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रोजगार के असमंजस के बीच लौटने लगे प्रवासी

मनीष कुमार, पटना
१६ जून २०२०

लॉकडाउन के कारण लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर बड़ी मुश्किलों से अपने घर लौटे. अब रोजी-रोटी का मनमाफिक उपाय न होने से प्रदेश के कई हिस्सों से ये अब फिर पलायन करने लगे हैं. आखिर क्यों लौट रहे प्रवासी मजदूर फिर वापस?

Indien Patna Coronavirus Gastarbeiter
तस्वीर: DW/M. Kumar

लॉकडाउन की अवधि में प्रवासी कामगार जहां जिस हालत में थे वहां से नाना प्रकार के जतन कर अपने घर लौट आए. इस उम्मीद पर कि यहां कुछ भी करके परिवार वालों के साथ जीवनयापन कर लेंगे. अपेक्षा के अनुरुप सरकार भी सक्रिय हुई और रोजगार सृजन के विकल्पों पर विचार भी हुआ. प्रवासियों को घर में रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से उनका स्किल सर्वे और पंजीकरण शुरू किया गया ताकि उन्हें उनकी क्षमता के अनुरूप काम मिल सके. तात्कालिक उपायों के तहत उन विभागों में भी रोजगार के अवसर तलाशे गए, जहां अधिकांश काम मशीनों से कराया जा रहा था.  इसके तहत पथ निर्माण, पुल निर्माण, विकास निगम, जल संसाधन विभागों के मुख्य, अधीक्षण एवं कार्यपालक अभियंताओं को इस आशय का आदेश जारी किया गया कि मशीनों के बदले मानव बल का उपयोग किया जाए.

राज्य सरकार की चौबीस हजार करोड़ की महत्वाकांक्षी जल-जीवन-हरियाली अभियान के कायों में मशीनों की जगह प्रवासी श्रमिकों से काम लिया जाना तय हुआ. प्रवासियों के लिए जॉब कार्ड बनाए गए ताकि महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार योजना (मनरेगा) के तहत उन्हें गांव में ही काम मिल सके. साथ ही यह भी तलाशने की कोशिश की गई कि वर्तमान में जो औद्योगिक इकाइयां चालू हैं उनमें प्रवासी कामगारों को कैसे समायोजित किया जाए. लेकिन इन प्रयासों के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले. पेट की ज्वाला और अपनों के भरण-पोषण की बेचैनी प्रवासियों को पुन: लौटने को विवश कर रही है. रोजगार मुहैया कराने के सरकारी दावों के उलट प्रवासी मजदूर योजनाओं के हकीकत में तब्दील होने को लेकर असमंजस में हैं. वैसे भी बिहार से कामगारों के पलायन के जो कारण पहले थे, कमोबेश वही आज भी मौजूद हैं. कोरोना जैसी महामारी के बावजूद उसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है.

कभी मुश्किल से लौटे से प्रवासी मजदूरतस्वीर: DW/M. Kumar

जवाब दे रहा है कामगारों का धैर्य

सरकार के सभी विभाग अपने यहां रोजगार के अवसर सृजित कर रहे हैं और यह दावा भी कर रहे हैं कि प्रवासियों को रोजगार उपलब्ध कराया जा रहा है, लेकिन हकीकत इसके उलट है. इससे प्रवासियों का धैर्य टूट रहा है. उन्हें पलायन ही एकमात्र उपाय दिख रहा है. दरअसल, राज्य सरकार तात्कालिक तौर पर मनरेगा के जरिए ही रोजगार दे रही है. जिन्हें इससे काम मिला भी उन्हें महज 194 रुपये का भुगतान हो रहा है. हालांकि इसे बढ़ाकर 206 रूपये करने की योजना है. साथ ही सौ दिनों के कार्य दिवस को बढ़ाकर दो सौ दिन किए जाने की मांग की गई है. फिलहाल मिल रही इतनी कम राशि से पूरे परिवार के भरण-पोषण में उन्हें कठिनाई हो रही है. यही वजह रही कि कई प्रवासी कामगारों ने इसमें रूचि भी नहीं ली. मनरेगा के जरिए ग्रामीण सड़कों का निर्माण और उसके किनारे मिट्टी भराई, तालाब या आहर-पईन जैसे जलस्रोतों की खुदाई जैसे काम किए जाते हैं. इनमें कठिन परिश्रम की जरूरत पड़ती है. इस कारण भी प्रवासियों ने इधर अपेक्षाकृत दिलचस्पी नहीं दिखलाई.

मनरेगा के काम का चरित्र ऐसा है कि उसमें सिर्फ अकुशल कामगार ही रोजगार पा सकते हैं. कुशल या अर्द्धकुशल कामगारों को फिलहाल कोई रोजगार मिलता नजर नहीं आ रहा. गुजरात के जामनगर की एक फैक्ट्री में मशीनमैन रहे और लॉकडाउन के दौरान साइकिल चलाकर बिहारशरीफ पहुंचे मोहन बिंद कहते हैं, "मनरेगा की मजदूरी सबके वश की बात नहीं है. जामनगर में आठ घंटे ड्यूटी करने पर बीस हजार की पगार मिल जाती थी. घर-परिवार को भी कुछ पैसा भेज देता था. अब वापस उसी कंपनी में जाकर काम करेंगे, मेरे लिए यही बेहतर है." वहीं बिहार के अधिकांश इलाकों के बाढ़ प्रभावित होने के कारण इन क्षेत्रों में लौटे प्रवासियों को यह डर भी सता रहा है कि बाढ़ आ जाने के बाद उनकी रोजी-रोटी कैसे चलेगी क्योंकि उनके पलायन के पीछे यह भी एक प्रमुख कारण था. कोरोना ने इन्हें घर भेजा अब बाढ़ के भय से वे फिर परदेस जाने को मजबूर हैं.

अब वापस ले जाने बसें आ रही हैंतस्वीर: DW/M. Kumar

लुभाया जा रहा है मजदूरों को

मजदूरों की वापसी का एक अन्य पहलू यह भी है कि बड़ी संख्या में मजदूरों के घर लौट जाने से दूसरे प्रदेशों में काम प्रभावित होने लगा है. पूरे पंजाब में कृषि व अन्य कार्यों के लिए मजदूरों की घोर कमी हो गई. इसलिए वहां के किसान मजदूरों की वापसी के लिए मजदूरों के दलाल (मेठ) के सहारे राज्य के गांव-गांव में बस भेजने लगे. साथ ही वे कामगारों को मुंहमांगी कीमत भी दे रहे हैं. यही वजह रही कि सीतामढ़ी, मोतिहारी, किशनगंज, सहरसा व सुपौल समेत कई इलाकों से श्रमिक वापस अपने काम पर लौटने लगे. हद तो यह रही कि मोतिहारी से 11 मजदूरों को जालंधर लाने के लिए एक किसान ने 70 हजार रुपये खर्च किए. सीतामढ़ी के पुपरी निवासी रामकिशन कहते हैं, ‘‘इस बार हमलोगों ने धान की रोपनी की मजदूरी भी बढ़ा दी है. पिछले साल प्रति एकड़ 2500 से 3000 रुपये ले रहे थे, जबकि इस बार मांगने पर हमें 6000 तक देने को कहा जा रहा है.

वापसी के लिए हर तरह का प्रलोभन तस्वीर: DW/M. Kumar

इसलिए सीतामढ़ी जिले के गांव सिरसिया, मदारीपुर, रामपुर, पुपरी, बाजपट्टी, ललबंदी समेत कई गांवों में पंजाब से बसें आईं और लोग चले गए. अनलॉक-1 में उद्योग धंधों के चक्के फिर से चल पड़े हैं तो दिल्ली, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश समेत कई राज्यों के फैक्ट्री मालिक घर लौट आए कामगारों को वापस बुलाने लगे. कुछ ट्रेन का टिकट भेज रहे हैं तो कुछ घर खर्च के लिए एडवांस राशि भी खातों में डाल दे रहे हैं. यानि कि किसी तरह भी काम पर लौट आओ. सरकार भले ही श्रमिकों को हुनर के मुताबिक गांवों में ही काम मुहैया कराने के दावे कर रही हो लेकिन हकीकत ये है कि इन योजनाओं पर अमल को लेकर प्रवासी श्रमिकों-कामगारों कोई भरोसा नहीं है.

नहीं मिल रहा मन लायक काम

मधेपुरा के बराही गांव के उमेश्वर व ललित नाथ ने कहा, "लॉकडाउन में पंजाब से गांव आ गए थे. अब तक गांव में एक दिन भी काम नहीं मिला. अब वापस जाने के सिवा कोई उपाय नहीं है. इसी गांव के राजकुमार का कहना था कि सुना था मनरेगा में काम मिलेगा लेकिन जो काम होता है उसे मुखिया जी मशीन से करवाते हैं, मजदूरों को काम नहीं देते. ऐसे कब तक चलेगा. सहरसा जिले के बैजनाथपुर गांव निवासी रवींद्र कहते हैं, "गांव में कोई काम नहीं है. घर में फांकाकशी की हालत है. पंजाब से धान रोपाई का ऑफर आया है. कुछ लोग चले गए हैं, अब हम भी चले जाएंगे." जालंधर से सोनबरसा गांव लौटे श्यामदेव महतो की शिकायत है कि काम मांगने पर मुखिया ने कहा पंचायत में काम नहीं है. इसी गांव के रामायण यादव कहते हैं, "मनरेगा में दस दिन काम किया था, आज तक मजदूरी नहीं मिली."

प्रवासी मजदूरों को मनरेगा का काम न मिल रहा है और न ही भा रहा है. पंजाब, हरियाणा व तेलंगाना से बिहार के मजदूरों को बुलाने का सिलसिला जारी है. सुपौल जिले के पिपरा प्रखंड के सखुआ गांव में पटियाला से आई बस पर सवार हो रहे अनवर कहते हैं, "यहां रोजी-रोटी मुश्किल है. इसलिए जा रहे हैं. यह बस हमलोगों को लेने आई है." पूर्णिया के सईद और साजिद बताते हैं कि उनके इलाके के तीस लोग हरियाणा के नालथा पानीपत गांव जा रहे हैं. वहां से बड़े किसान ने बस भेजा है. यह भी देखा जा रहा है कि गांवों से नए लोग भी महानगरों का रूख कर रहे हैं. उन्हें यह उम्मीद है कि प्रवासियों के घर लौट जाने से वहां भारी मात्रा में जगह खाली हुई है, अतएव वहां रोजगार के पर्याप्त अवसर हैं. इन मजदूरों को बुलाए जाने से उन्हें अहसास हो रहा कि इस वक्त बाहर जाने से वहां उन्हें आसानी से काम मिल जाएगा. वैशाली के चकसिंकदर गांव के दर्जनभर युवा पंजाब की निजी कंपनी में काम करते हैं. इनमें से एक अखिलेश सिंह के पास कंपनी के मैनेजर ने कॉल किया और बताया कि काम शुरू हो गया है. अखिलेश लौटने की तैयारी कर रहे हैं. कहते हैं, "इस बार गांव से पांच और युवक भी साथ जाएंगे. अब उन्हें नौकरी का मौका मिल गया है."

मनरेगा का काम मनलायक नहींतस्वीर: DW/M. Kumar

घर लौटे प्रवासी तो बढ़ने लगा कलह

लॉकडाउन में परदेस में रोजगार चले जाने पर घर लौटे तो उम्मीद थी कि वहां रोटी-नमक खाकर भी जी लेंगे लेकिन यहां तो अपने ही लोग बेगाने हो गए. संपत्ति के लिए खून का रिश्ता भूल गए, मारपीट करने लगे. बेगूसराय के दमदरपुर गांव निवासी श्याममोहन चौधरी दिल्ली में पेंटिंग का काम करते थे. कहते हैं, "यहां लौटने पर क्वारंटीन सेंटर से जब घर पहुंचा तो छोटे भाई ने जमीन के बंटवारे को लेकर मारपीट की. यहां रहें तो कचहरी-मुकदमा करें. इससे तो बेहतर है कि वहीं लौटकर सुकून से रोटी खाएं." इसी गांव के मुखिया राधेश्याम महतो कहते हैं, "यहां लोग पहले से अभाव में जी रहे हैं, जमीन नहीं है. उनके पास झोपड़ी या किसी तरह रहने लायक छोटा सा मकान है. ऐसे में बाहर से लोगों के लौटने के बाद पारिवारिक कलह के मामले बढ़ गए हैं." बिहार राज्य पंच-सरपंच संघ के अध्यक्ष आमोद कुमार निराला के अनुसार, "संघ ने 40 हजार से अधिक गृह कलह और आपसी विवाद के मामलों में समझौता कराया है. इनमें से कुछ मामले अभी भी बने हुए हैं. प्रवासियों के लौटने की वजह से झगड़े बढ़ गए हैं." श्रमिकों की वापसी की यह भी एक वजह बन गई है.

बिहार औद्योगिक रूप से पिछड़ा है. प्रांत के विभाजन के बाद प्राकृतिक खनिज के जो इलाके थे वो भी जाते रहे. जनसंख्या बढ़ने के कारण जोत का आकार कम हो गया तो खेती से गुजारा चलना मुश्किल होने लगा. आबादी की तुलना में छोटे या मंझोले उद्योगों की संख्या यहां न के बराबर है. आइटीसी, ब्रिटेनिया या पेप्सी-कोको कोला को छोड़ दिया तो बड़े उद्योगों भी नगण्य हैं. इसी वजह से यहां से श्रमिकों-कामगारों का पलायन होता है. कुशल कामगार तो मनरेगा के तहत कुदाल चलाकर मिट्टी काटने और ढोने से रहा. आज न कल वह तो लौटेगा ही. कांग्रेस के विधान पार्षद प्रेमचंद्र मिश्रा कहते हैं, "बीते पंद्रह वर्ष में प्रांत का औद्योगिक परिवेश नहीं बदला है. अब जब प्रवासी घर लौट आए तो सरकार ने उद्योगपतियों को न्योता देना शुरू किया है. इनकी कोई योजना नहीं है." कृषि प्रधान राज्य में अवसरों की संख्या वैसे भी सीमित रहती है. दावे-प्रतिदावे चाहे जो भी हों, जब तक राज्य की औद्योगिक स्थिति में आमूल-चूल बदलाव नहीं होगा तब तक श्रमशक्ति के पलायन का सिलसिला बदस्तूर जारी रहेगा.

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