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राजनेता, नौकरशाही और भ्रष्टाचार 

मारिया जॉन सांचेज
१८ जनवरी २०१८

भारत में अक्सर राजनीतिज्ञों, अधिकारी और गुंडों की धुरी की बात की जाती है. लेकिन ऐसे अधिकारी भी हैं जो कानून के हिसाब से काम करते हैं. उम्मीद बंधती है कि भारत को कानून का राज्य बनाना संभव है.

Indien Frauen im Polizeidienst
तस्वीर: Getty Images/AFP/C. Khanna

कर्नाटक की वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रूपा डी. मौद्गिल के एक भाषण की वीडियो रिकॉर्डिंग इन दिनों बहुत लोगों द्वारा देखी और सराही जा रही है क्योंकि इसमें उन्होंने बहुत बेबाकी के साथ एक पुलिस अधिकारी, खास कर महिला पुलिस अधिकारी के सामने आने वाली चुनौतियों और परेशानियों का वर्णन किया है. ये परेशानियां ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों के सामने ही आती हैं जिनके आचरण की सराहना नहीं, आलोचना की जाती है क्योंकि उनके ऊपर बैठे अधिकारी और राजनीतिक नेता उन्हें नौकरशाही के कामकाज के निर्बाध एवं सुचारु रूप से चलने की राह में कांटा समझते हैं.

रूपा मौद्गिल के साथ भी वही हुआ है जो अन्य ईमानदार अधिकारियों के साथ होता है, जल्दी-जल्दी तबादला. विधान परिषद की विशेषाधिकार समिति के सामने कई सालों तक लगातार पेशी और मानहानि के मुकदमे.

हरियाणा में तो एक आईएएस अधिकारी अशोक खेमका की किसी एक जगह काम करने की औसत अवधि चार माह के करीब है क्योंकि वे बड़ी मछलियों को पकड़ने से चूकते नहीं और फिर इसका खामियाजा भुगतते हैं. पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा और डीएलएफ कंपनी के बीच हुए भूमि अनुबंध को रद्द करने के कारण उन पर जांच तक बैठा दी गयी थी. 

दरअसल यह पूरी समस्या व्यवस्थागत भ्रष्टाचार और नौकरशाही के चरित्र से जुड़ी है. भारत की नौकरशाही, जिसमें पुलिस भी शामिल है, अंग्रेजी औपनिवेशिक राज की देन है. जाहिर है उसे औपनिवेशिक शासकों के हितों की रक्षा करने के लिए बनाया गया था और देश की आबादी को दबा कर रखना इस शासन को चलाने के लिए अनिवार्य था. इसीलिए ब्रिटिश पुलिस और ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत में तैयार किए गए पुलिस बल में बहुत भारी और बुनियादी अंतर है.

फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अंग्रेजी राज में नौकरशाही पर राजनीतिक दबाव बहुत कम था. लेकिन आजादी के बाद जैसे-जैसे राजनीति में मूल्यों का क्षरण होता गया, भ्रष्ट नेता विधानसभाओं और संसद में चुन कर आना शुरू हुए और मंत्री आदि बने, वैसे-वैसे नौकरशाही का भी राजनीतिकरण होता गया. अब तो स्थिति यह है कि अधिकारी खुलेआम राजनीतिक नेताओं के साथ जुड़े हुए हैं. वे कानून और संविधान के मुताबिक नहीं, अपने राजनीतिक संरक्षक की इच्छा के मुताबिक काम करते हैं.

बहुत-से ऐसे लोग मंत्री बन जाते हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं. उनकी सेवा करना भी पुलिस के मनोबल को गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. जान को खतरा होने के आधार पर पुलिस या अर्ध-सैनिक बलों के सुरक्षाकर्मियों को इनकी रक्षा करने की ड्यूटी पर लगाया जाता है क्योंकि नेता के चारों तरफ बंदूकधारियों का होना ऊंचे दर्जे का प्रतीक माना जाता है. 

क्योंकि उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार राजनेता और अफसरशाही के बीच सांठ-गांठ के बिना नहीं हो सकता, इसलिए भ्रष्ट अफसर नेताओं की हर जायज-नाजायज बात मानने के लिए तैयार रहते हैं. सरकारी सेवा के नियम भी अधिकारी को यह छूट नहीं देते कि वह मंत्री के गैर-कानूनी आदेश की भी अवहेलना कर सके. इसलिए बहुत कम अधिकारी नेता या मंत्री के सामने डट कर खड़े होने का साहस कर पाते हैं. 

भारतीय नौकरशाही और पुलिस के भीतर भी वही पुरुष वर्चस्ववादी धारणाएं और मूल्य भरे पड़े हैं जैसे समाज में हैं. स्त्री और उसकी निजता का सम्मान करना इनमें शामिल नहीं है. फिर एक स्त्री के तहत काम करना पुरुष अधिकारियों और पुलिसकर्मियों को अपमानजनक भी लगता है. इसीलिए महिला अधिकारियों के प्रति उनमें एक प्रच्छन्न चिढ़ का भाव रहता है. जाहिर है ऐसे में उन महिला अधिकारियों का आजादी और उत्साह के साथ काम करना भी कठिन हो जाता है. नौकरशाही और पुलिस में संरचनागत सुधार किए जाने की आवश्यकता कई दशकों से महसूस की जा रही है लेकिन कई आयोगों द्वारा रिपोर्टें देने के बावजूद इस दिशा में कुछ खास नहीं हो पाया है. जब तक ये सुधार नहीं होते, इनकी कार्यप्रणाली में विशेष बदलाव आने की उम्मीद नहीं की जा सकती. 

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