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राजीव का जाना और लिट्टे की उलटी गिनती

१९ मई २०११

श्रीपेरमबुदूर में 21 मई 1991 को हुए हमले में भारत ने राजीव गांधी के तौर पर एक होनहार नेता ही नहीं खोया, बल्कि यह भारत में पहला विदेशी आतंकवादी हमला था. लेकिन तमिल विद्रोहियों की उलटी गिनती भी शायद यहीं से शुरू हो गई.

एलटीटीई का झंडातस्वीर: AP

श्रीलंका में तमिलों के लिए अलग देश की मांग के नाम पर तीन दशकों तक चले जातीय संघर्ष से भारत शुरू से जुड़ा रहा. इसकी कई वजह हैं जिनमें श्रीलंका की तमिल आबादी से जातीय संबंध, रणनीतिक हित और भूराजनैतिक प्रभाव कायम करने की आकांक्षा. श्रीलंका में जब अलगगाववादी आंदोलन शुरू हुआ, तब भारत और खास कर तमिलनाडु में बहुत से संगठन लिट्टे से हमदर्दी रखते थे. लेकिन राजीव गांधी की हत्या और उससे पहले 1980 के दशक में श्रीलंका गई भारतीय शांति सेना के कड़वे अनुभव ने तस्वीर का रुख बदल दिया.

भारतीय शांति सेना का लिट्टे से सीधा तनावतस्वीर: AP

भारत और श्रीलंका के बीच 1987 में हुए शांति समझौते में लिट्टे अनमने ढंग से शामिल हुआ क्योंकि वह श्रीलंका में भारतीय सैन्य हस्तक्षेप नहीं चाहता था. इसीलिए वह समझौते के उस हिस्से को मानने को तैयार नहीं था जिसमें उससे हथियार डालने को कहा गया. फिर भी उसने समझौते की खातिर बहुत से हथियार सौंपे, लेकिन काफी कुछ अपने पास बनाए भी रखे. बताते हैं कि लिट्टे ने दूसरे उग्रवादी गुटों के सदस्यों को साफ किया ताकि वह आंदोलन का अगुवा बन सके.

हिंसा से मिली ताकत

अक्तूबर 1987 तक स्थिति यह पैदा हो गई कि भारतीय शांति सेना का लिट्टे से सीधा टकराव होने लगा. लिट्टे इस बात को फैलाने में भी कामयाब रहा कि भारतीय शांति सेना मानवाधिकारों का गंभीर हनन कर रही है. श्रीलंका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति राणासिंघे प्रेमदासा भी भारतीय शांति सेना की मौजूदगी के खिलाफ थे. अपने 1000 से ज्यादा सैनिकों को गंवाने के बाद आखिरकार भारत पर अपनी शांति सेना को बुलाने का दबाव था. इस बीच भारत में चुनाव हुए और 1989 में सत्ता राजीव गांधी के बाद सत्ता वीपी सिंह के हाथ में आई. उन्होंने श्रीलंका में शांति सेना के मिशन को नाकाम करार दिया और 1990 में शांति सैनिकों की वापसी का आदेश दिया.

इस कदम से लिट्टे को और ताकत मिली और उसने अलग तमिल राष्ट्र के लिए अपनी मुहिम तेज कर दी. भारत में 1991 में फिर चुनावों की बिसात सजी. राजीव गांधी ने श्रीलंका की एकता और अखंडता को बनाए रखते हुए तमिलों की समस्याएं हल करने पर बल दिया, जो साफ तौर पर अलग तमिल राष्ट्र के लिए लड़ रहे लिट्टे की विचारधारा के खिलाफ था. लिट्टे को लगता था कि वह अपना तमिल ईलम राष्ट्र पाने के करीब है, ऐसे में अगर राजीव गांधी भारत की सत्ता में लौटे तो उसके रास्ते की बाधा बन सकते थे. 21 मई 1991 को तमिलनाडु की एक चुनावी सभा में एक महिला आत्मघाती हमलावर धनु ने धमाका कर राजीव गांधी की जान ले ली. वैसे इसे पहले 1987 में कोलंबो में राजीव गांधी को परेड के दौरान निशाना बनाने की नाकाम कोशिश की गई थी.

विदेशी आतंकवाद की दस्तक

21 मई 1991 के हमले के जरिए भारत ने विदेशी आतंकवाद के खतरे को पहली बार महसूस किया. बेशक यह लिट्टे के लिए बड़ी कामयाबी थी. इससे उसका मनोबल बहुत बढ़ा. 1 मई 1993 को लिट्टे के आत्मघाती हमले में राष्ट्रपति प्रेमादासा की हत्या की गई. इससे चंद हफ्तों पहले ही श्रीलंकाई राजनेता और मंत्री ललित अथुलाथमुदाली की हत्या की गई.

इसके बाद भी कई हत्याओं और खतरनाक हमलों में लिट्टे का नाम सामने आया. हालांकि लिट्टे सैद्धांतिक रूप किसी तरह की आतंकवादी गतिविधि में शामिल होने से इनकार करता रहा, लेकिन उसे शायद ही किसी ने गंभीरता से लिया हो. घरेलू स्तर पर बहुसंख्यक सिंहली आबादी लिट्टे की हिंसा से तंग आ चुकी थी क्योंकि बातचीत की कोशिशों के बावजूद श्रीलंका में रह रह कर हिंसा की वारदातें होती रहीं.

लिट्टे पर कशमकश में रहे भारत और श्रीलंकातस्वीर: AP

भारत में लिट्टे को आतंकवादी संगठन तो घोषित किया गया लेकिन उससे निपटने पर हमेशा एक दुविधा की स्थिति रही है. अब भी भारत में मुख्यधारा और खास कर तमिलनाडु के कई राजनेता ऐसे बयान देते से गुरेज नहीं करते जो तमिलों की अस्मिता के नाम पर लिट्टे से हमदर्दी को जाहिर करते हैं.

आखिरकार अंत

1994 से 2005 तक श्रीलंका की राष्ट्रपति रही चंद्रिका कुमारतुंगा भी इसी कशमकश में रहीं. उन्होंने भी समस्या के हल के लिए लिट्टे से बातचीत की कोशिशें कीं. लेकिन कुमारतुंगा के बाद देश के राष्ट्रपति बनने वाले महिंदा राजपक्षे दशकों से खिंच रहे गृह युद्ध का खात्मा चाहते थे. श्रीलंकाई सेना के निर्णायक अभियान में मई 2009 में लिट्टे के प्रमुख वी प्रभाकरन और तमिल विद्रोह का अंत हो गया.

वैसे तीव्र राष्ट्रवाद की भावनाओं पर सवार राजपक्षे दूसरी बार भारी बहुमत से राष्ट्रपति भी चुने गए लेकिन उन पर मानवाधिकारों के हनन और युद्ध अपराधों के सिलसिले में सवाल उठ रहे हैं. विश्व बिरादरी श्रीलंकाई तमिलों के हितों को लेकर भी चिंतित है क्योंकि बहुसंख्यक सिंहली आबादी के लिए वे उसी तमिल 'अस्मिता' का प्रतीक हैं जिसकी खातिर उन्होंने तीन दशकों तक हिंसा और खून खराबे को झेला है.

राजीव गांधी की मौत ने भले ही लिट्टे के खात्मे की बुनियाद रख दी, लेकिन श्रीलंकाई तमिलों की मुश्किलें अभी बाकी हैं.

रिपोर्टः अशोक कुमार

संपादनः अनवर जे अशरफ

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