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राजनीतिक दलों के चंदों में कैसे आएगी पारदर्शिता

मारिया जॉन सांचेज
५ फ़रवरी २०१८

समय समय पर भारत में चुनाव सुधारों की बात होती रहती है, लेकिन राजनीतिक दलों के लिए धन जुटाने का मुद्दा अहम मुद्दा रहा है. समस्या के समाधान के लिए सरकार की चुनावी बॉन्ड की योजना भी विवादों में है.

Indien Wahlen Uttar Pradesh
तस्वीर: picture alliance/dpa/S. Kumar

सभी जानते हैं कि खर्चीले चुनाव राजनीति में भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा कारण हैं. चुनाव लड़ने के लिए धन की जरूरत पड़ती है. आजादी के बाद भारतीय राजनीति और उसमें सक्रिय राजनीतिक दलों का जिस तरह से विकास हुआ है, उसमें अब पार्टियां जनता से मिलने वाले चंदे या आर्थिक मदद पर निर्भर नहीं रह गयी हैं. वे लगभग पूरी तरह बड़े कॉरपोरेट घरानों से मिलने वाले धन और सत्ता प्राप्त करने के बाद किए गए भ्रष्टाचार से कमाए धन पर निर्भर हैं. भारत में चुनाव सुधारों और चुनावों की राज्य द्वारा फंडिंग के बारे में अक्सर बातें तो बहुत की जाती हैं, लेकिन अमल में कुछ भी नहीं किया जाता.

पश्चिम के अनेक विकसित लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक दलों को मिलने वाले धन के बारे में कई तरह के सख्त क़ानून लागू हैं जो राजनीतिक प्रकिया और चुनावी अभियान को पारदर्शी बनाना सुनिश्चित करते हैं. इन पर कड़ाई से पालन भी किया जाता है. लंबे समय तक पहले पश्चिम जर्मनी और बाद में एकीकृत जर्मनी के चांसलर रहे हेल्मुट कोल पर तो पार्टी के लिए गैर-कानूनी ढंग से चंदा इकट्ठा करने के आरोप में भारी जुर्माना भी लगाया गया था जबकि स्वयं अपने लिए उन्होंने धन नहीं लिया था. भारत की दो सबसे बड़ी पार्टियां---सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और विपक्षी कांग्रेस पार्टी---धन इकट्ठा करने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए वादे करती रही हैं लेकिन उनकी कारगुजारियां अक्सर इन वादों के विपरीत ही होती हैं.

तस्वीर: DW/S. Wahhed

पिछले वर्ष केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट में चुनावी बॉन्ड की योजना पेश करते हुए दावा किया था कि इनके कारण पूरी पारदर्शिता न भी आ पाए पर फिर भी फंडिंग पहले की अपेक्षा काफी अधिक पारदर्शी हो जाएगी क्योंकि राजनीतिक दलों को नकद के बजाय बॉन्डों के रूप में धन मिलेगा जो बैंकों से खरीदे जाएंगे और प्राप्त की गयी धनराशि के बारे में राजनीतिक दाल निर्वाचन आयोग को सूचित करेंगे लेकिन उनका स्रोत नहीं बताएंगे.

मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) ने इस दावे को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है और आरोप लगाया है कि इन बॉन्डों के कारण लोकतंत्र की नींव कमजोर होगी और राजनीतिक भ्रष्टाचार काम होने के बजाय और अधिक बढ़ेगा. अन्य विपक्षी दलों और स्वयं निर्वाचन आयोग ने इस योजना के बारे में संदेह प्रकट किया था.

समस्या यह है कि क्योंकि बैंकों को पता होगा कि किस राजनीतिक दल के लिए किस व्यक्ति या कंपनी ने कितनी धनराशि के बॉन्ड खरीदे, इसलिए यह जानकारी और किसी को हो न हो, सरकार को जरूर होगी. इस जानकारी का इस्तेमाल विपक्ष को धन देने वालों को परेशान करने के लिए किया जा सकता है. दिलचस्प बात यह है कि किसी को भी पता नहीं चल पाएगा कि सत्तारूढ़ पार्टी को किसने कितना धन दिया. सीपीएम ने इसी पर आपत्ति करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.

यह एक जायज सवाल है कि राजनीतिक पार्टियों को अपने चंदे का स्रोत बताने में आपत्ति क्यों है? जहां तक कम्युनिस्ट पार्टियों का सवाल है, वे अपने मुखपत्रों में चंदा देने वालों के नाम प्रकाशित करती हैं, लेकिन शायद उनके पास भी बहुत बड़ी रकमें अज्ञात स्रोतों से ही आती हैं. यदि सरकार सभी पार्टियों के लिए धन का स्रोत सार्वजनिक करना अनिवार्य कर दे तो यह समस्या ही समाप्त हो जाएगी. लेकिन क्या कोई सत्तारूढ़ पार्टी ऐसा करेगी?

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