसदी सीसा और 70 फीसदी भारी धातुएं मिलीं.