1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

रूस यूरोपीय सैन्य संधि से अलग

शिवप्रसाद जोशी१४ जुलाई २००७

नैटो देशों ने निराशा जतायी

यूरोप में सैन्य मामलों की संधि से रूस ने खुद को अलग कर लिया है। राष्ट्रपति ब्लादीमिर पूतिन ने संधि से अलग होने के फैसेल पर हस्ताक्षर कर दिए हैं। पिछले काफी समय से रूस इस संधि से हटने की धमकी देता रहा था। रूस इस संधि में कुछ संशोधन चाहता था जो नैटो देशों को मंज़ूर नहीं हैं। ये गतिरोध तबसे और सघन हो गया था जब अमेरिका पूर्वी यूरोप में अपनी मिसाईल शील्ड योजना लगाने का प्रस्ताल लेकर आया था। ब्रसेल्स से नैटो का एक बयान आया है जिसमें रूस के फैसले पर निराशा ज़ाहिर की गयी है। बाल्टिक देशों की यात्रा के दौरान जर्मनी के विदेशमंत्री फ्रांक वाल्टर श्टायनमायर ने लिथुआनिया में रूस के कदम पर गहरी चिंता जतायी। उनके मुताबिक ये संधि निरस्त्रीकरण की अंतरराष्ट्रीय पहल का केंद्रबिंदु रही है।

कंवेन्शनल फोर्सेज़ इन यूरोप यानी सीएफई की हथियार नियंत्रण की संधि पर तीन महीने पहले से ही रूस ने आगाह किया था कि अगर संधि में संशोधन नहीं किए जाते तो वो इससे हटने को विवश हो जाएगा। और अब रूस ने फैसले पर मुहर लगा दी है। नैटो देशों को रूस के कदम से झटका लगा है। राष्ट्रपति पूतिन के दफ्तर से जारी बयान में कहा गया कि रूस संधि और इससे जुड़े अंतरराष्ट्रीय समझोतों से अपने जुड़ाव को स्थगित करता है। इस बयान के जारी होने के फौरन बाद रूस के विदेश मंत्रालय ने भी एक बयान जारी किया जिसमें कहा गया है कि संधि से अलग होने का मतलब ये नहीं कि हमने बातचीत के लिए दरवाजे बंद कर दिए हैं।

पेरिस में नवंबर 1900 में इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले 22 देशों में नैटो देशों के अलावा वे देश भी हैं जो पूर्व वारसा समझौते में शामिल रहे थे। शीत युद्ध के खात्मे के बाद यूरोप का ये सबसे अहम सुरक्षा समझौता माना जाता है। जिसके तहत सैनिक टकराव को खत्म कर समूचे यूरोप में नए पैटर्न वाले सुरक्षा संबंध विकसित करने पर ज़ोर दिया गया था। यूरोप की पारंपरिक सैन्य ताकतों के बीच एक सुरक्षित और स्थिर संतुलन बनाना भी इस संधि का मकसद है। 1992 में ये लागू कर दी गयी। तबसे यूरोप में 60 हज़ार सैन्य उपकरणों को को कम कर दिया गया या उन्हें नष्ट कर दिया गया। सैन्य संख्या में इससे भारी कटौती हुई और कुल मिलाकर सात लाख सैनिक हटा लिए गए।

वारसा समझौते के खत्म हो जाने के बाद 1999 में इस्तांबुल में सीएफई संधि में बदलाव करने पर सहमति बनी। और इसके दायरे मे आ गए तीस देश। हर सदस्य देश में हथियारों की तैनाती सीमित करने का प्रस्ताव रखा गया। यानी इंस्तांबुल में लाए गए प्रस्ताव के तहत प्रत्येक सदस्य देश को ये अधिकार रहेगा कि वो अपनी ज़मीन पर विदेशी फौज की स्वीकृति दे सकता है या नहीं। लेकिन पेंच ये है कि कई सदस्य देशों खासकर नैटो देशों ने इस संधि की पुष्टि नहीं की है। यानी उस पर अपने समर्थन की मुहर नहीं लगायी है। जिन देशों की इस पर सहमति हो गयी है वे हैं रूस, बेलारूस, कज़ाकिस्तान और उक्रेन। रूस चाहता है कि जल्द से जल्द संधि की तसदीक कर दी जाए। ताकि पूर्व सोवियत संघ के बाल्टिक गणराज्य और अब स्वतंत्र देश देश जैसे एस्तोनिया, लातविया और लिथुआनिया इसमें जल्द हस्ताक्षर कर सकें। ये देश अब नैटो के सदस्य हैं और रूस को डर है कि वे नैटो के बड़े देशों के सैन्य ठिकाने न बन जाए।

रूस की नैटो देशों से यही मांग चली आ रही है कि वे नए प्रस्तावों को मंज़ूर करें। वरना इस संधि का कोई मायने नहीं। लेकिन नैटो देश अब तक इसे टालते आए हैं। उनका तर्क है कि इस्ताम्बुल में रूस इस बात पर भी राज़ी हुआ था कि वो जॉर्जिया और मोल्दोवा से अपनी सेना हटा लेगा। चूंकि उसने ऐसा अब तक नहीं किया लिहाज़ा वे भी साइन नहीं करेंगे।

माना जाता है कि संधि का एक छिपा हुआ इरादा ये भी था कि इलाके में रूस का सैन्य प्रभाव कम करना। रूस इस बात को जानता है लिहाज़ा वो इस आशंका के सहारे गतिरोध बनाए रखना चाहता है कि संधि का मौजूदा ढांचा उसके सामरिक हितों से टकराता है। अमेरिका की पोलेंड और चेक गणराज्य में मिसाईल शील्ड लगाने के इरादे ने उसकी आशंका और दलील को हवा दी है।
डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें