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वजूद की लड़ाई

४ अप्रैल २०१४

दशकों तक वामपंथियों के सबसे बड़े और अभेद्य गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में इस बार लोकसभा चुनावों में सीपीएम और उसके सहयोगी दलों की साख दांव पर है. खासकर सीपीएम के कई नेता बगावत कर चुके हैं.

तस्वीर: DW/P. Tewari

बंगाल में पार्टी को पहले कभी ऐसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था. पार्टी ने यहां लगातार 34 साल तक राज कर एक रिकार्ड बनाया था. लेकिन पिछले चार-पांच वर्षों से वह अपने ही घर में पराया बन कर रह गई है. तीसरे मोर्चे के गठन के प्रयासों को झटका लगने के बाद अब उसने बंगाल पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है. अपने तेजी से खिसकते जनाधार को दोबारा हासिल करने के लिए उसने इस बार 27 नए चेहरों को मैदान में उतारा है. इनमें राज्य के कई पूर्व मंत्री भी शामिल हैं.

घटते वोट

सीपीएम को पिछले लोकसभा चुनावों में राज्य की 42 में से महज नौ सीटों से ही संतोष करना पड़ा था. वाममोर्चा के खाते में तब कुल 15 सीटें ही आई थीं. उस बार लेफ्ट फ्रंट को 43.3 फीसदी वोट मिले थे. लेकिन वर्ष 2011 के विधानसभा चुनावों में यह आंकड़ा घट कर 39.68 तक पहुंच गया. अबकी उसे अपने वोट बढ़ने का भरोसा है. पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य कहते हैं, "अगर हमने वोट बढ़ा लिए तो कम से कम 20 सीटों पर जीत तय है." वह कहते हैं कि वर्ष 2011 के विधानसभा चुनावों में लेफ्ट और तृणमूल कांग्रेस के वोटों में महज 30 लाख का अंतर था और अब यह तेजी से घट रहा है. भट्टाचार्य, जो सीपीएम की पोलितब्यूरो के सदस्य भी हैं, कहते हैं, "हम अबकी यहां अधिक से अधिक सीटें जीतना चाहते हैं. लेफ्ट फ्रंट के लिए यह चुनाव बेहद अहम हैं."

पिछले पांच वर्षों से राज्य में होने वाले लोकसभा, विधानसभा, शहरी निकायों और पंचायत चुनावों में लेफ्ट को जबरदस्त मुंहकी खानी पड़ी है. सीपीएम को इस बार भी उम्मीदवार चुनने में काफी मशक्कत करनी पड़ी. अंदरुनी कलह की वजह से कई सीटों पर पार्टी को बाहरी उम्मीदवारों को मैदान में उतरना पड़ा है. इनमें सीपीएम की केंद्रीय समिति की सदस्य सुहासिनी अली शामिल हैं जो महानगर से सटी बैरकपुर सीट पर मैदान में उतरी हैं.

अंतरकलह

वामपंथी पार्टियां अपने इस गढ़ में जबरदस्त अंतरकलह और बगावत की शिकार हैं. लेफ्ट के दो विधायक पहले से ही नाता तोड़ चुके हैं और अब तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर चुनाव मैदान में हैं. वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री अब्दुर रज्जाक मोल्ला ने जब सीपीएम के खिलाफ लगातार बयानबाजी शुरू की तो पार्टी को उनको निकालना पड़ा. दक्षिण 24 परगना के कुछ इलाकों में मोल्ला की जबरदस्त पकड़ है. उनके जाने से कुछ वोट तो घटेंगे ही.

ममता बनर्जीतस्वीर: DW

सीपीएम के प्रदेश नेतृत्व ने पिछले सप्ताह ही नंदीग्राम आंदोलन के दौरान पार्टी का चेहरा रहे पूर्व सांसद लक्ष्मण सेठ को भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है. उन्होंने पहले तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रशंसा की थी और उसके अगले ही दिन नंदीग्राम फायरिंग के लिए तब मुख्यमंत्री रहे बुद्धदेव और प्रदेश सचिव विमान बसु को कटघरे में खड़ा कर दिया. विमान बसु हालांकि दावा करते हैं कि सेठ को निकालने से सीपीएम की सेहत पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा, लेकिन पूर्व मेदिनीपुर जिले के वोटरों पर सेठ का खासा असर है. ऐसे में सीपीएम के वोट बैंक में सेंध तय है.

भाजपा का भरोसा

भले ही अजीब लगे, लेकिन लेफ्ट इस बार अपने पुनर्वास के लिए भाजपा की ओर देख रहा है. राज्य की तमाम सीटों पर पहली बार चौतरफा मुकाबला है. वामपंथियों का मानना है कि भाजपा जितनी मजबूत लड़ेगी, उनको उतना ही फायदा होगा. इसकी वजह यह है कि भाजपा कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के गढ़ में ही सेंध लगाएगी. भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और दार्जिलिंग संसदीय सीट से चुनाव लड़ रहे एस.एस.आहलुवालिया भी इस बात को मानते हैं. वह कहते हैं, "लेफ्ट समर्थक रहे लोगों के वोट हमें नहीं मिलेंगे."

बंगाल में दशकों तक अल्पसंख्यकों ने लेफ्ट का साथ दिया था. लेकिन उससे मोहभंग होने पर वह तृणमूल कांग्रेस की ओर चले गए. अबकी अल्पसंख्यक वोटरों की अहमियत को ध्यान में रखते हुए लेफ्ट ने 12 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है. सीपीएम महासचिव प्रकाश करात भी मानते हैं कि बंगाल में सीटें बढ़ाना एक कठिन चुनौती है. वह कहते हैं, "राज्य में पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को धमकियां दी जा रही हैं और उन पर हमले हो रहे हैं." उनका दावा है कि चुनाव मुक्त व निष्पक्ष हुए तो लेफ्ट की सीटें बढ़ेंगी.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि अंतरकलह, नेताओं की बगावत और सही उम्मीदवार नहीं मिलने की वजह से लेफ्ट के लिए पिछली बार मिली अपनी सीटों को बचाना ही इन चुनावों में सबसे बड़ी चुनौती है.

रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता

संपादन: महेश झा

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