1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

लोकतंत्र के लिए सम्मान की कमी

६ जनवरी २०१४

बांग्लादेश में रविवार को हुए चुनावों का विपक्ष ने हिंसक तरीके से विरोध किया है. डॉयचे वेले के समीक्षक ग्रैहम लूकस का कहना है कि स्थिति अत्यंत चिंताजनक है और देश के भविष्य पर गहरा साया डाल रही है.

तस्वीर: Reuters

विपक्ष के हिंसक प्रदर्शनों और सुरक्षा बलों की कार्रवाई के बीच हुए चुनाव प्रचार के बाद प्रधानमंत्री शेख हसीना की अवामी लीग संसदीय चुनावों में दो तिहाई बहुमत से जीती है. 1971 से स्वतंत्रता संग्राम के बाद हुए 10वें आम चुनावों ने समाज के अंदर गहरे विभाजन और दोनों ही राजनीतिक धड़ों के बीच लोकतंत्र के लिए आदर की कमी को सतह पर ला दिया है.

शेख हसीना और विपक्षी नेता खालिदा जिया पिछले 20 साल से एक के बाद एक सत्ता में रही हैं, लेकिन बांग्लादेश की राजनीति की दोनों बुजुर्ग महिलाएं राजनीतिक व्यवस्था के खिलाड़ियों के रूप में एक दूसरे का सम्मान नहीं करतीं. इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को निजी दुश्मनी में बदल दिया है. इस झगड़े की वजह से दोनों ने देश की जरूरतों के प्रति आंखें बंद कर ली हैं. उनमें से कोई भी राष्ट्रीय हित में समझौता करने को तैयार नहीं. यह इस बात में भी दिखता है कि खालिदा जिया की बीएनपी के चुनाव का बहिष्कार करने की घोषणा के बावजूद अवामी लीग की सरकार ने चुनाव करवाने का फैसला किया. इस तरह दोनों ने ही बांग्लादेश की जनता को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों से महरूम कर दिया.

ग्राहम लूकसतस्वीर: DW/Matthias Müller

हसीना और जिया दोनों ही राजनीतिक खानदानों का नेतृत्व कर रही हैं. वे लोकतांत्रिक तरीके से जनमत के निर्माण में योगदान नहीं देतीं, बल्कि वे राजनीतिक गुटों के आर्थिक हितों की सेवा करती हैं. ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल ने भी इस बात की पुष्टि की है कि दशकों से राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार का बोलबाला है.

ताजा संकट के तीन मुख्य कारण हैं: पहला यह कि आवामी लीग ने चुनाव से पहले इस्तीफा देने और अंतरिम सरकार के तहत चुनाव कराने की मांग ठुकरा दी. आवामी लीग का यह दावा वैध है कि लोकतंत्रों में यह प्रथा नहीं है, जहां सत्तारूढ़ सरकारें चुनाव की निष्पक्षता की गारंटी देती हैं. लेकिन पिछले महीनों ने दिखाया है कि बांग्लादेश कामकाजी लोकतंत्र नहीं है, क्योंकि वहां की पार्टियां एक दूसरे पर भरोसा नहीं करतीं. अंतरिम सरकार बनने से बहुत सारा विरोध अपने आप समाप्त हो गया होता.

दूसरे, बांग्लादेश के इतिहास के शुरुआती बर्बर अध्याय को बंद करने के लिए बनाया गया तथाकथित युद्ध अपराध न्यायाधिकरण. पाकिस्तान के खिलाफ आजादी की लड़ाई के दौरान लाखों लोग मारे गए और तीन लाख से ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ. सरकार दक्षिण अफ्रीका के सत्यान्वेषी आयोग जैसा मॉडल अपना सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. इसके बदले उसने अपराधियों को मौत तक की सजा देने की नीति अपनाई. इसके लिए उसने कानून में पिछली अवधि से लागू होने वाले बदलाव किए, जिसकी मानवाधिकार संगठनों और संयुक्त राष्ट्र ने भी निंदा की. अधिकांश अभियुक्त बीएनपी की सरकार में सहयोगी रहे कट्टरपंथी जमाते इस्लामी के नेता और बीएनपी के उच्च अधिकारी थे. इसका नतीजा एक ही हो सकता था, उनके समर्थकों की ओर से भारी विरोध प्रदर्शन और हिंसा, जिन्होंने मुकदमों में सरकार का एकतरफा रवैया देखा.

तीसरे, जमाते इस्लामी पर चुनाव में भाग लेने पर रोक लगाने का हाई कोर्ट का फैसला भारी गलती थी. चूंकि इस फैसले के पीछे सरकार का हाथ माना गया, वह पार्टी जो अब तक 10 फीसदी से ज्यादा वोट नहीं पा सकी थी, स्वयंभू शहीदों के आंदोलन में बदल गई, जिसे राजनीतिक दलीलों की प्रतिद्वंद्विता जीतने की जरूरत नहीं रह गई. यह इस तथ्य को नजरअंदाज करता है कि 90 फीसदी बांग्लादेशी भले ही मुसलमान हों, इस्लामी कट्टरपंथ कभी अपनी जड़ें नहीं जमा पाया था. राज्य धर्मनिरपेक्ष है, पाकिस्तान की तरह इस्लामी गणराज्य नहीं और संविधान इसकी गारंटी देता है. आवामी लीग अपनी ओर से यह दलील देती है कि जमात शरीया पर आधारित धार्मिक राज्य बनाना चाहता है. जमात के लक्ष्यों के बारे में चिंता पूरी तरह जायज है, लेकिन ऐसा लगता है कि आवामी लीग की दिलचस्पी बीएनपी से उसका संभावित सहयोगी छीनने में थी.

चुनाव नतीजों पर हुई प्रतिक्रियाएं इस बात की उम्मीद नहीं जगातीं कि बांग्लादेश निकट भविष्य में इस संकट पर काबू पा सकेगा, क्योंकि कोई पक्ष रियायत देने को तैयार नहीं दिखता. यह तय है कि अब अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ेगा क्योंकि न तो अमेरिका और न ही यूरोपीय संघ या राष्ट्रकुल अपने मॉनीटरों को चुनाव में भेजने को तैयार था.

शेख हसीना और उनकी अवामी लीग भले ही चुनाव में जीते हों, लेकिन यह देश की लोकतांत्रिक स्थिरता की कीमत पर हुई आंशिक जीत है. और अतीत में कई मौकों पर सत्ता हथियाने वाली सेना बस इंतजार में है.

समीक्षाः ग्रैहम लूकस/एमजे

संपादनः अनवर जे अशरफ

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें