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लीबिया में ऐतिहासिक चुनाव

७ जुलाई २०१२

चार दशकों तक गद्दाफी की तानाशाही में रहने के बाद अब लीबिया लोकतंत्र की तरफ अपना पहला कदम बढ़ा रहा है. लेकिन पहले चुनावों पर हिंसा और प्रदर्शनों का साया मंडरा रहा है.

तस्वीर: DW

मुअम्मर गद्दाफी के लिए राजनीतिक पार्टियां एक पश्चिमी सिद्धांत थी. अपनी 'हरी किताब' में उन्होंने लोगों को यह सीख दी थी कि जो लोग राजनीतिक दल बनाने में विशवास रखते हैं वे देशद्रोही हैं. चालीस साल से अधिक के गद्दाफी के शासन में ना ही देश में कोई संसद बनी और ना ही संविधान. यहां तक कि किसी पार्टी से जुड़ने का मतलब मौत की सजा भी हो सकता था.

अब गद्दाफी के मारे जाने के नौ महीने बाद लीबिया एक नई सच्चाई का सामना कर रहा है. शनिवार को हो रहे चुनाव में लोगों को 3700 उम्मीदवारों और 140 पार्टियों में से अपना नेता ढूंढना है. यह एक ऐतिहासिक दिन है. पिछली एक शताब्दी में पहली बार लीबिया सही मायनों में चुनाव का स्वाद चख रहा है. मतदान के लिए पंजीकृत 28 लाख लोगों के लिए यह जीवन का पहला मतदान है.

गद्दाफी के मारे जाने के बाद विद्रोहियों में उत्साहतस्वीर: dapd

लीबिया के लिए यह एक प्रयोग जैसा होगा. संसद के गठन के लिए देश को एक ऐसा रास्ता तय करना है जिसके पड़ाव वह एक एक कर के पार करेगा. सबसे पहले एक 200 सदस्यों वाली संवैधानिक सभा का गठन होगा. इस सभा को संविधान तैयार करना होगा. उसके बाद मतदाताओं को इसके लिए अपनी सहमति दिखानी होगी.

लीबिया के लोगों के लिए यह एक बहुत बड़ी चुनौती है. उन्होंने हमेशा से एक ही नेता के नेतृत्व में रहना सीखा है. सुरक्षा के लिहाज से भी देश में हालात नाजुक हैं. आए दिन सेना और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प होती रहती है. विद्रोहियों ने चुनाव का बहिष्कार करने का एलान किया है.

ब्रिटेन के राजदूत पर हमलातस्वीर: Reuters

गद्दाफी के मारे जाने के बाद देश का भार नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल ने संभाला. यह परिषद अब तक देश में हिंसा के मामलों पर काबू करने में विफल रही है. देश के अलग अलग हिस्सों से संघर्ष के मामले लगातार सामने आ रहे हैं. 11 जून को बेनगाजी में ब्रिटेन के राजदूत की गाड़ी पर हमला किया गया. राजनीति से प्रेरित ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं. देश में हथियारों की भी कोई कमी नहीं है.

जर्मनी की सरकारी प्रसारण सेवा एआरडी के रिपोर्टर श्टेफान बूखेन लीबिया में वहां के हालात पर नजर रखे हुए हैं. बूखेन का कहना है कि लीबिया में गद्दाफी विरोधियों की पकड़ बहुत मजबूत हो चुकी है, "जिन लोगों ने सफलतापूर्वक गद्दाफी के खिलाफ विरोध में हिस्सा लिया था, वे अब एकजुट हो कर सत्ता में अपनी जगह सुनिश्चित करना चाहते हैं." बूखेन का कहना है कि इनके साथ साथ गद्दाफी की वफादार सेनाएं भी अब एक बार फिर सक्रिय होने लगी हैं.

सरकार बनने तक ट्रांजिशन काउंसिल का नेतृत्वतस्वीर: REUTERS

एक बात तय है, सत्ता जिसके भी हाथ में आएगी, वह बहुत बड़ी चुनौतियों के सामने खड़ा होगा. जर्मनी में लीबिया मामलों के जानकार वोल्फराम लाखर ने एक विश्लेषण में कहा है कि देश में लोकतंत्र स्थापित करना और सैकड़ों संघर्षों का समाधान निकालने के लिए एक नए कानून और सुरक्षा व्यवस्था को बनाना जरूरी है. मतदाताओं के लिए पहले ही 2500 स्वतंत्र और 1200 सूचीबद्ध यानी पार्टी से जुड़े उम्मीदवारों में से अपना नेता चुनना एक बेहद मुश्किल काम है.

बूखेन लीबिया में हुए विद्रोह के दौरान वहीं से रिपोर्टिंग करते रहे. वह कहते हैं कि अधिकतर लोग राजनीतिक एजेंडे पर ध्यान देने की जगह इस कारण अपना वोट देंगे कि उम्मीदवार उनके इलाके का है. संसद के गठन के लिए फिलहाल देश में जिस तरह की बहस छिड़ी है उसमें राजनीतिक मतभेद कम और क्षेत्रीय मतभेद ज्यादा दिखते हैं.

चालीस सालों में पहली बार चुनावतस्वीर: DW

लेकिन जीत किसकी होगी? क्या लीबिया को कोई इस्लामी विचारधारा वाला नेता मिलेगा? बूखेन का कहना है कि अभी यह बताना बहुत मुश्किल है, "यदि चुनाव ठीक ठाक रूप से हो जाते हैं तो भी यह ट्यूनीशिया और मिस्र से अलग होगा." बूखेन कहते हैं कि चुनावों के बाद भी संसद मिली जुली सी ही बन पाएगी, किसी एक राजनीतिक दल का दबदबा होना मुश्किल है. लेकिन साथ ही वह इस बात से इनकार नहीं करते कि शायद इस्लामी ताकतों की ही जीत हो, "तानाशाही के दौरान कई लोगों ने धर्म का सहारा लिया. कई पार्टियां इसी को आधार बना कर इस्लाम का प्रचार कर रही हैं." पार्टी मुस्लिम ब्रदरहुड भी इसी सिद्धांत पर चल रही है. हालांकि पार्टी का दावा है कि वह देश में न्याय और नवनिर्माण को प्राथमिकता देती है.

जानकारों का कहना है कि उदारवादी पार्टियों के पास भी मौका है. मार्च से अक्टूबर के बीच लीबिया का भार संभालने वाले महमूद जिब्रील की पार्टी से भी उम्मीदें लगाई जा रही हैं. यह पार्टी आधुनिक और संवैधानिक लीबिया का नारा देती है. लेकिन ठीक तरह से कोई भी नहीं कह सकता कि लीबिया का भविष्य क्या होगा. चालीस साल तक जिस देश में ना ही राजनीतिक दल रहे और ना ही किसी तरह की मीडिया स्वतंत्रता, ऐसे देश के चुनावों को ले कर तो कोई ओपीनियन पोल भी तैयार नहीं किए जा सकते.

रिपोर्टः नादेर अलसरास / ईशा भाटिया

संपादनः निखिल रंजन

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