राहुल गांधी के "जुमले" में कितना सच?
३१ जनवरी २०१९अगर राहुल गांधी की कही बात सच साबित हुई, तो यह गरीबों के लिए चलाई जाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी परियोजनाओं में से एक होगी जिसका फायदा लगभग 30 करोड़ लोगों को मिलेगा. हालांकि इस घोषणा के साथ ही व्यापारियों को यह चिंता सताने लगी है कि गरीबों के लिए पैसा जुटाने के लिए कहीं उन्हीं की जेब से अतिरिक्त टैक्स तो नहीं निकलवाया जाएगा.
साथ ही एक सवाल यह भी है कि अगर न्यूनतम आय देने के लिए सालाना अरबों रुपये खर्च होने लगे, तो क्या सड़कों और रेलवे जैसी सेवाओं पर खर्च घटा दिया जाएगा. क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो पहले से बदहाल मूलभूत संरचनाओं का और भी बुरा हाल हो जाएगा. दिल्ली स्थित एसोसिएशन ऑफ टूर ऑपरेटर्स के अध्यक्ष प्रोनब सरकार का कहना है, "हम इस तरह की मुफ्तखोरी के खिलाफ हैं. इसके लिए पैसा सिर्फ उद्योगों और मध्य वर्गीय लोगों से ज्यादा टैक्स निकलवा कर ही आ सकता है."
इसके विपरीत कांग्रेस का कहना है कि धन जुटाने के लिए सुनिश्चित किया जाएगा कि खाने और ईंधन से जुड़ी सब्सिडी सिर्फ उन्हीं लोगों तक पहुंचे जिन्हें इनकी वाकई जरूरत है. इसके अलावा कर ना चुकाने वालों के साथ भी सख्ती बरतने की बात कही गई है. पहचान गुप्त रखने की शर्त पर कांग्रेस के एक सदस्य ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहा कि सरकार में आने पर पार्टी रईसों के कर बढ़ाने पर विचार कर सकती है, "आखिरकार संसाधनों को अमीरों से गरीबों तक पहुंचाने की बात है."
कुछ महीनों पहले तक देश में मोदी लहर की बात हो रही थी लेकिन विधानसभा चुनावों में बुरे प्रदर्शन के बाद अब लगने लगा है कि आने वाले आम चुनावों में शायद कांग्रेस बीजेपी को कांटे की टक्कर दे सके. ऐसे में लोग अब राहुल गांधी की बातों को संजीदगी से ले रहे हैं. यही वजह है कि न्यूनतम आय वाले राहुल के वादे को ले कर अभी से हलचल होती दिखने लगी है. जहां एक तरफ इसे वोट बटोरने की चाल बताया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर व्यापारियों का डर उनसे वोट छीन भी सकता है.
कंफेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स के प्रवीण खंडेलवाल का कहना है, "कांग्रेस के इस चुनावी जुमले के कारण व्यापारियों और मध्य वर्गीय लोगों का झुकाव मोदी की ओर हो जाएगा क्योंकि आर्थिक रूप से तो वही पिसेंगे." वहीं कुछ लोगों का यह भी मानना है कि गरीबों की भलाई के लिए अमीरों को थोड़ा "त्याग" करना चाहिए.
राहुल गांधी ने जो कहा वो कब और कैसे मुमकिन हो सकेगा, इस बारे में तो अभी कुछ भी कहा नहीं जा सकता लेकिन यह जरूर है कि इस पर हर तरह की राय देखने को मिल रही है. सरकार के आर्थिक सलाहकारों के अनुसार सब्सिडी वाले मौजूदा कार्यक्रमों में फेरबदल करना आसान काम नहीं है. वहीं आर्थिक मामलों के कुछ जानकार तो यह भी कहते हैं कि अगर मौजूदा कार्यक्रमों में बदलाव किए बिना न्यूनतम आय योजना लाई जाती है, तो इससे अमीरों और गरीबों के बीच की खाई और भी गहरी हो जाएगी.
इंडिया रेटिंग्स के अर्थशास्त्री देविंद्र पंत का कहना है कि अगर भारत के 26 करोड़ लोगों को न्यूनतम आय के तहत महीने के पांच हजार रुपये दिए जाएं, तो साल में चार हजार अरब रुपये का खर्च आएगा, जो किसी भी सरकार के लिए निकालना आसान नहीं है. पंत के मुताबिक, "भले ही कोई भी पार्टी सरकार बनाए लेकिन अगले कुछ सालों तक सरकारी खर्च पर दबाव बना रहेगा."
आईबी/एनआर (रॉयटर्स)
ओईसीडी के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में सबसे ज्यादा न्यूनतम मजदूरी देने वाले 15 देश ये हैं.