प्राकृतिक संसाधनों के साथ साथ हथियारों का निर्यात रूसी अर्थव्यवस्था का बड़ा आधार है. बीते दो दशक में रूस अफ्रीका में हथियार बेचने का वाला सबसे बड़ा देश बन गया है. लेकिन रूस अफ्रीका में क्या हासिल करना चाहता है.
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रूस की सरकारी हथियार निर्यातक कंपनी रोसोबोरोनएक्पोर्ट ने अप्रैल में घोषणा की कि उसने पहली बार सब सहारा अफ्रीका के एक देश के साथ असॉल्ट बोट्स की आपूर्ति का एक कॉन्ट्रैक्ट किया है. यह बीते 20 साल में पहला मौका है जब रूस इस इलाके में रूस निर्मित कोई नौसैनिक साजोसामान निर्यात करने जा रहा है.
अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस खबर पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन यह नई डील एक सिलसिले की कड़ी है. रूस अफ्रीका में अपने पैर पसार रहा है और इस महाद्वीप में अपने हथियारों के लिए बड़ा बाजार तैयार कर रहा है.
सोवियत संघ के जमाने में रूस अफ्रीका में हथियारों का बड़ा आपूर्तिकर्ता था. लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद उसका असर वहां घटता चला गया. लेकिन 2000 आते आते रूस ने वहां अपना दखल बढ़ाना शुरू कर दिया और बीते दो दशक में वह अफ्रीका में हथियारों की आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा देश बन गया है. ये भी पढ़िए: रूस के इन हथियारों से सहम जाती है दुनिया
रूस के इन हथियारों से सहम जाती है दुनिया
शीत युद्ध के बाद से रूस को सैन्य रूप से कमजोर माना जाने लगा. लेकिन सीरिया के संघर्ष ने साफ कर दिया है कि रूस सैन्य रूप से बहुत ताकतवर है. रूस के पास ऐसे कई हथियार हैं जो मॉस्को को फिर से सुपरपावर बना सकते हैं.
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टी-14 टैंक
यह पांचवीं पीढ़ी का टैंक है. रूस ने इसे 2015 में लॉन्च किया. इस टैंक को रोबोटिक कॉम्बैट व्हीकल में भी बदला जा सकता है. हाल ही में रूस ने इस पर 152 एमएम की तोप लगाने का एलान किया है. रूसी उपप्रधानमंत्री दिमित्रि रोगोजिन के मुताबिक, यह तोप "एक मीटर मोटी स्टील की चादर को भेद सकती है."
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युद्धपोत प्योत्र वेलिकी
अटलांटिक महासागर में रूस के उत्तरी बेड़े का यह सबसे घातक युद्धपोत है. परमाणु ऊर्जा से चलने वाला यह युद्धपोत किरोव क्लास युद्धपोतों का हिस्सा है. नाटो इसे "विमानवाही पोतों का हत्यारा" कहता है. यह बैलेस्टिक मिसाइल को भी नष्ट कर सकता है.
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सुखोई टी-50
रूस का यह लड़ाकू विमान अमेरिका के हर तरह के लड़ाकू विमानों पर भारी पड़ता है. 2010 में पहली उड़ान के बाद रूस और भारत ने इसे साथ बनाने का फैसला किया. रणनीतिक साझीदारी के तौर पर रूस और भारत 2017 से इसे बड़े पैमाने पर बनाएंगे. लेकिन इस योजना पर वित्तीय मतभेद भारी पड़ रहे हैं.
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एस-400 मिसाइल
रफ्तार 17,000 किलोमीटर प्रति घंटा और 400 मीटर के दायरे में किसी भी लक्ष्य को भेदने की क्षमता के चलते पायलट इससे घबराते हैं. सीरिया के उडारान खामेमिम बेस में जब रूस ने इन मिसाइलों को तैनात किया तो अमेरिका को अपने लड़ाकू विमान वहां से हटाने पर मजबूर होना पड़ा. अब रूस एस-400 को और बेहतर कर रहा है.
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सुखोई एसयू-35
रूस का यह लड़ाकू विमान अमेरिका के एफ-16 पर भारी पड़ता है. इसका मुकाबला करने के लिए अमेरिका ने एफ-35 बनाया. लेकिन हाल ही में अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन के मुताबिक एफ-35 भी सुखोई से कमतर है. सुखोई एसयू-35 की तेज रफ्तार और जबरदस्त चपलता को टक्कर देना बहुत मुश्किल है.
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हाइपरसोनिक रॉकेट वाईयू-71
रूस काफी समय से परमाणु हथियारों के लिए हाइपरसोनिक मिसाइल बनाना चाहता था. "प्रोजेक्ट 4204" नाम के सीक्रेट कोड के साथ रूस ने वाईयू-71 बनाया. इसकी रफ्तार 12,000 किलोमीटर प्रतिघंटा है. जैन्स इंटेलिजेंस रिव्यू के मुताबिक यह मिसाइल आराम से नाटो के डिफेंस सिस्टम को भेद सकती है.
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लड़ाकू हेलीकॉप्टर एमआई-28एन
अमेरिकी कंपनी बोइंग के अपाचे लॉन्गबो लड़ाकू हेलीकॉप्टर रफ्तार और हथियारों की क्षमता के मामले में इससे पीछे हैं. रूस का यह हेलीकॉप्टर टैंक, बख्तरबंद गाड़ियों पर हमला कर सकता है. यह रात में भी उड़ता है.
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विमानवाही एडमिरल कुजनेत्सोव
एडमिरल कुजनेत्सोव दुनिया का अकेला विमानवाही पोत है जो कई तरह की एंटी बैलेस्टिक हथियारों और पनडुब्बी से लैस है. 1990 में पेश किया गया यह पोत अमेरिकी विमानवाही पोतों से उलट अकेला समंदर का सफर कर सकता है. वैसे 1991 में सोवियत संघ के विघटन के वक्त यह पोत यूक्रेन के हाथ लगने वाला था.
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Tupolev Tu-160M
टीयू-160एम इस वक्त दुनिया का सबसे बड़ा और भारी बमवर्षक है. रूसी पायलट इसे "सफेद हंस" कहते हैं. 2014 में आधुनिकीकरण के बाद टीयू-160एम की युद्ध क्षमता दोगुनी कर दी गई.
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परमाणु पनडुब्बी यूरी डोग्लोरुकी
बीते दशक में रूस ने बड़ी पनडुब्बियों के बजाए छोटी पनडुब्बियां बनानी शुरू कीं लेकिन यह जानलेवा साबित हुआ. यूरी डोग्लोरुकी के साथ रूस ने इस तकनीकी बाधा को दूर किया. साउंडप्रूफ होने की वजह से समंदर में इसका पता लगाना बहुत ही मुश्किल है. इसमें परमाणु हथियार लगाए जा सकते हैं.
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दुनिया भर में हथियारों पर नजर रखने वाली स्टॉकहोम स्थित संस्था सिपरी का कहना है कि इस समय अफ्रीका में बेचे जा रहे 49 प्रतिशत हथियार रूस से ही आ रहे हैं. वर्ष 2000 से अफ्रीका को होने वाले रूसी हथियारों के निर्यात में बड़ी वृद्धि देखी गई है. इस वृद्धि की वजह खासतौर से अल्जीरिया में रूसी हथियारों की सप्लाई है.
अफ्रीका पर रूस की नजर
अभी तक अफ्रीका में रूसी हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार अल्जीरिया है. इसके बाद मिस्र, सूडान और अंगोला का नंबर आता है. सिपरी में हथियार और सैन्य खर्च कार्यक्रम से जुड़े रिसर्चर आलेक्सांडर कुईमोवा कहते हैं कि 2000 की शुरुआत में रूसी हथियार खरीदने वाले अफ्रीकी देशों की संख्या 16 थी जो 2010 और 2019 के बीच बढ़ कर 21 हो गई.
रूस ने 2015 में तेल संसाधनों से मालामाल अंगोला को हथियार, खासतौर से लड़ाकू विमन और कॉम्बैट हेलीकॉप्टर बेचने शुरू किए. अंगोला के साथ रूस के संबंध भी बहुत अच्छे रहे हैं. रूस ने 1996 में अंगोला के 5 अरब डॉलर के कर्ज में से 70 फीसदी राशि 4,56 अरब डॉलर को माफ कर दिया था. ऐसे में अंगोला का रूसी हथियार खरीदना स्वाभाविक है.
अंगोला अफ्रीका में अल्जीरिया और मिस्र के बाद रूसी हथियारों का तीसरा बड़ा खरीददार है. बुल्गारिया, बेलारूस, इटली और चीन से भी अंगोला हथियार खरीदता है, लेकिन उनकी हिस्सेदारी बहुत कम है.
अल्जीरिया में भी कमोबेश यही हालात हैं. सोवियत संघ के जमाने से वह रूसी हथियार खरीदता रहा है. रूस ने 2006 में अल्जीरिया पर बकाया 5.7 अरब डॉलर के कर्ज को पूरी तरह माफ कर दिया था.
सोवियत संघ भले ही सालों पहले खत्म हो गया, लेकिन उसके इंजीनियरों के बनाये और युद्धों में इस्तेमाल किये गए हथियार आज भी दुनियाभर की सेनाएं इस्तेमाल कर रही हैं.
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मिखाईल कलाश्निकोव की राइफल
30 राउंड वाली एके 47 दुनिया की सबसे ज्यादा पहचानी जाने वाली राइफल है. सोवियत इंजीनियर मिखाईल कलाश्निकोव ने यह ऑटोमैटिक राइफल दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बनाई थी. सस्ती और भरोसे लायक होने की वजह से यह राइफल कई सेनाओं में बहुत जल्दी लोकप्रिय हुई. आज की तारीख में कई गुरिल्ला समूह और आपराधिक गिरोहों समेत दुनिया भर की कई सेनाएं इस बंदूक को इस्तेमाल कर रही हैं.
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बंदूक जो पहुंची अंतरिक्ष
9 एमएम की मार्कोव पिस्तौल का इस्तेमाल 1951 में हुआ. यह पिस्तौल सोवियत सेना, पुलिस और विशेष बल में प्रयोग की जाती थी. यहां तक कि सोवयत के अंतरिक्ष यात्री इसे अपनी खास किट में रख कर स्पेस की यात्रा पर गए. ये पिस्तौल उन्हें इसलिए दी गयी थी कि अगर वे किसी मुसीबत में फंस जायें तो इसका इस्तेमाल कर सकें
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अब भी उड़ रहा है मिग-29
मिग-29 1980 के शुरुआती सालों में बनना शुरू हुआ और इसकी गतिशीलता और चुस्ती की वजह से इसे खूब तारीफें मिलीं. हालांकि नाटो फाईटर्स और सुखोई ने अब इसे पीछे कर दिया है, लेकिन इसके कई विमान अब भी युद्धों में इस्तेमाल हो रहे हैं. रूसी वायुसेना सीरिया में इस्लामिक स्टेट को निशाना बनाने के लिए मिग-29 का इस्तेमाल कर रही है.
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द्वितीय विश्व युद्ध से अब तक
रेड आर्मी ने द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मन सैनिकों के खिलाफ विनाशकारी प्रभाव के लिए कत्युशास ट्रक का इस्तेमाल किया था. इन आर्मी ट्रकों में कई रॉकेट लॉन्चर जुड़े हुए थे. ये ट्रक काफी सस्ते थे और इन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता था. इन ट्रकों को आज भी इस्तेमाल में लाया जा रहा है. ईरान-इराक युद्ध, लेबनान युद्ध, सीरियाई गृह युद्ध समेत कई लडाइयों में अब भी कई सेनाएं इसका इस्तेमाल कर रही हैं.
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विशालकाय एस-300 वायु रक्षा तंत्र
साल 2016 में रूस ने ईरान को उन्नत हवाई रक्षा प्रणाली बेची थी. शीत युद्ध-युग संस्करण के एस-300 150 किलोमीटर दूर तक वार कर सकते थे. इसके नए संस्करणों को और सक्षम बनाया गया है, जो 400 किलोमीटर दूर तक वार कर सकते हैं. भारत और चीन दोनों एडवांस एस-300 को खरीदने का विचार कर रहे हैं.
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ड्रैगुनोव स्नाईपर राइफल
ड्रैगुनोव स्नाईपर राइफल सोवियत आर्मी में पहली बार 1963 में इस्तेमाल होना शुरू हुई थीं. तब से अब तक ये दुनिया भर के कई देशों में जा चुकी हैं. इन राइफलों का कथित तौर पर वियतनाम में अमेरिकी सैनिकों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था. 2015 में कुछ तस्वीरें सामने आई थीं, जिसमें इस्लामिक स्टेट की सेना के पास ड्रैगुनोव स्नाईपर राइफल दिख रही थीं.
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टी -34, एक युग का प्रतीक
रेड आर्मी की जर्मनी पर जीत के श्रेय का एक बड़ा हिस्सा टी-34 के नाम जाता है. टी-34 का लड़ाईयों में पहली बार 1941 में इस्तेमाल किया गया था. युद्ध में आजमाई गयी टी-34 तोपें बाद में दुनियाभर में सबसे ज्यादा बनाए जाने वाले टैंक साबित हुए. रूसी सेना अब भी इस तोप को विजय दिवस परेड में सबसे आगे खड़ा कर इसे सम्मान देती है.
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रूस का लक्ष्य
अफ्रीका में रूस की बढ़ती दिलचस्पी की वजह सिर्फ आर्थिक नहीं हैं, बल्कि इसके राजनीतिक और रणनीतिक कारण भी हैं. रूस बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था के अपने नजरिए में अफ्रीका की बहुत अहम भूमिका देखता है. कार्नेजी एंडोमेंट्स रशिया एंड यूरेशिया प्रोग्राम में सीनियर फेलो पॉल स्ट्रोस्की कहते हैं कि रूस यूरोपीय और ट्रांस अटलांटिक क्षेत्रों की बजाय बढ़ते और उभरे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है और इसीलिए वह जिम्बाब्वे और सूडान जैसे देशों से भी रिश्ते बढ़ा रहा है.
जिम्बाब्वे हिंसा और राजनीतिक उथल पुथल की वजह से 2000 से ही पश्चिमी प्रतिबंध झेल रहा है. दुनिया भर में जिम्बाब्वे की निंदा के बाजवूद रूस और चीन ने हमेशा उसका साथ दिया है. रूस ने जिम्बाब्वे को खाद्य उत्पाद, गेंहू और खाद से लेकर प्रिंटेड सामग्री, रेलवे कार और इलेक्ट्रोनिक सामान भी भेजा है. बदले में रूस जिम्बाब्वे से कॉफी और तंबाकू उत्पाद आयात करता है.
रूस जिम्बाब्वे में हीरे और सोने से जुड़े प्रोजेक्ट भी चला रहा है. दक्षिण अफ्रीका की राजधानी प्रिटोरिया में स्थित इंस्टीट्यूट फॉर सिक्योरिटी स्टडीज के रिसर्चर गुगु डुबे कहते हैं कि रूस कई अफ्रीकी देशों में कॉल्टन, कोबाल्ट, सोना और हीरे के खनन की परियोजनाएं चला रहा है.
स्टॉकहोम इंटरनेशल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) ने अपनी 2016 रिपोर्ट में बताया है कि साल 2011-15 के बीच वैश्विक हथियार व्यापार में 2006-10 के मुकाबले 14 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई. देखिए सबसे बड़े निर्यातक देश कौन हैं.
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1. अमेरिका
दुनिया के 58 देश हथियारों का निर्यात करते हैं जिनमें सबसे आगे है अमेरिका. यूएसए 96 देशों को हथियार भेजता है, जिनमें सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात उसके सबसे बड़े खरीदार हैं. 2015 के अंत में ही अमेरिका ने एफ-35 विमानों की बिक्री के एक बड़े ठेके पर हस्ताक्षर किए.
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2. रूस
दुनिया भर के हथियारों के कुल व्यापार में एक चौथाई हिस्सेदारी रूस की है. भारत, चीन और वियतनाम इसके सबसे बड़े खरीदार हैं. भारत के तो 70 फीसदी हथियार रूस से ही आते हैं. इसके अलावा अपने लड़ाकू विमानों, टैंकों, परमाणु पनडुब्बियों और राइफलों को रूस ने यूक्रेन समेत दुनिया के 50 देशों में भेजा.
पिछले सालों में चीन हथियारों के मामले में ज्यादा आत्मनिर्भर हुआ है और आयात कम कर निर्यात को बढ़ाया है. चीन ने पिछले साल 37 देशों को हथियारों की आपूर्ति की, जिनमें पाकिस्तान (35%), बांग्लादेश (20%) और म्यांमार (16%) इसके सबसे बड़े ग्राहक रहे. 2006-10 और 2011-15 के बीच चीनी हथियारों के निर्यात में 88 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई.
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4. फ्रांस
हालांकि फ्रेंच हथियारों के निर्यात में 2010 के बाद से 9.8% की कमी आई है, फिर भी वह दुनिया में चौथे नंबर का आर्म्स एक्सपोर्टर बना हुआ है. यूरोप में उससे बाद आने वाले जर्मनी से निर्यात कम हुआ है. हाल ही मिले कुछ बड़े ठेकों के कारण फ्रांस के अगले साल भी निर्यातकों के टॉप 5 में शामिल रहने का अनुमान है.
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5. जर्मनी
प्रमुख जर्मन हथियारों के निर्यात में वर्ष 2011-15 के बीच 51 फीसदी की कमी आई. इन सालों में जर्मनी ने अपने खास हथियार 57 देशों को भेजे. इन्हें आयात करने वालों में 29 प्रतिशत तो अन्य यूरोपीय देश ही थे. इसके बाद एशिया, अमेरिका, ओशिनिया को 23 प्रतिशत जबकि इतना ही मध्य पूर्व को बेचा गया. अमेरिका, इजरायल और ग्रीस जर्मन हथियारों के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं.
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6. ब्रिटेन
अगर सऊदी अरब (46%), भारत (11%) और इंडोनेशिया (8.7%) जैसे बाजार ना हों तो ब्रिटिश हथियार उद्योग दिवालिया हो जाएगा. साल 2006–10 और 2011–15 के बीच ब्रिटेन से हथियारों का निर्यात करीब 26 प्रतिशत बढ़ा. यूरोप में इसके बाद स्पेन और इटली का स्थान आता है.
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सस्ते हथियार, कोई जवाबदेही नहीं
अफ्रीका राजनीतिक रूप से एक अस्थिर इलाका माना जाता है. वहां कई देशों में विद्रोही और चरमपंथी गुट सक्रिय हैं. ऐसे में हथियारों की मांग वहां लगातार बढ़ रही है और रूस के लिए वह बड़ा बाजार बन रहा है. रूस अपने रक्षा उद्योग राजस्व का 39 फीसदी हथियारों की बिक्री से हासिल कर रहा है.
रूस और अफ्रीका मामलों की जानकर इरीना फिलातोवा कहती हैं, "रूसी हथियार अच्छे होते हैं. यह बात पूरी दुनिया मानती है. रूसी हथियार सस्ते भी होते हैं. तो कोई वजह नहीं है कि अफ्रीकी देश उन्हें ना खरीदें."
दूसरी तरफ हथियार बेचने वाले दूसरे बड़े देश जिस तरह से राजनीतिक और मानवाधिकार से जुड़ी शर्तें लगाते हैं, रूस ऐसा बिल्कुल नहीं करता. ऐसे में जिन देशों को अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियां हथियार नहीं देतीं, उनकी मांग रूस पूरी कर देता है. ऐसे रूस बेरोकटोक अफ्रीका में अपना आर्थिक और राजनीतिक असर लगातार मजबूत कर रहा है.