राहत शिविरों की यातना
२३ दिसम्बर २०१३सौ दिन से ज्यादा हो गए अपनी लुटीपिटी जिंदगियों के साथ हजारों लोग उन टेंटों में रहने को विवश हैं जहां राहत के सामने जलालत, भूख, बीमारी और मौत फैली हुई है. राहुल ये नहीं कहते कि चलो मेरे साथ मैं चलता हूं गांवों में तुम्हारे साथ, तुम्हारे डर को निकालने मैं भी वहां पर रहूंगा भले ही कुछ समय. अपने ही हमउम्र मुख्यमंत्री पर कुछ तोहमतें डालकर राहुल चले जाते हैं. बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार कुछ सौ किलोमीटर दूर रामराज बनाने का आह्वान करने आते हैं. यहां नहीं आते. इन शिविरों में भला उनका क्या काम.
राहत शिविर जैसे अन्याय के पंफलेट हैं. हमारी चेतना पर फड़फड़ाते हुए इंसाफ की मांग करते पर्चे. हमारा कुसूर क्या था हमसे आते जाते पूछते. हम सवालों के कैंप से निकलकर दुनियादारी और घरबार के कैंप में घुस जाते हैं. ये ठंड जकड़ सकती है. मीडिया खबरें कहती हैं कि 25 बच्चे मारे गए, किसी का आंकड़ा 30 और किसी का 40 का है.
मुजफ्फरनगर दिल्ली को पहाड़ से जोड़ता हुआ राष्ट्रीय राजमार्ग भी है. उत्तराखंड के लिए मुजफ्फरनगर एक काली रात ही रहा है. अलग राज्य के आंदोलन के लिए जाती महिलाओं के साथ बर्बरता की एक भयानक काली रात. 2013 के इन दंगों ने और इन तंबूओं ने 1994 की उस रात का दर्द और तीखा और गहरा कर दिया है. सितंबर में मुजफ्फरनगर की हिंसा के बाद हजारों परिवार बेघर है. घृणा और हिंसा से बेदखल एक भीषण वीरानी के हवाले हुए. राहत कैंपों की तस्वीरें देखकर लगता है कि क्या ये अपने ही उस देश की तस्वीरें हैं जहां अरबपति बढ़ते जाते हैं, एक से एक राजनैतिक हैरानियां हो रही हैं, प्रहसन तो कितने ही हैं, करोड़ों के वारेन्यारे हो रहे हैं, रैलियों में प्रबंध के लाखों करोड़ों खर्च किए जाते हैं, इतनी धूमधाम इतनी रंगीनी और इतनी सनसनी है.
तरक्की और आधुनिकता और अपार निर्माण की 21वीं सदी के इस देश की आबादी के एक हिस्से को इस तरह कैंपों में रहना पड़ता है. यातना और नई मुसीबतों के तंबू. जहां मौत तलवार भांजते या चाकू लहराते हुए या आग फेंकती हुई नहीं आती, वो पहले से ही वहां घात लगाए बैठी रहती है. उसके शिकंजे में सबसे पहले बच्चे आते हैं, स्त्रियां और बुजुर्ग और बीमार लोग. इन तंबूओं के बाहर एक भयावह खालीपन है. वहीं कहीं मासूमों की लाशें दफ्न हैं. देखकर ऐसा लगता है कि जैसे किसी युद्ध के बाद का मंजर. वहां स्कूल नहीं हैं, किताबें नहीं हैं, राशन जब तक है तब तक है, कंबल रजाई गद्दे और गरम कपड़े नाकाफी हैं, लकड़ियों की किल्लत है. ये लोग कौन हैं, क्या है उनका अपराध? वे क्योंकर अपने घरबार और खुशहाली को छोड़कर इन कैंपों में चले आए? क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उनके लिए कोई आसरा, कोई घर नहीं है? अपने ही घरों के ठीक बाहर शरणार्थी वे कैसे बन गए, किसने उन्हें इस नौबत में धकेला?
अब कौन लौटाएगा उन्हें? वे आखिर किसके भरोसे जाएं? ठंड और भूख से दम तोड़ देना उन्हें मंजूर है, पर उन भयावहताओं में लौटना नहीं जहां नफरत और हिंसा पता नहीं उनके लिए घात लगाए बैठी हो. वे उन घातों में दोबारा लौटने का साहस नहीं कर पा रहे हैं. पीठ पर और सीने पर वार करने वाले दिख जाएंगे. कैसे सामने पड़ेंगे उनके. तब ऐसे में कौन होंगे वे जो उन्हें ये सच्ची और ईमानदार दिलासा दें. उनके साथ जाएं, समाज के प्रदूषण को साफ करने जो चाहें मशीन ले जाएं, विचार ले जाएं, इंसान ले जाएं, लेकिन पीड़ितों और विस्थापितों को उनका हक, न्याय, सम्मान और घर लौटाएं.
क्या एक युवा मुख्यमंत्री के पास ये सब करने की ताब है. क्या वो सबकुछ छोड़छाड़कर सबसे पहले ये काम करने निकल सकता है मुजफ्फरनगर की काटती हवाओं में. जो गांव घर खाली हुए हैं वहां कानून के पहरे में लोग लौट आते. वो पहरा बना रहता. पड़ोस जब तक फिर से नहीं बन जाता. लेकिन ये भी तो दुश्चिंता है कि जिस खुराफाती और सांप्रदायिक एजेंडे के साथ ये दंगा गुजरा है सदियों का पड़ोस क्या फिर से वैसा हो पाएगा.
नए साल की ओर जाते देश में कुछ चीखें, कुछ विलाप, कुछ लाशें और जाहिर है हमेशा की तरह बहुत सारे सवाल भी जाएंगे. कोई खुशनुमा है कोई फातिमा कोई अनु किसी का तो नाम भी नहीं रखा जा सका है, इतनी जल्दी मौत ने उन बच्चों को झपट लिया. इन्हें हम ये कहकर खारिज शायद नहीं कर सकते कि ये तो महज ठंड और भूख और बीमारी से हुई मौतें हैं. ये भी तो एक तरह की हिंसा है. उस हिंसा का ही एक उतना ही क्रूर फॉलआउट.
राहत कैंपों की भीषण ठंड ने उन पहले से टूटे हुए कोमल जिस्मों में आखिरी आघात किया. वे मारे गए. मारे जाने के हालात लाने का कौन दोषी है, क्या हम कभी चिंहित करने की हिम्मत कर पाएंगे. या हम भी भय से ठिठुरे हुए ही रहेंगे, अपनी हड्डियों के ठंडेपन में और सिकुड़े हुए, नागरिक जवाबदेही को धूल की तरह झाड़ते हुए नए साल की रौनकों में चले जाएंगे. या आंख नीची कर अपनी अपनी फिक्रों का गणित करते रहेंगे.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
संपादन: महेश झा