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लेज़र किरण हुई 50 की

३१ मई २०१०

वह सीडी पर संगीत सुनने और डीवीडी पर फ़िल्म देखने को संभव बनाती है. उसके बिना न तो मोबाइल फ़ोन बन सकते हैं और न हृदयगतिदायी पेसमेकर. कंप्यूटर ही नहीं, लेज़र के बिना भी आज की दुनिया ठप्प पड़ जाएगी.

तस्वीर: picture-alliance/ dpa

लेज़र शब्द अंग्रेज़ी में लाइट एम्पिलिफिकेशन बाय स्टिम्युलेडेड एमिशन ऑफ रेडिएशन (एलएएसएआर) का प्रथमाक्षर संक्षेप है. अर्थ हुआ उद्दीपित विकिरण उत्सर्जन के द्वारा प्रकाश प्रवर्धन. 16 मई को उसकी खोज की 50वीं सालगिरह मनाई गई. 33 साल के एक अमेरिकी भौतिकशास्त्री थेओडोर मेमैन ने 16 मई 1960 के दिन मालिबू, कैलिफ़ोर्निया की ह्यूज रिसर्च लैबोरैट्रीज़ में पहली बार लेज़र किरण का प्रदर्शन किया था. उसे उसने बादलों वाली बिजली की कौंध जैसे क्षणिक प्रकाश स्पंदों को एक रूबीन क्रिस्टल में से गुज़ार कर पैदा किया था. लाल रंग के उस क्रिस्टल से गुज़रने के बाद प्रकाश किरणें बहुत ही घनी और चमकीली हो गई थीं.

तस्वीर: picture-alliance/ ZB

लेज़र किरणों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे एक जैसी फ्रीक्वेंसी, एक जैसे फ़ेज़ और एक जैसे पोलाराइज़ेशन वाली अत्यंत सुसंगठित किरणें होती हैं. बहुत ही कम छितराती हैं, इसलिए उनकी सारी ऊर्जा एक ही बिंदु पर संकेंद्रित की जा सकती है.

जर्मनी में म्यूनिख के पास गार्शिंग का क्वांटम ऑप्टिक माक्स प्लांक संस्थान लेज़र किरणों संबंधी मूलभूत अनुसंधान में संसार में अग्रणी है. 2001 में भौतिक शास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता जर्मनी के वोल्फ़गांग केटर्ले ने यहीं अपना कौशल अर्जित किया था. उनके सहयोगी थेओडोर हैंश को 2005 में नोबोल पुरस्कार मिला था और वहीं, पड़ोस की दूसरी प्रयोगशाला में प्रो. फ़ेरेंस क्राउस काम करते हैं. वे अतिक्षणिक लेज़र स्पंद (पल्स) पैदा करने के विशेषज्ञ हैं और साथ ही इस संस्थान के निदेशक भी हैं. 2008 में उन्होंने अतिक्षणिक लेज़र स्पंद का नया रेकॉर्ड बनाया था. वह अपनी लेज़र मशीन के बारे में कहते हैं, "दरअसल इस मशीन के काम को एक ही वाक्य में बताया जा सकता है. वह केवल एक ऐटो-सेकंड एक्सपोज़र टाइम (उद्भासनकाल) वाले किसी अति तेज़ कैमरे के समान है."

ऐटो-सेकंड का मतलब है एक सेकेंड के एक अरबवें हिस्से के भी एक अरबवें हिस्से के बराबर अकल्पनीय कम समय! प्रो. क्राउस की मशीन ने 80 ऐटो-सेकंड के बराबर लेज़र-स्पंद का रेकॉर्ड बनाया था. इतने कम समय का आख़िर लाभ क्या है?, वह बताते हैं, "तब हम उद्दीपित अणुओं का मनचाहे समय पर चित्र ले सकते हैं और बाद में इन चित्रों को धीमी गति (स्लो मोशन) में चला कर अणुओं-परमाणुओं की हरकतों का अध्ययन कर सकते हैं. यही मूल विचार है."

तस्वीर: AP

जो कोई अणुओं-परमाणुओं की गतिविधियों और उनकी संरचना का अध्ययन करना चाहता है, उसे ऐटो-सेकंड जैसे अकल्पनीय कम समयों की ही कल्पना करनी पड़ती है. 2002 में गार्शिंग के वैज्ञानिक पहली बार देख सके थे कि निष्क्रिय गैस क्रिप्टन के इलेक्ट्रॉन अपने नाभिक के फेरे लगाते समय अपनी दिशा किस तरह बदलते हैं. विज्ञान के लिए यह शब्दशः एक क्वांटम छलांग थी.

तब से वैज्ञानिक परमाणु और क्वांटम भौतिकी के बारे में और भी कई जानकारियां प्राप्त करने में सफल रहे हैं. वे ऐसे इलेक्ट्रॉनों को फिल्मांकित कर सके, जिन्हें उन के परमाणुओं से ज़बर्दस्ती अलग कर दिया गया था. उन्होंने यह भी देखा कि इलेक्ट्रॉन किस तरह उन ऊर्जा-बाधाओं के बीच से निकल भागने में सफल रहे, जिन्हें लाघंना प्रचलित भौतिक विज्ञान के सिद्धातों के अनुसार असंभव होना चाहिए. आम तौर पर महत्वपूर्ण मापन रात में होते हैं और यह काम अधिकतर सुबह तक चलता रहता है.

अणुओं-परमाणुओं के इलेक्ट्रॉनों की हरकतों को देखना ही वैज्ञानिकों के लिए काफ़ी नहीं है. इस समय वे उधेड़बुन में हैं कि उनकी गतिविधियों को सक्रिय ढंग से प्रभावित कैसे कर सकते हैं. यदि वे इलेक्ट्रॉनों को अपने ढंग से प्रभावित कर सकें, तो कंप्यूटरों इत्यादि के लिए नए प्रकार के सर्किट बनाए जा सकते हैं और चिकित्सा विज्ञान में भी उनका उपयोग हो सकता है. अति अल्पकालिक लेज़र स्पंद इलेक्ट्रॉन कणों को इस तरह त्वरित (एक्सिलरेट) कर सकते हैं कि वे लेज़र जैसी एक्स-रे किरणें पैदा करने लगें. इन एक्स-रे किरणों से, जो इस समय केवल बड़े-बड़े मूलकण त्वरकों (पार्टिकल एक्सिलरेटर) में ही पैदा की जा सकती हैं, कैंसर की समय रहते पहचान करने में भारी सहायता मिल सकती है. सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि लेजर एक्स-रे यंत्र मूलकण त्वरकों से कहीं छोटे होंगे.

यदि एक दिन हम ऐसा कर पाए, तो हमारे पास ऐसे कॉम्पैक्ट उपकरण होंगे, जो डॉक्टरी इस्तेमाल लायक होंगे और साथ ही कैंसर की समय रहते पहचान के काम भी काम आएंगे.

रिपोर्टः राल्फ़ क्राउटर / राम यादव

संपादनः ए कुमार

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