1962 : कांग्रेस जीती लेकिन नेहरू के करिश्मे की चमक हुई फीकी
अनिल जैन, बेवदुनिया
१६ अप्रैल २०१९
भारत में 1962 के आते आते प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सफेद चादर थोड़ी-थोड़ी मैली हो चुकी थी. उनके अपने ही दामाद सांसद फिरोज गांधी ने मूंदडा कांड का पर्दाफाश किया था. कांग्रेस में परिवारवाद की शुरुआत हो चुकी थी
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मूंदड़ा कांड को फिरोज ने जिस शिद्दत से उठाया था, वह नेहरू को बेहद नागवार गुजरा. इसी वजह से दोनों के बीच दूरी बढ़ गई थी. यह बात दूसरे आम चुनाव के बाद 1957-58 की है. 1960 में दिल का दौरा पड़ने से से फिरोज गांधी की मौत हो गई. इसी दौरान नेहरू पर वंशवाद को बढ़ावा देने का आरोप भी लग चुका था, क्योंकि उन्होंने बेटी इंदिरा गांधी को 1959 मे कांग्रेस का अध्यक्ष बनवाया था. इंदिरा गांधी के दबाव में ही पहली बार एक निर्वाचित राज्य सरकार की बर्खास्तगी हुई थी.
केरल की ईएमएस नम्बूदिरिपाद के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को 1959 में केंद्र के इशारे पर बर्खास्त कर दिया गया था. इसी सबके बीच राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्र पार्टी का गठन हो चुका था जिसके मुख्य मुख्य कर्ताधर्ता स्वतंत्र भारत के पहले गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी और मीनू मसानी थे. मीनू मसानी को स्वतंत्र पार्टी का मुख्य सिद्धांतकार माना जाता था. इस पार्टी ने नेहरू के समाजवाद को सीधी चुनौती दी थी. दरअसल स्वतंत्र पार्टी जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के भी खिलाफ थी और कोटा परमिट राज के भ.।
तो इसी पूरी पृष्ठभूमि में हुआ था 1962 में लोकसभा का तीसरा आम चुनाव. 494 सीटों के लिए हुए इस चुनाव को बतौर मतदाता 21 करोड़ 64 लाख लोगों ने देखा. 11 करोड़ 99 लाख मतदाताओं यानी 55.42 प्रतिशत ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया. इस चुनाव पर सरकारी खजाने से कुल सात करोड़ 80 लाख रुपये खर्च हुए थे. कुल 1,985 प्रत्याशी चुनाव लड़े थे जिनमें से 856 की जमानत जब्त हो गई. कुल 66 महिलाएं चुनाव लड़ी थीं, जिनमें से 31 जीती थीं और 19 को जमानत गंवानी पड़ी थी.
कांग्रेस ने 488 सीटों पर चुनाव लड़कर 361 पर जीत हासिल की. उसे 44.72 प्रतिशत वोट मिले थे. उसके तीन उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. दूसरे आम चुनाव की तरह इस बार भी दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) रही. उसने 137 सीटों पर चुनाव लड़कर 29 पर जीत दर्ज की. उसे 9.94 प्रतिशत वोट मिले जबकि उसके 26 प्रत्याशियों को अपनी जमानत गंवानी पड़ी. तीसरे नंबर पर स्वतंत्र पार्टी रही. 7.89 फीसदी वोटों के साथ उसे 18 सीटों पर जीत मिली. स्वतंत्र पार्टी ने कुल 173 प्रत्याशियों को चुनाव मैदान मे उतारा था जिनमें 75 की जमानत जब्त हो गई थी.
भारत के दस बड़े घोटाले...
सत्ता और कारोबार के घालमेल ने सरकारी खजाने को अब तक काफी नुकसान पहुंचाया है. अकसर किसी न किसी घोटाले की खबर आती ही रहती है. डालते हैं भारत के दस बड़े घोटालों पर एक नजर, जिसने निवेशकों और आम जनता को हिला कर रख दिया.
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कोयला घोटाला, 2012
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान साल 2012 में यह मामला सामने आया. यह घोटाला पीएसयू और निजी कंपनियों को सरकार की ओर से किये गये कोयला ब्लॉक आवंटन से जुड़ा है. इसमें कहा गया था कि सरकार ने प्रतिस्पर्धी बोली के बजाय मनमाने ढंग से कोयला ब्लॉक का आवंटन किया, जिसके चलते सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ.
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2जी घोटाला, 2008
देश में तमाम घोटाले सामने आये हैं लेकिन 2जी स्कैम इन सबसे अलग है. कैग की रिपोर्ट के मुताबिक टेलिकॉम क्षेत्र से जुड़े इस घोटाले के चलते सरकारी खजाने को 1.76 लाख करोड़ का घाटा हुआ. कैग ने साल 2010 की अपनी रिपोर्ट में कहा कि 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस पहले आओ, पहले पाओ की नीति पर बांटे गये लेकिन अगर इन लाइसेंस का आवंटन नीलामी के आधार पर होता तो खजाने को कम से कम 1.76 लाख करोड़ रुपये मिलते.
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वक्फ बोर्ड भूमि घोटाला, 2012
कर्नाटक राज्य अल्पसंख्क आयोग के चेयरमैन अनवर मणिपड़ी द्वारा पेश रिपोर्ट में कहा गया कि कर्नाटक वक्फ बोर्ड के नियंत्रण वाली 27 हजार एकड़ भूमि का आवंटन गैरकानूनी रूप से किया गया. 7500 पन्नों की इस रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक में वक्फ बोर्ड ने 22 हजार संपत्तियों पर कब्जा कर उन्हें निजी लोगों और संस्थानों को बेच दिया. इसके चलते राजकोष को करीब दो लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ.
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कॉमनवेल्थ घोटाला, 2010
घोटालों की सूची में बड़ा नाम कॉमनवेल्थ खेलों का भी है. केंद्रीय सतर्कता आयोग ने अपनी जांच में पाया कि साल 2010 में दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ खेलों पर तकरीबन 70 हजार करोड़ रुपये खर्च किये गये. इसमें से आधी राशि ही खिलाड़ियों और खेलों पर खर्च की गई. आयोग ने जांच में तमाम वित्तीय अनियमिततायें पाईं, मसलन अनुबंधों को पूरा करने में अतिरिक्त विलंब किया गया.
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तेलगी घोटाला, 2002
यह घोटाला अपने आप में कुछ अलग है. घोटाले के मुख्य दोषी अब्दुल करीम तेलगी की हाल में मौत हो गई है, इसे अदालत ने 30 साल कैद की सजा सुनाई थी. माना जाता है कि तकरीबन 20 हजार करोड़ के इस घोटाले की शुरुआत 90 के दशक में हई. तेलगी के पास स्टांप पेपर बेचने का लाइसेंस था लेकिन उसने इसका गलत इस्तेमाल करते हुए नकली स्टांप पेपर छापे और बैंकों और संस्थाओं को बेचना शुरू कर दिया.
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सत्यम स्कैम, 2009
सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज से जुड़े इस घोटाले ने निवेशकों और शेयरधारकों के मन में जो संदेह पैदा किया है उसकी भरपाई नहीं की जा सकती. यह कॉरपोरेट इतिहास के बड़े घोटालों में से एक है. साल 2009 में कंपनी के तात्कालीन चेयरमैन बी रामलिंगा राजू पर कंपनी के खातों में हेरफेर, कंपनी के मुनाफे को बढ़ाचढ़ा कर दिखाने के आरोप लगे. घोटाले के बाद सरकार द्वारा प्रायोजित नीलामी में टेक महिंद्रा ने अधिग्रहण कर लिया.
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बोफोर्स घोटाला, 1980 और 90 के दशक में
देश की राजनीति में उथल-पुथल मचाने वाले इस घोटाले का खुलासा स्वीडन रेडियो ने किया था. इस घोटाले में कहा गया कि स्वीडन की हथियार कंपनी बोफोर्स ने सौदा हासिल करने के लिए भारत के बड़े राजनेताओं और सेना के अधिकारियों को रिश्वत दी. 400 तोपें खरीदने का यह सौदा साल 1986 में राजीव गांधी सरकार ने किया गया था, इसमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर भी आरोप लगे.
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चारा घोटाला, 1996
साल 1996 में सामने आये इस घोटाले ने बिहार के पू्र्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का राज्य में एकछत्र राज्य समाप्त किया. 900 करोड़ रुपये का यह घोटाला जानवरों की दवाओं, पशुपालन से जड़े उपकरण से जुड़ा था जिसमें नौकरशाहों, नेताओं से लेकर बड़े कारोबारी घराने भी शामिल थे. इस मामले में यादव को जेल भी जाना पड़ा.
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हवाला स्कैंडल 1990-91
यह पहला मामला था जिसमें देश की जनता को यह समझ आया कि राजनेता कैसे सरकारी कोष खाली कर रहे हैं. इस स्कैंडल से पता चला कि कैसे हवाला दलालों को राजनेताओं से पैसे मिलते हैं. इस स्कैंडल में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी का नाम भी सामने आया जो उस समय विपक्ष के नेता थे.
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हर्षद मेहता स्कैम,1992
यह कोई आम घोटाला नहीं था. इस पूरे मामले ने देश की अर्थव्यस्था और राष्ट्रीय बैंकों को हिला कर रख दिया. हर्षद मेहता ने धोखाधाड़ी कर बैंकों का पैसा स्टॉक मार्केट में लगाना शुरू कर दिया जिससे बाजार को बड़ा नुकसान हुआ. एक रिपोर्ट के मुताबिक बाजार में बैंकों का पैसा लगाकर मेहता खूब लाभ कमा रहा था लेकिन यह रिपोर्ट सामने आने के बाद स्टॉक मार्केट गिर गया और निवेशकों सहित बैंकों को भी बड़ा नुकसान हुआ.
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जनसंघ की सीटों में 1957 के मुकाबले तीन गुना से भी ज्यादा का इजाफा हुआ. उसके 196 उम्मीदवारों में से 14 जीते पर 114 की जमानत भी जब्त हो गई. उसका वोट प्रतिशत तीन से बढ़कर 6.44 फीसदी हो गया. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) के खाते में 12 और सोशलिस्ट पार्टी के खाते में छह सीटें गई थीं. पीएसपी को 6.81 फीसदी और सोशलिस्ट पार्टी को 2.69 फीसदी वोट मिले थे.
पीएसपी के 168 और सोशलिस्ट पार्टी के 107 उम्मीदवार चुनाव लड़े थे. दोनों के जमानत गंवाने वाले प्रत्याशियों की संख्या क्रमशः 69 और 75 रही. क्षेत्रीय दलों ने 28 और अन्य पंजीकृत दलों ने छह सीटों पर जीत हासिल की. कुल 479 निर्दलीय उम्मीदवार भी मैदान में थे जिनमें से 20 जीते थे और 378 को अपनी जमानत गंवानी पड़ी थी.
अंग्रेजीदां वर्ग का दबदबा कम होने की शुरुआत
इस चुनाव के पहले तक लोकसभा चुनावो में बतौर नेता अधिकांशतः अंग्रेजीदां उच्च मध्यवर्गीय तबके का कब्जा रहा. 1962 मे पहली बार यह कब्जा टूटना शुरू हुआ. संसद में किसान और ग्रामीण पृष्ठभूमि के प्रतिनिधियों के प्रवेश का रास्ता खुला. हालांकि इस चुनाव के नतीजे कांग्रेस के पक्ष में जरूर गए लेकिन इसी चुनाव में नेहरूवादी समाजवाद से मोहभंग सिलसिला भी शुरू हुआ और उनके करिश्मे ने अपनी चमक खोनी शुरू कर दी.
इस तीसरी लोकसभा का गठन जून में हुआ और तीन महीने बाद ही अक्टूबर 1962 मे भारत-चीन युद्ध हो गया. इस युद्ध से नेहरू को करारा झटका लगा और मृत्यु तक वे इससे उबर नहीं सके. कहा जाता है कि 1962 के चुनाव ने 1967 के आम चुनाव की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी और फिर 1967 आते-आते भारतीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व के एक अध्याय की समाप्ति की कहानी लिख दी गई. लेकिन सब कुछ के बावजूद इस चुनाव ने कुछ चमत्कारिक फैसले भी दिए जिनसे सिक्के के दूसरे पहलू की जानकारी मिलती है.
आजादी के बाद भ्रष्टाचार का पहला मामला
मूंदड़ा कांड आजादी के बाद भ्रष्टाचार का पहला बड़ा मामला था. इसके लिए तत्कालीन वित्तमंत्री टीटी कृष्णामाचारी को जिम्मेदार माना गया. उन्होंने इस्तीफा भी दिया लेकिन 1962 का चुनाव भी लड़ा और निर्विरोध जीत कर लोकसभा मे पहुंच गए. सवाल है कि क्या आज की तरह उस वक्त का जनमानस भी भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा मानने के लिए तैयार नहीं था?
दूसरी अहम बात यह थी कि नेहरू के खिलाफ समाजवादी नेता डॉ राममनोहर लोहिया चुनाव लड़े. उनके द्वारा उठाए गए सारे मुद्दे धरे रह गए और नेहरू को उनसे ज्यादा वोट मिले. तीसरी महत्वपूर्ण बात यह रही कि आधुनिकता, लोकतंत्र और समाजवाद का राग अलापने वाले प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने जीते जी बेटी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया और लोकतंत्र में वंशवाद की शुरुआत कर दी और सारे कांग्रेसी दिग्गज खामोश रहे. नेहरू की लगाई गई वंशवाद की बेल आज भी न सिर्फ कांग्रेस में सर सब्ज है बल्कि दूसरे तमाम दलों में भी लहलहा रही है.
लोहिया, डांगे, कृपलानी और अटल बिहारी हारे
पिछले दो चुनावों की तरह 1962 के लोकसभा चुनाव में कई दिग्गज हार गये थे. डॉ. राममनोहर लोहिया, श्रीपाद अमृत डांगे, अटल बिहारी वाजपेयी, जेबी कृपलानी, जनसंघ के अध्यक्ष बलराज मधोक, कांग्रेस नेता ललित नारायण मिश्र, रामधन, बिहार के मुख्यमंत्री रहे अब्दुल गफूर- ये सबके सब हार गए थे. मुंबई शहर (मध्य) सुप्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता डांगे को कांग्रेस के विपुल बालकृष्ण गांधी ने हराया.
अटल बिहारी वाजपेयी बलरामपुर और लखनऊ दो जगहों से चुनाव लड़े थे और दोनों ही जगहों से उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. बलरामपुर में उन्हें कांग्रेस की सुभद्रा जोशी ने और लखनऊ में कांग्रेस के ही बीके धवन ने हराया था. बंबई शहर (उत्तर) से जेबी कृपलानी की हार कांग्रेस के दिग्गज वीके कृष्णमेनन के हाथों हुई. बिहार की सहरसा सीट से सोशलिस्ट पार्टी के भूपेन्द्र नारायण मंडल ने ललित नारायण मिश्र को पराजित किया था. नई दिल्ली संसदीय क्षेत्र से खड़े बलराज मधोक को कांग्रेस के मेहरचंद खन्ना ने हराया. रामधन उत्तर प्रदेश की लालगंज सीट से हारे तो अब्दुल गफूर की हार बिहार की उस वक्त की जयनगर सीट से हुई थी. गफूर तब स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर लड़े थे. उनकी जीत भी मात्र 66 वोटों से हुई थी.
नेहरू के खिलाफ लोहिया की ललकार
सबसे रोचक मुकाबला जवाहरलाल नेहरू के लोकसभा क्षेत्र फूलपुर मे था जहां उनके विरुद्ध प्रख्यात समाजवादी डॉ. राममनोहर लोहिया चुनाव मैदान मे उतरे थे. लोहिया की करारी हार हुई थी. नेहरू को कुल एक लाख 18 हजार 931 वोट मिले जबकि डॉ. लोहिया को मात्र 54 हजार 360 वोट ही हासिल हुए थे. इस चुनाव से ठीक पहले लोहिया ने कहा था कि मैं मानता हूं कि दो बड़े नेताओं को एक दूसरे के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ना चाहिए, लेकिन मैं नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ रहा हूं तो इसलिए क्योंकि उन्होंने जनता को 'गोवा विजय' की घूस दी है. यह राजनीतिक कदाचार है. अगर वे चाहते तो गोवा पहले ही आजाद हो गया होता.
लोहिया ने कहा, दूसरी बात यह है कि नेहरू पर रोजाना 25 हजार रुपये खर्च होते हैं जबकि देश की तीन चौथाई आबादी को प्रतिदिन दो आने भी नहीं मिलते हैं. नेहरू की यह फिजूलखर्ची भी एक तरह का भ्रष्टाचार है. मैं जानता हूं कि इस चुनाव में नेहरूजी की जीत प्रायः निश्चित है. मैं इसे प्रायः अनिश्चित में बदलना चाहता हूं ताकि देश बचे और नेहरू को भी सुधरने का मौका मिले. लोहिया यह चुनाव हारने के एक साल बाद ही 1963 में उत्तर प्रदेश की फर्रुखाबाद सीट से उपचुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंच गए. लोकसभा में पहुंचते ही उन्होंने नेहरू की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. प्रस्ताव पर बहस के दौरान उन्होंने जो भाषण दिया वह बेहद चर्चित रहा.
(भारत के प्रधानमंत्री)
भारत के प्रधानमंत्री
एक नजर आजादी से अब तक भारत के प्रधानमंत्रियों और उनके कार्यकाल पर.
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जवाहरलाल नेहरू
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू धर्मनिरपेक्ष नेता थे. उनके कार्यकाल में समाजवादी नीतियों पर जोर रहा. विज्ञान, शिक्षा और समाज सुधारों की शुरुआत हुई. हालांकि नेहरू के कार्यकाल में देश ने अकाल भी देखे. आलोचक कहते हैं कि नेहरू ने देश से ज्यादा विदेशों पर ध्यान दिया और प्राथमिक शिक्षा पर भी कम ध्यान दिया.
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लाल बहादुर शास्त्री
दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की छवि बेहद मेहनती और जमीन से जुड़े नेता की रही. चुपचाप ईमानदारी से अपना काम करने वाले शास्त्री देश को अकाल से निकालने से सफल रहे. कृषि में क्रांति करने वाले इस नेता ने ही "जय जवान, जय किसान" का नारा दिया.
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इंदिरा गांधी
लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं. कांग्रेस पार्टी टूट गई, लेकिन बांग्लादेश युद्ध के दौरान उनकी छवि लौह महिला की बनी. आपातकाल लगाने और पार्टी लोकतंत्र को खत्म करने के लिए इंदिरा गांधी की आलोचना होती है. उन्हीं के कार्यकाल में खालिस्तान आंदोलन भी शुरू हुआ.
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मोरारजी देसाई
इंदिरा गांधी की सरकार में वित्त मंत्री रहे मोरारजी देसाई आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनावों में इंदिरा की हार के बाद पीएम बने. लेकिन उनकी जनता पार्टी सरकार दो ही साल चली. चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने और फिर इंदिरा गांधी सत्ता में लौटीं.
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राजीव गांधी
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. 40 साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने वाले राजीव ने संचार, शिक्षा और लाइसेंस राज में बड़े सुधार किये. शाहबानो केस, बोफोर्स घोटाले, भोपाल गैस कांड और काले धन के मामले उन्हीं के कार्यकाल में सामने आए.
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विश्वनाथ प्रताप सिंह
1989 के चुनावों में कांग्रेस की हार से जनता पार्टी की गठबंधन सरकार बनी. वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने. उन्हीं के कार्यकाल में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुई. 1990 में वीपी सिंह की सरकार गिरी और चंद्र शेखर की अगुवाई में सरकार बनी. ये भी 1991 में गिर गई.
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पीवी नरसिंह राव
राजीव गांधी की हत्या के बाद जून 1991 में कांग्रेस के नरसिंह राव देश के पहले दक्षिण भारतीय प्रधानमंत्री बने. वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की मदद से उन्होंने उदारीकरण के रास्ते खोले. उन्हीं के कार्यकाल में हिंदू कट्टरपंथियों ने बाबरी मस्जिद तोड़ी.
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एचडी देवगौड़ा
1996 के चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद बीजेपी को सबसे ज्यादा सीटें मिली. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली अल्पमत सरकार सिर्फ 13 दिन चल सकी. इसके बाद जनता दल यूनाइटेड ने एचडी देवगौड़ा (बाएं से तीसरे) के नेतृत्व में सरकार बनाई. भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझती ये सरकार साल भर में धराशायी हो गई.
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आईके गुजराल
पढ़े लिखे, सौम्य और विनम्र छवि के इंद्र कुमार गुजराल 1997 में प्रधानमंत्री बने. उनकी गठबंधन सरकार बहुत कुछ नहीं कर पाई, ज्यादातर वक्त सरकार बचाने की जोड़ तोड़ ही होती रही.
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अटल बिहारी वाजपेयी
1998 में हुए चुनावों के बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी की गठबंधन सरकार बनी. पर सरकार 13 महीने ही चली. फिर चुनाव हुए और वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी. इस दौरान आर्थिक विकास तेज हुआ. पाकिस्तान के साथ संबंध बेहतर हुए. लेकिन कारगिल युद्ध ने संबंधों में दरार डाल दी. वाजपेयी के कार्यकाल में कंधार विमान अपहरण कांड भी हुआ.
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मनमोहन सिंह
एनडीए का "इंडिया शाइनिंग" नारा नाकाम रहा. 2004 में केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए गठबंधन सरकार बनी. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया जाना आश्चर्यजनक था. सूचना अधिकार, शिक्षा अधिकार, मनरेगा जैसे बड़े फैसले सरकार ने लिए. लेकिन दूसरी पारी में सरकार भ्रष्टाचार के लिए बदनाम हुई. देश ने कई बड़े घोटाले देखे.
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नरेंद्र मोदी
मई 2014 को जबरदस्त बहुमत के साथ नरेंद्र मोदी भारत के 14वें प्रधानमंत्री बने. तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके मोदी विकास, सुशासन और सबको साथ लेने का नारा देकर बहुमत में आए. विरोधी उन पर गुजरात दंगों में ठोस कदम न उठाने का आरोप लगाते हैं.