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लगातार हार से परेशान सीपीएम देवी दुर्गा की शरण में

२९ सितम्बर २०१७

एक पुरानी कहावत है कि ‘डूबते को तिनके का सहारा.’ इसी को चरितार्थ करते हुए पश्चिम बंगाल में सीपीएम अपने पैरों तले की लगातार खिसकती जमीन को बचाने के लिए दुर्गापूजा का सहारा ले रही है.

CPM Leader in Durga Puja
तस्वीर: Prabhakar Mani Tiwari

कभी धार्मिक आयोजनों से दूरी बरतने वाली सीपीएम के लिए अब बंगाल की दुर्गापूजा आम लोगों में पैठ बनाने का सबसे बड़ा जरिया साबित हो रही है. पार्टी ने इस साल अपनी रणनीति बदलते हुए अपने विधायकों को पूजा के उद्घाटन समारोहों में भी हिस्सा लेने की अनुमति दे दी है. पहले पार्टी के नेता धार्मिक कर्मकांडों से अछूत की तरह दूरी बरतते थे.  

आम तौर पर पूजा-पाठ और धार्मिक आयोजनों से दूर रहने वाली माकपा इसके जरिए आम लोगों में खोया अपना जनाधार दोबारा हासिल करने का प्रयास कर रही है. कभी लाल किले के नाम से मशहूर रहे बंगाल में यह पार्टी शायद अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. यही वजह है कि इस साल उसने अपने विधायकों को पहली बार दुर्गापूजा के उद्घाटन समारोह में भी शिरकत करने की अनुमति दे दी है.

तस्वीर: Reuters/R. De Chowdhuri

बंगाल में लगभग साढ़े तीन दशक तक राज करने वाली सीपीएम की अगुवाई वाले लेफ्टफ्रंट सरकार के पैरों तले की जमीन खिसकने का सिलसिला इस सदी के पहले दशक के उत्तरार्ध में शुरू हुआ था. तब विपक्षी तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने नंदीग्राम और सिंगुर में जमीन अधिग्रहण की सरकारी कोशिशों के खिलाफ जो व्यापक आंदोलन छेड़ा था उसने वर्ष 2011 के चुनावों में लेफ्ट को सत्ता से बेदखल कर दिया था. उसके दो साल पहले वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में भी उसे भारी झटका लगा था. उसके बाद पार्टी अपनी लगातार गिरती लोकप्रियता पर लगाम नहीं लगा सकी है. वर्ष 2011 के बाद जितने भी चुनाव हुए हैं उन सबमें पार्टी को मुंह की खानी पड़ी है. बीते दिनों हुए शहरी निकाय चुनावों में तो पार्टी का खाता तक नहीं खुल सका था.

माकपा के राज्य सचिवमंडल के एक वरिष्ठ सदस्य कहते हैं, ‘अब हम त्योहारों और सामाजिक आयोजनों से दूरी बरतने का खतरा नहीं मोल ले सकते.' सीपीएम के प्रदेश सचिव सूर्यकांत मिश्र कहते हैं, ‘पार्टी धार्मिक कर्मकांडों पर भरोसा भले न करे, ऐसे आयोजनों में हिस्सा लेने में कोई बुराई नहीं है.' सीपीएम की दलील है कि दुर्गापूजा महज एक धार्मिक आयोजन नहीं रही. अब यह त्योहार एक ऐसा सामाजिक आयोजन बन चुका है जिसमें समाज के हर तबके की सक्रिय भागीदारी रहती है.

तस्वीर: DW/Prabhakar Mani Tewari

पार्टी का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की ओर से सांप्रदायिक धुव्रीकरण के प्रयासों को ध्यान में रखते हुए सीपीएम ने अपने नजरिए में बदलाव किया है. अब पार्टी को समझ में आ रहा है कि इन दोनों राजनीतिक ताकतों से मुकाबले के लिए खासकर राज्य के सबसे बड़े त्योहार दुर्गापूजा में सक्रिय भागीदारी जरूरी है. यह आम लोगों से जुड़ने का एक बेहतरीन मंच है. पहले दुर्गापूजा में सीपीएम की भूमिका महज वामपंथी साहित्य की बिक्री के लिए स्टाल लगाने तक ही सीमित थी. स्टाल तो उसने इस साल भी लगाए हैं. लेकिन अबकी पहली बार पार्टी के कई विधायकों ने पूजा के उद्घाटन समारोह में हिस्सा लिया है.

अपने चुनाव क्षेत्र में एक पूजा का उद्घाटन करने वाले सीपीएम विधायक मानस मुखर्जी कहते हैं, "दुर्गापूजा अब धार्मिक की बजाय एक सामाजिक आयोजन में तब्दील हो गई है. आम लोगों से जुड़ने के इस बेहतरीन मौके को गंवाना बेवकूफी होगी."

कोलकाता के दमदम सीट से सीपीएम विधायक तन्मय भट्टाचार्य ने इस साल अपने इलाके में चार पूजा पंडालों का उद्घाटन किया है. भट्टाचार्य कहते हैं, "मैं निजी तौर पर धर्म में विश्वास नहीं रखता. लेकिन एक जनप्रतिनिधि होने के नाते ऐसे सामाजिक त्योहारों से दूर कैसे रह सकता हूं."

इन नेताओं की दलील है कि वह किसी धार्मिक समारोह में हिससा नहीं ले रहे हैं. उनका कहना है कि वैसे तो शादियों में भी कई धार्मिक रीतिरिवाजों का पालन किया जाता है. तो क्या हम शादियों में जाने से भी तौबा कर लें?

यह वही सीपीएम है जिसके नेता सुभाष चक्रवर्ती के कोई एक दशक पहले तारापीठ मंदिर में जाकर पूजा करने पर पार्टी के भीतर और बाहर भारी बवाल खड़ा हो गया था. वर्ष 2006 में परिवहन मंत्री रहते सीपीएम के वरिष्ठ नेता चक्रवर्ती ने खुद को एक हिंदू, ब्राह्मण और मार्क्सवादी करार देते हुए मंदिर में जाकर काली की पूजा की थी. तब पार्टी में उनकी भारी आलोचना हुई थी. लेकिन अब एक दशक बाद पार्टी के नजरिए में आया यह बदलाव आश्चर्यजनक ही है.

सीपीएम की दलील है कि सुभाष चक्रवर्ती ने जो किया वह अलग था. उन्होंने मंदिर में जाकर पूजा की थी. लेकिन अब सीपीएम विधायक पूजा-अर्चना करने की बजाय दुर्गापूजा के उद्घाटन समारोहों और इस त्योहार से जुड़े दूसरे सामाजिक आयोजनों में हिस्सा ले रहे हैं.

अब धर्म के प्रति अपने नजरिए में इस बदलाव के लिए सीपीएम चाहे जो भी दलील दे, राजनीतिक हलकों में उसकी इस "देवी शरणम् गच्छामि" वाली रणनीति को हैरत भरी निगाहों से ही देखा जा रहा है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अब राज्य में बीजेपी के बढ़ते असर ने सीपीएम से नंबर दो की भी कुर्सी छीन ली है.

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