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राजनीति को महिलाओं के लायक बनाइए

८ मार्च २०१६

किसी भी देश या समाज की भागीदारी में महिलाओं की समान भागीदारी अपरिहार्य है. भारत को यह समझना होगा कि महिलाओं की बराबरी सुनिश्चित नहीं कर वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है.

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तस्वीर: Reuters

पूरी दुनिया की तरह भारत भी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रहा है. मनाना भी चाहिए, क्योंकि आजादी के बाद महिलाओं को राष्ट्रीय मुख्य धारा में जोड़ने में बहुत कामयाबी मिली है. इसका श्रेय स्वतंत्रता संग्राम में शामिल बहुत सी महिला नेताओं को भी जाता है जिन्होंने अंग्रेजों को भगाने की लड़ाई अगली कतारों में लड़ी. भीकाजी कामा, सरोजिनी नायडू, अरुणा आसफ अली, लक्ष्मी सहगल, मुथुलक्ष्मी रेड्डी, प्रीतिलता वाडेदार, उनकी सूची काफी लंबी है. उन्होंने आजादी के बाद भी महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने का संघर्ष जारी रखा. और सबसे अच्छी बात है कि महिला दिवस विचारधाराओं से स्वतंत्र होकर मनाया जा रहा है. ऐसा हर दिन नहीं होता कि देश और उसके नागरिक किसी मामले पर एकजुट हों.

महेश झा

किसी और दिवस की तरह इसे भी पराया दिवस समझा जा सकता है क्योंकि इसकी शुरुआत यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वामपंथी महिला संगठनों ने बराबरी और मतदान के अधिकार की मांग के साथ की थी. बाद में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इसे मान्यता दे दी. और वामपंथी संगठनों द्वारा शुरू किया गया यह दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाता है. मनाया भी जाना चाहिए क्योंकि कई देशों में महिलाएं मतदान के अधिकार से अभी भी वंचित हैं. समाज में बराबरी का सपना अभी भी सपना ही है. इतना ही नहीं उसमें लगातार बाधाएं भी डाली जा रही हैं.

वसुधैव कुटुंबकम के सिद्धांत वाले भारत के लिए अजीब भी होगा कि वह अपना और पराया की बहस में फंसे. समाज में लोगों की स्थिति बहुत कुछ अर्थव्यवस्था से जुड़ी होती है. पुरुषों और महिलाओं की बराबरी भी. भारत अपने प्राचीन इतिहास पर गर्व करता है, विश्व व्यापार में अंग्रेजों के आने से पहले भारत के हिस्से की भी गौरव से चर्चा होती है. लेकिन इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए कि उस समय की आर्थिक संरचना में महिलाओं को ज्यादा बराबरी थी.

भारत गांवों का देश है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवार द्वारा किए जाने वाले सकल उत्पादन में उनका हिस्सा और उसका मूल्य पुरुषों से बहुत कम नहीं था. बदलती आर्थिक संरचनाओं के हिसाब से समाज को बदलना चाहिए था, लेकिन भारतीय समाज बदलाव में लगातार रोड़े अटका रहा है. वह कमाई आधुनिक तरीके से करना चाहता है, सुविधाएं 21वीं सदी की उठाना चाहता है, लेकिन अपने तौर तरीके बदलने और अपने डर को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. यह समाज के ठहराव और विकास की धीमी गति की सबसे बड़ी वजह है.

भारत में महिलाओं के लिए इस समय सबसे बड़ी समस्या सुरक्षा की है. घर के बाहर की असुरक्षा के अलावा अब घर के अंदर की सुरक्षा भी गंभीर हो गई है. सड़कों पर गुंडागर्दी बढ़ी है, महिलाओं का घर से बाहर निकलना असुरक्षित होता जा रहा है तो दूसरी ओर घर के अंदर यौन शोषण और घरेलू हिंसा के मामले उनका मनोबल तोड़ रहे हैं.

सरकार और समाज दोनों को ही महिलाओं को सुरक्षित माहौल देने का प्रयास बढ़ाना होगा, तभी वे विकास के फायदों और उनकी संभावनाओं का लाभ उठा पाएंगी. लोकतंत्र सब को हर संभावना देता है, चाहे वह कार्यकारी पदों पर काम करना हो या संसद और विधानसभा की सदस्यता के साथ कानून बनाने की जिम्मेदारी. लेकिन उसकी राह की बाधाओं को दूर करना समाज की चुनौती है. जब तक अर्थव्यवस्था में और सामाजिक राजनीतिक जीवन में महिलाओं की समान भागीदारी सुनिश्चित नहीं की जाती, समाज का विकास भी दूर की कौड़ी रहेगी.

ब्लॉग: महेश झा

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