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समाज

लॉकडाउन से गांव में मिलने लगा मक्के के बदले आलू दूध

१९ अप्रैल २०२०

कोरोना के कारण तालाबंदी में जैसे तैसे वापस लौटे लोगों को अपना गांव बदला बदला दिख रहा है. उनकी जेब में तो पैसा नहीं ही है गांव में अब उसकी जरूरत भी नहीं रही. गांव का लेनदेन अब अदला बदली पर चलने लगा है.

Indien: Jharkhand-Dörfer sparen Wasser ein
तस्वीर: IANS

चौंकिए नहीं, यह लॉकडाउन के दौर का बिहार है. गांवों में लेन-देन की व्यवस्था बदल गई है. लोगों का जीवन दशकों पुराने ढर्रे पर लौट आया है. कोई मकई लेकर आलू दे रहा है तो कोई सब्जी लेकर दूध. यह व्यवस्था गांव में रहने वाली नई पीढ़ी के लिए भी नई है.  इस तरह का व्यापार तो ना जाने कई दशकों से बंद है. हालांकि कोरोना ने गांवों का अर्थशास्त्र बदल दिया है. नकदी से कारोबार बंद एक तरह से बंद ही है.
पूर्वी बिहार के कई गांवों में आज कल मुद्रा की यह नई व्यवस्था ही चल रही है. रोजमर्रा की जिंदगी की जरूरतों को आपसी लेनदेन से ही पूरा किया जा रहा. आखिर नकदी आए कहां से? काम चल नहीं रहा, मजदूरी मिल नहीं रही. खेती-किसानी का काम भी ठप्प है. खेती बाड़ी करने वाले भी कहने लगे हैं, पैसा ना लेकर बदले में धान, गेहूं, मकई या कोई और सामान ले लो. बिहार की आबादी 10 करोड़ के लगभग है जिसमें से 90 फीसदी लोग गांवों में रहते हैं. राज्य में 199 शहर हैं तो करीब 40,000 गांव. शहर हो या गांव, करीब 33 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करते हैं. उस पर से पूरे देश की तालाबंदी ऐसे में घर से बाहर निकल कर कमाना भी मुश्किल है.

लौटा अदला बदली का कारोबार

सहरसा जिले के फरकिया गांव के 91 साल के नागो यादव कहते हैं, "पुराना जमाना लौट आया. सोचा नहीं था फिर ऐसा होगा." उनकी बूढ़ी पथराई आंखों ने पिछला दौर भी देखा है. अतीत की तुलना वे वर्तमान से कर रहे. कहते हैं, "तीन-चार दिन पहले की बात है, पड़ोस की रामसखी देवी को कुछ घरेलू सामान खरीदना था. उसके पास नकदी नहीं थी क्योंकि दस दिनों से कोई काम ही नहीं मिला था. हां, घर में दो-चार मन मक्का रखा था. किसी ने कहा गांव के दुकान से मक्के के बदले सामान ले आओ. पहले तो वह झिझकी लेकिन जब दुकान पर गई तो देखा कुछ और लोग भी उसी की तरह घरों से चावल, सब्जी, गेहूं लेकर आए थे और उसके बदले गुप्ता जी से अपनी जरूरत का सामान ले जा रहे थे." वे लंबी सांस लेते हैं, फिर कहते हैं, "पुराने दिन लौट आए. कमोबेश यही स्थिति बिहार के कई गांवों की है."

तस्वीर: DW/S.Waheed

गांवों का अर्थशास्त्र समझाते हुए 84 वर्षीय अवध बिहारी चौधरी बताते हैं कि नकदी कारोबार तो ठप्प ही पड़ गया है. आवाजाही बंद है, छोटे किसानों और रोज कमाने-खाने वालों के सामने बड़ा संकट आ गया है. घर में रखे अन्न या उपज का ही सहारा है. कहते हैं, "वस्तु विनिमय से ही गांव में काम चल रहा. किसी के पास दूध है तो किसी के पास सब्जी, किसी के पास आलू है तो किसी के पास कुछ और. अदला-बदली का दौर आ गया है." वहीं खड़े 43 साल के रामेश्वर पासवान कहते हैं, "इसी मौसम में बच्चे घर से धान-गेहूं लाकर बदले में बर्फवाले से बर्फ ले लेते थे लेकिन अब तो लगता है, गांव में बहुत कुछ अदला-बदली से ही चल रहा है."

ऐसे भी जिनके पास राशनकार्ड नहीं

पुराने जमाने में बिहार के गांवों में यही व्यवस्था थी. कोई कुछ उपजाता था तो कोई कुछ और. वे आपस में सामान की अदला बदली करते थे. इसके लिए उन्हें गांव से बाहर भी नहीं जाना पड़ता था. विनिमय की इस व्यवस्था में सब एक-दूसरे पर आश्रित थे. वाकई, कोरोना के दौर में गांवों में सहयोग की भावना भी बढ़ी है वरना गांव भी शहर की तरह चलने लगा था. लोगों को जैसे एक दूसरे की जरूरत ही नहीं रह गई थी. अब लोग फिर से एक-दूसरे के साथ सहयोग कर रहे हैं, अपनत्व दिखा रहे हैं. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? गांव में फंसे लोगों का जीवन कैसे चलेगा?

सरकार बीपीएल सूची में शामिल अत्यंत गरीब लोगों को नकद राशि और अनाज दे रही है. बिहार सरकार की सूची में ऐसे करीब एक करोड़ अड़सठ लाख परिवार हैं जो राशन कार्डधारी हैं. आंकड़ों के मुताबिक राज्य में इन परिवारों के आठ करोड़ चौसठ लाख लोगों को सरकारी सहायता मिल रही है. समस्या उन लोगों की ज्यादा बड़ी है जिनके पास राशनकार्ड भी नहीं है. इसके साथ ही वो लोग भी परेशान हैं जिनकी जिंदगी उन परिजनों की नकदी से चल रही थी जो परदेस में कमाई कर अपने घरवालों को पैसा भेजते थे. अब इस कोरोना के संकट में वे भी तो अपनों के पास ही लौट आए हैं. यहां कुछ करने को तो है नहीं, नहीं तो बाहर क्यों जाते.

रिपोर्ट: मनीष कुमार, पटना

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